ऋग्वेद प्रथम मण्डल सूक्त १६४

ऋग्वेद - प्रथम मंडल सूक्त १६४ ऋषि - दीर्घतमा औचथ्यः देवता- १-४१ विश्वे देवा, ४२ वाक, आप, सोम, ४४ केशिनः, ४५ वाक, ४६-४७ सूर्य, ४८ संवत्सर काल चक्रम, ४९ सरस्वती, ५० साध्या, ५१ सूर्य, ५२ सरस्वान, सूर्यो। छंद त्रिष्टुप, १२, १५, २३, २९, ३६, ४१ जगती, ४२ प्रस्तार पंक्ति, ५१ अनुष्टुप - अस्य वामस्य पलितस्य होतुस्तस्य भ्राता मध्यमो अस्त्यश्नः । तृतीयो भ्राता घृतपृष्ठो अस्यात्रापश्यं विश्पतिं सप्तपुत्रम् ॥१॥ इन सुन्दर एवं जगपालक होता (सूर्यदेव) को हमने सात पुत्रों (सप्तवर्णी किरणों) सहित देखा है। इन (सूर्यदेव) के मध्यम (मध्य- अन्तरिक्ष में रहने वाला) भाई सर्वव्यापी वायुदेव हैं। उनके तीसरे भाई तेजस्वी पीठवाले (अग्निदेव) हैं ॥१॥ सप्त युज्ञ्जन्ति रथमेकचक्रमेको अश्वो वहति सप्तनामा । त्रिनाभि चक्रमजरमनर्वं यत्रेमा विश्वा भुवनाधि तस्थुः ॥२॥ एक चक्र (सविता के पोषण चक्र) वाले रथ से ये सातों जुड़े हैं। सात नामों (रंगों) वाला एक (किरण रूपी) अश्व इस चक्र को चलाता है। तीन (द्युलोक, अन्तरिक्ष एवं पृथ्वी) नाभियों (केन्द्रक) अथवा धुरियों वाला यह कालचक्र सतत गतिशील अविनाशी, और शिथिलता रहित है। इसी चक्र के अन्दर समस्त लोक विद्यमान हैं॥२॥ इमं रथमधि ये सप्त तस्थुः सप्तचक्रं सप्त वहन्त्यश्वाः । सप्त स्वसारो अभि सं नवन्ते यत्र गवां निहिता सप्त नाम ॥३॥ इस (सूर्यदेव के पोषण चक्र) से जुड़े यह जो सात (सप्त वर्ण अथवा सातकाल वर्ग- अयन, ऋतु, मास, पक्ष, दिन, रात एवं मुहूर्त) हैं, यही सात चक्र अथवा सात अश्वों के रूप में इस रथ को चलाते हैं। जहाँ गौ (वाणी) में सात नाम (सात स्वर) छिपे हैं, ऐसी सात बहनें (स्तुतियाँ) इसकी वन्दना करती हैं॥३॥ को ददर्श प्रथमं जायमानमस्थन्वन्तं यदनस्था बिभर्ति । भूम्या असुरसृगात्मा क्क स्वित्को विद्वांसमुप गात्प्रष्टुमेतत् ॥४॥ जो अस्थि (शरीर) रहित होते हुए भी अस्थियुक्त (शरीरधारी प्राणियों) का पालन पोषण करते हैं; उन स्वयंभू को किसने देखा ? भूमि में प्राण, रक्त एवं आत्मा कहाँ से आये ? इस सम्बन्ध में पूछने (जानने) के लिए कौन किसके पास जाता ? ॥४॥ पाकः पृच्छामि मनसाविजानन्देवानामेना निहिता पदानि । वत्से बष्कयेऽधि सप्त तन्तून्वि तत्त्रिरे कवय ओतवा उ ॥५॥ अपरिपक्व बुद्धिवाले हम, देवताओं के इन गुप्त पदों (चरणों) के सम्बन्ध में जानने के लिए मनोयोग पूर्वक पूछते हैं सुन्दर युवा गोवत्स (बछड़े या सूर्य के लिए ये विज्ञ (देव आदि) सप्त तन्तुओं (किरणों) को कैसे फैलाते हैं ? ॥५॥ अचिकित्वाञ्चिकितुषश्चिदत्र कवीन्पृच्छामि विद्मने न विद्वान् । वि यस्तस्तम्भ षळिमा रजांस्यजस्य रूपे किमपि स्विदेकम् ॥६॥ जिसके द्वारा इन छहों लोकों को स्थिर किया गया है, वह अजन्मा प्रजापति रूपी तत्त्व कैसा है ? उसका क्या स्वरूप है? इस तत्त्व ज्ञान से अपरिचित हम तत्त्ववेत्ताओं से निश्चित स्वरूप की जानकारी के लिए यह पूछते हैं॥६॥ इह ब्रवीतु य ईमङ्ग वेदास्य वामस्य निहितं पदं वेः । शीष्णः क्षीरं दुह्रते गावो अस्य वत्रिं वसाना उदकं पदापुः ॥७॥ जो इस सुन्दर और गतिमान् सूर्य के उत्पत्ति स्थान को (उत्पत्ति के रहस्य को) जानते हैं, वे इस गुप्त रहस्य का यहाँ आकर स्पष्टीकरण करें कि इस सर्वोत्तम सूर्य की गौएँ (किरणे) पानी का दोहन करती हैं (बरसाती हैं)। वे ही (ग्रीष्मकाल में) तेजस्वी होकर पैरों (निचले भागों) से जल को सोखती हैं ॥७॥ माता पितरमृत आ बभाज धीत्यग्रे मनसा सं हि जग्मे । सा बीभत्सुर्गर्भरसा निविद्धा नमस्वन्त इदुपवाकमीयुः ॥८॥ माता (पृथ्वी) ने ऋन (यज्ञ अथवा ऋतु अनुरूप उपलब्धि के लिये पिता (द्युलोक अथवा सूर्य) का सेवन किया। क्रिया के पूर्व मने से उनका संपर्क हुआ। माता गर्भ (उर्वरता धारण करने योग्य) रस से निबद्ध हुई। तब (गर्भ के विकास के लिए) उनमें नमन पूर्वक (एक दूसरे का आदर करते हुए) वचनों (परामर्श) का आदान-प्रदान हुआ ॥८॥ युक्ता मातासीद्धरि दक्षिणाया अतिष्ठद्गर्भो वृजनीष्वन्तः । अमीमेद्वत्सो अनु गामपश्यद्विश्वरूप्यं त्रिषु योजनेषु ॥९॥ समर्थ सूर्यदेव की धारण क्षमता पर माता (पृथ्वी) आधारित हैं। गर्भ (उर्वर शक्ति प्राणपर्जन्य) गमनशील (वायु अथवा बादलों के बीच रहता है। बछड़ा (बादल) गौओं (किरणों) को देखकर शब्द करते हुए अनुमान करता है, तब तीनों का संयोग विश्व को रूपवान् बनाता है ॥९॥ तिस्रो मातृस्त्रीन्पितृन्बिभ्रदेक ऊर्ध्वस्तस्थौ नेमव ग्लापयन्ति । मन्त्रयन्ते दिवो अमुष्य पृष्ठे विश्वविदं वाचमविश्वमिन्वाम् ॥१०॥ यह स्रष्टा प्रजापति अकेले ही (पृथ्वी, अन्तरिक्ष और द्युलोक रूपी) तीन माताओं तथा (अग्नि, वायु और सूर्य रूपी) तीन पिताओं का भरणपोषण करते हुए सबसे परे स्थित हैं। इन्हें थकावट नहीं आती । विश्व के रहस्य को जानते हुए भी अखिल विश्च से परे (बाहर रहने वाले प्रजापति की वाणी (शक्ति) के सम्बन्ध में (सभी देवगण) घुलोक के पृष्ठ - भाग पर विचार करते हैं॥१०॥ द्वादशारं नहि तज्जराय वर्वर्ति चक्रं परि द्यामृतस्य । आ पुत्रा अग्ने मिथुनासो अत्र सप्त शतानि विंशतिश्च तस्थुः ॥११॥ ऋत (सूर्य अथवा सृष्टि संचालक यज्ञ) का बारह अरों (राशियों) वाला चक्र इस द्युलोक में चारों ओर घूमता रहता हैं। यह चक्र कभी अवरुद्ध या जीर्ण नहीं होता। हे अग्निदेव ! संयुक्त रूप से रहने वाले सात सौ बीस पुत्र यहाँ (इस चक्र) में रहते हैं॥११॥ पञ्चपादं पितरं द्वादशाकृतिं दिव आहुः परे अर्धे पुरीषिणम् । अथेमे अन्य उपरे विचक्षणं सप्तचक्रे षळर आहुरर्पितम् ॥१२॥ अयन, मास, ऋतु, पक्ष, दिन और रात रूपी पाँच पैरों वाला मास रूपी बारह आकृतियों से युक्त तथा जल को बरसाने वाले पिता रूप सूर्यदेव दिव्यलोक के आधे हिस्से में रहते हैं, ऐसी मान्यता है। अन्य विद्वानों के मतानुसार ये सूर्यदव तुरूप छः अरों तथा अयन, मास, तु, पक्ष, दिन, रात एवं मुहूर्त रूपी सात चक्रों वाले रथ पर आरूढ़ हैं॥१२॥ पञ्चारे चक्रे परिवर्तमाने तस्मिन्ना तस्थुर्भुवनानि विश्वा । तस्य नाक्षस्तप्यते भूरिभारः सनादेव न शीर्यते सनाभिः ॥१३॥ अयन, मासादि पाँच अरों वाले इस कालचक्र (रथ) में समस्त लोक विद्यमान हैं। इतने लोकों का भार वहन करते हुए भी इस चक्र का अक्ष (धुरा) न गरम होता है और न टूटता है॥१३॥ सनेमि चक्रमजरं वि वावृत उत्तानायां दश युक्ता वहन्ति । सूर्यस्य चक्षू रजसैत्यावृतं तस्मिन्नार्पिता भुवनानि विश्वा ॥१४॥ नेमि (धुरा या नियन्त्रण) से युक्त कभी क्षय न होने वाला सृष्टि चक्र सदैव चलता रहता है। अति व्यापक प्रकृति के उत्पन्न होने पर इसे दस घोड़े (पाँच घाण एवं पाँच उपप्राण, पाँच प्राण एवं पाँच अग्नियों आदि) चलाते हैं। सूर्य रूपी नेत्र का प्रकाश जल से आच्छादित होकर गतिमान् होता है, उसमें ही सम्पूर्ण लोक विद्यमान हैं॥१४॥ साकंजानां सप्तथमाहुरेकजं षळिद्यमा ऋषयो देवजा इति । तेषामिष्टानि विहितानि धामशः स्थात्रे रेजन्ते विकृतानि रूपशः ॥१५॥ एक साथ जन्मे, जोड़े से रहने वाले छः और सातवाँ यह सभी एक (काल अथवा परमात्म चेतना) से उत्पन्न हैं। यह देवत्व से उपजे श्रेष हैं। वे सभी अपने बदले हुए रूपों में अपने-अपने इष्ट प्रयोजनों में रत, अपने-अपने धामों (क्षेत्रों) में स्थित रहकर गतिशील (सक्रिय) हैं॥१५॥ स्त्रियः सतीस्ताँ उ मे पुंस आहुः पश्यदक्षण्वान्न वि चेतदन्धः । कविर्यः पुत्रः स ईमा चिकेत यस्ता विजानात्स पितुष्पितासत् ॥१६॥ ये (किरणे) स्त्रियाँ हैं, फिर भी पुरुष (गर्भ धारण करने में समर्थ) हैं, यह तथ्य (सूक्ष्म) दृष्टि सम्पन्न ही देख सकते हैं। दूरदर्शी पुत्र (साधक - शिष्य) ही इसे अनुभव कर सकता है। जो यह जान लेता है, वह पिता का भी पिता (सर्व सृजेता को भी जानने वाला) हो जाता है ॥१६॥ अवः परेण पर एनावरेण पदा वत्सं बिभ्रती गौरुदस्थात् । सा कद्रीची कं स्विदर्थं परागात्क्व स्वित्सूते नहि यूथे अन्तः ॥१७॥ गौएँ (पोषक किरणें) द्युलोक से नीचे की ओर तथा इस (पृथ्वी) से ऊपर की ओर (सतत गतिमान् हैं। यह बछड़े (जीवन तत्व) को धारण किए हुए किस लक्ष्य की ओर जाते हैं ? यह किस आधे भाग से परे निकल कर जन्म देती हैं? यहाँ समूह के मध्य तो नहीं देती ॥ ॥१७॥ १७ ॥ अवः परेण पितरं यो अस्यानुवेद पर एनावरेण । कवीयमानः क इह प्र वोचद्देवं मनः कुतो अधि प्रजातम् ॥१८॥ जो द्युलोक से नीचे इस (पृथ्वी) के पिता (सूर्यदेव) तथा पृथिवीं के ऊपर स्थित अग्निदेव को जानते अर्थात् उपासना करते हैं, वे निश्चित ही विद्वान् हैं। यह दिव्यता से युक्त आचरण वाला मन कहाँ से उत्पन्न हुआ ? इस रहस्य की जानकारी देने वाला ज्ञानी कौन है? यह हमें यहाँ आकर बतायें ॥ १८ ॥ ये अर्वाञ्चस्ताँ उ पराच आहुर्ये पराञ्चस्ताँ उ अर्वाच आहुः । इन्द्रश्च या चक्रथुः सोम तानि धुरा न युक्ता रजसो वहन्ति ॥१९॥ (इस गतिशील विश्व में) जो पास आते हुए को दूर जाता हुआ भी कहा जाता (अनुभव किया जाता है और दूर जाते को पास आता हुआ भी कहा जाता है। हे सोमदेव ! आपने और इन्द्रदेव ने जो चक्र चला रखा है, वह धुरे से जुड़ा रहकर लोकों को वहन करता है॥१९॥ द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परि षस्वजाते । तयोरन्यः पिप्पलं स्वाद्वत्त्यनश्नन्नन्यो अभि चाकशीति ॥२०॥ साथ रहने वाले मित्रों की तरह दो पक्षी (गतिशील जीवात्मा एवं परमात्मा) एक ही वृक्ष (प्रकृति अथवा शरीर) पर स्थित हैं। उनमें से एक (जीवात्मा) स्वादिष्ट पीपल (माया) के फल खाता है, दूसरा (परमात्मा) उन्हें न खाता हुआ केवल देखता (द्रष्टा रूप) रहता है॥२०॥ यत्रा सुपर्णा अमृतस्य भागमनिमेषं विदथाभिस्वरन्ति । इनो विश्वस्य भुवनस्य गोपाः स मा धीरः पाकमत्रा विवेश ॥२१॥ इस (प्रकृति-रूपी) वृक्ष पर बैठी हुई संसार में लिप्त मरणधर्मा जीवात्माएँ सुख-दुःख रूपी फलों को भोगती हुई अपने शब्दों में परमात्मा की स्तुति करती हैं। तब इन लोकों के स्वामी और संरक्षक परमात्मा अज्ञान से युक्त मुझ जीवात्मा में भी विद्यमान हैं॥२१॥ यस्मिन्वृक्षे मध्वदः सुपर्णा निविशन्ते सुवते चाधि विश्वे । तस्येदाहुः पिप्पलं स्वाद्वग्रे तन्नोन्नशद्यः पितरं न वेद ॥२२॥ इस (संसार रूपी) वृक्ष पर प्राण रस का पान करने वाली जीवात्माएँ रहती हैं, जो प्रजा वृद्धि में समर्थ हैं। वृक्ष में ऊपर मधुर फल भी लगे हुए हैं, जो पिता (परमात्मा को नहीं जानते, वे इन मधुर (सत्कर्म रूपी) फलों के आनन्द से वञ्चित रहते हैं॥२२॥ यद्गायत्रे अधि गायत्रमाहितं त्रैष्टुभाद्वा त्रैष्टुभं निरतक्षत । यद्वा जगज्जगत्याहितं पदं य इत्तद्विदुस्ते अमृतत्वमानशुः ॥२३॥ पृथ्वी पर गायत्री छन्द को, अन्तरिक्ष में त्रिष्टुप् छन्द को तथा आकाश में जगती छन्द को स्थापित करने वाले को जो जान लेता है, वह देवत्व (अमरत्व) को प्राप्त कर लेता है॥२३॥ गायत्रेण प्रति मिमीते अर्कमर्केण साम त्रैष्टुभेन वाकम् । वाकेन वाकं द्विपदा चतुष्पदाक्षरेण मिमते सप्त वाणीः ॥२४॥ (परमात्मा ने) गायत्री छन्द से प्राण की रचना की, ऋचाओं के समूह से सामवेद को बनाया, त्रिष्टुम् छन्द से यजुर्वाक्यों की रचना की तथा दो पदों एवं चार पदों वाले अक्षरों से सातों छन्दमय वाणियों को प्रादुर्भूत (प्रकट) किया ॥२४॥ जगता सिन्धुं दिव्यस्तभायद्रथंतरे सूर्यं पर्यपश्यत् । गायत्रस्य समिधस्तिस्र आहुस्ततो मह्ना प्र रिरिचे महित्वा ॥२५॥ गतिमान् सूर्यदेव द्वारा प्रजापति ने द्युलोक में जलों को स्थापित किया । वृष्टि के माध्यम से जल, सूर्यदेव और पृथ्वी संयुक्त होते हैं, तब सूर्य और द्युलोक में सन्निहित प्राण, जल वृष्टि के द्वारा इस पृथ्वी पर प्रकट होता है। गायत्री के तीन पाद अग्नि, विद्युत् और सूर्य (पृथ्वीं, ट्यु और अन्तरिक्ष) हैं। उस प्रजापति की तेजस्विता से ही ये तीनों पाद बलशाली होते हैं, ऐसा कहा गया है॥२५॥ उप ह्वये सुदुघां धेनुमेतां सुहस्तो गोधुगुत दोहदेनाम् । श्रेष्ठं सवं सविता साविषन्नोऽभीद्धो घर्मस्तदु षु प्र वोचम् ॥२६॥ दुग्ध (सुख) प्रदान करने वाली गौ (प्रकृति प्रवाहों) का हम आवाहन करते हैं। इस गौ के दुग्ध का दोहन कुशल साधक ही कर पाते हैं। सविता देव हमें दुग्ध (श्रेष्ठ प्राण) प्रदान करें । तपस्वी एवं तेजस्वी (जीवन्त साधक) ही इसको ग्रहण कर सकता है, ऐसा कथन है॥ २६॥ हि‌कृण्वती वसुपत्नी वसूनां वत्समिच्छन्ती मनसाभ्यागात् । दुहामश्विभ्यां पयो अध्येयं सा वर्धतां महते सौभगाय ॥२७॥ कभी भी वध न करने योग्य गौ, मनुष्यों के लिए अन्न, दुग्ध, घृत आदि ऐश्वर्य प्रदान करने की कामना से अपने बछड़े को मन से प्यार करती हुई, भाती हुई बछड़े के पास आ जाती है। वह गौ मानव समुदाय के महान् सौभाग्य को बढ़ाती हुई, प्रचुर मात्रा में दुग्ध प्रदान करती है॥२७॥ गौरमीमेदनु वत्सं मिषन्तं मूर्धानं हिङकृणोन्मातवा उ । सृक्वाणं घर्ममभि वावशाना मिमाति मायुं पयते पयोभिः ॥२८॥ गौ आँखें बन्द किये हुए बछड़े के समीप जाकर रंभाती है । बछड़े के सिर को चाटने (सहलाने) के लिए वात्सल्यपूर्ण शब्द करती है। उसके मुँह के पास अपने दूध से भरे थनों को ले जाती हुई शब्द करती है। वह दूध पिलाते हुए (प्यार से) शब्द करते हुए बछड़े को संतुष्ट भी करती है॥२८॥ अयं स शिङ्क्ते येन गौरभीवृता मिमाति मायुं ध्वसनावधि श्रिता । सा चित्तिभिर्नि हि चकार मर्त्य विद्युद्भवन्ती प्रति वव्रिमौहत ॥२९॥ वत्स गौ के चारों और बिना शब्द के अभिव्यक्ति करता है। गौ सँभाती हुई अपनी (भाव भरी) चेष्टाओं से मनुष्यों को लज्जित करती है। उज्ज्वल दूध उत्पन्न कर अपने भावों को प्रकाशित करती है॥२९॥ अनच्छये तुरगातु जीवमेजध्रुवं मध्य आ पस्त्यानाम् । जीवो मृतस्य चरति स्वधाभिरमर्यो मर्येना सयोनिः ॥३०॥ श्वसन प्रक्रिया द्वारा अस्तित्व में रहने वाला जीव (चन्चल जीव) जब शरीर से चला जाता है, तब यह शरीर घर में निश्चल पड़ा रहता है। मरणशील (मरण धर्मा) शरीरों के साथ रहनेवाली आत्मा अविनाशी है, अतएव अविनाशी आत्मा अपनी धारण करने की शक्तियों से सम्पन्न होकर सर्वत्र निर्बाध विचरण करती है॥३०॥ अपश्यं गोपामनिपद्यमानमा च परा च पथिभिश्चरन्तम् । स सध्रीचीः स विषूचीर्वसान आ वरीवर्ति भुवनेष्वन्तः ॥३१॥ समीपस्थ तथा दूरस्थ मार्गों में गतिमान् सूर्यदेव निरंतर गतिशील रहकर भी कभी नहीं गिरते । वे सम्पूर्ण विश्व का संरक्षण करते हैं। चारों ओर फैलने वाली तेजस्विता को धारण करते हुए समस्त लोकों में विराजमान सूर्यदेव को हम देखते हैं॥३१॥ य ईं चकार न सो अस्य वेद य ईं ददर्श हिरुगिन्नु तस्मात् । स मातुर्योना परिवीतो अन्तर्बहुप्रजा निर्ऋतिमा विवेश ॥३२॥ जिसने इसे (जीव को) बनाया, वह भी इसे नहीं जानता; जिसने इसे देखा है, उससे भी यह लुप्त रहता है। यह माँ के प्रजनन अंग में घिरा हुआ स्थित है। यह प्रजाओं की उत्पत्ति करता हुआ स्वयं अस्तित्व खो देता है॥३२॥ द्यौर्मे पिता जनिता नाभिरत्र बन्धुर्मे माता पृथिवी महीयम् । उत्तानयोश्चम्वोर्योनिरन्तरत्रा पिता दुहितुर्गर्भमाधात् ॥३३॥ द्युलोक स्थित (सूर्यदेव) हमारे पिता और बन्धु स्वरूप हैं। वहीं संसार के नाभि रूप भी हैं। यह विशाल पृथिवी हमारी माता है। दो पात्रों (आकाश के दो गोलार्द्ध) के मध्य स्थित सूर्यदेव अपने द्वारा उत्पन्न पृथ्वी में गर्भ (जीवन) स्थापित करते हैं॥३३॥ पृच्छामि त्वा परमन्तं पृथिव्याः पृच्छामि यत्र भुवनस्य नाभिः । पृच्छामि त्वा वृष्णो अश्वस्य रेतः पृच्छामि वाचः परमं व्योम ॥३४॥ इस धरती का अन्तिम छोर कौन सा है ? सभी भुवनों का केन्द्र कहाँ है ? अश्व की शक्ति कहाँ है ? और वाणी का उद्गम कहाँ है? यह हम आप से पूछते हैं॥३४॥ इयं वेदिः परो अन्तः पृथिव्या अयं यज्ञो भुवनस्य नाभिः । अयं सोमो वृष्णो अश्वस्य रेतो ब्रह्मायं वाचः परमं व्योम ॥३५॥ (यज्ञ कीं) यह वेदिका पृथ्वी का अन्तिम छोर है, यह यज्ञ ही संसार चक्र की धुरी है। यह सोम ही अश्व (बलशाली) की शक्ति (वीर्य) है। यह 'ब्रह्मा' वाणी का उत्पत्ति स्थान है॥३५॥ सप्तार्धगर्भा भुवनस्य रेतो विष्णोस्तिष्ठन्ति प्रदिशा विधर्मणि । ते धीतिभिर्मनसा ते विपश्चितः परिभुवः परि भवन्ति विश्वतः ॥३६॥ सम्पूर्ण विश्व का निर्माण अषरा प्रकृति के मन, प्राण और पंच भूत रूपी सात पुत्रों से होता है। यह सभी तत्त्व सर्वव्यापक प्रजापति के निर्देशानुसार ही कर्तव्य निर्वाह करते हैं। वे अपनी ज्ञानशीलता, व्यापकता से तथा अपनी संकल्पशक्ति द्वारा सम्पूर्ण विश्व में व्याप्त हैं॥३६॥ न वि जानामि यदिवेदमस्मि निण्यः संनद्धो मनसा चरामि । यदा मागन्प्रथमजा ऋतस्यादिद्वाचो अश्नुवे भागमस्याः ॥३७॥ मैं नहीं जानता कि मैं कैसा हैं? मैं मूर्ख की भाँति मन से बँधकर चलता रहता हैं। जब पहले ही प्रकट हुआ सत्य मेरे पास आया, तभी मुझे यह वाणी प्राप्त हुई ॥३७॥ अपा‌ङ्ग्राङेति स्वधया गृभीतोऽगर्यो मर्त्यना सयोनिः । ता शश्वन्ता विषूचीना वियन्ता न्यन्यं चिक्युर्न नि चिक्युरन्यम् ॥३८॥ यह आत्मा अविनाशी होने पर भी मरणधर्मा शरीर के साथ आबद्ध होने से विविध योनियों में जाती है। यह अपनी धारण क्षमता से ही उन शरीरों में आती और शरीरों से पृथक होती रहती है। ये दोनों शरीर और आत्मा शाश्वत एवं गतिशील होते हुए विपरीत गतियों से युक्त हैं। लोग इनमें से एक (शरीर) को तो जानते हैं, पर दूसरे (आत्मा) को नहीं समझाते ॥ ३८ ॥ ऋचो अक्षरे परमे व्योमन्यस्मिन्देवा अधि विश्वे निषेदुः । यस्तन्न वेद किमृचा करिष्यति य इत्तद्विदुस्त इमे समासते ॥३९॥ अविनाशी ऋचाएँ परमव्योम में भरी हुई हैं। उनमें सम्पूर्ण देव शक्तियों का वास है। जो इस तथ्य को नहीं जानता (उसके लिए) ऋचा क्या करेगी ? जो इस तथ्य को जानते हैं, वे इस (ऋचा) का सदुपयोग कर लेते हैं॥३९॥ सूयवसाद्भगवती हि भूया अथो वयं भगवन्तः स्याम । अद्धि तृणमध्ये विश्वदानीं पिब शुद्धमुदकमाचरन्ती ॥४०॥ हे अवधनीय गौ माता! आप श्रेष्ठ पौष्टिक घास (आहार) ग्रहण करती हुई सौभाग्यशालिनी हों। आपके साथ हम सभी सौभाग्यशाली हों । आप शुद्ध घास खाकर और शुद्ध जल पीकर सर्वत्र विचरण करें ॥४०॥ गौरीर्मिमाय सलिलानि तक्षत्येकपदी द्विपदी सा चतुष्पदी । अष्टापदी नवपदी बभूवुषी सहस्राक्षरा परमे व्योमन् ॥४१॥ गौ (वाणी) निश्चित ही शब्द करती हुई जलों (रसों) को हिलाती (तरंगित करती है। वह गौ (काव्यमयी वाणी) एक, दो, चार, आठ अथवा नौ पदोंवाले छन्दों में विभाजित होती हुई सहस्र अक्षरों से युक्त होकर व्यापक आकाश में संव्याप्त हो जाती है ॥४१॥ तस्याः समुद्रा अधि वि क्षरन्ति तेन जीवन्ति प्रदिशश्चतस्रः । ततः क्षरत्यक्षरं तद्विश्वमुप जीवति ॥४२॥ उन सूर्य रश्मियों से (जल वृष्टि द्वारा) जल प्रवाह बहते हैं। जिस जलवृष्टि से सम्पूर्ण दिशाएँ प्रसन्न होती हैं, इससे सम्पूर्ण विश्व को जीवन (प्राण) मिलता है ॥४२॥ शकमयं धूममारादपश्यं विषूवता पर एनावरेण । उक्षाणं पृश्निमपचन्त वीरास्तानि धर्माणि प्रथमान्यासन् ॥४३॥ दूर से हमने धूम्र को देखा। चतुर्दिक् व्याप्त धूम्र के मध्य अग्नि को देखा, जिसमें प्रत्येक उत्तम कार्यों के पूर्व विग्गण शक्तिदायी सोमरस को पकाते हैं॥४३॥ त्रयः केशिन ऋतुथा वि चक्षते संवत्सरे वपत एक एषाम् । विश्वमेको अभि चष्टे शचीभिर्धाजिरेकस्य ददृशे न रूपम् ॥४४॥ तीन किरणों वाले पदार्थ (सूर्य, अग्नि और वायु) तुओं के अनुसार दिखाई देते हैं। इनमें से एक (सूर्य) संस्कार का वपन करता है। एक (अग्नि) अपनी शक्तियों से विश्व को प्रकाशित करता है। तीसरे (वायु) का रूप प्रत्यक्ष नहीं दिखाई पड़ता है॥४४॥ चत्वारि वाक्परिमिता पदानि तानि विदुर्ब्रह्मणा ये मनीषिणः । गुहा त्रीणि निहिता नेङ्गयन्ति तुरीयं वाचो मनुष्या वदन्ति ॥४५॥ मनीषियों द्वारा यह ज्ञात हुआ है कि वाणी के चार रूप हैं, इनमें से तीन वाणियाँ (परा, पश्यन्ती तथा मध्यमा) प्रकट नहीं होती। सभी मनुष्य वाणी के चौथे रूप (बैखरी) को ही बोलते हैं॥४५॥ इन्द्रं मित्रं वरुणमग्निमाहुरथो दिव्यः स सुपर्णो गरुत्मान् । एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्त्यग्निं यमं मातरिश्वानमाहुः ॥४६॥ एक हीं सत्रूप परमेश्वर का विद्वज्जन (विभिन्न गुणों एवं स्वरूपों के आधार पर) विविध प्रकार से वर्णन करते हैं। उसी (परमात्मा) को (ऐश्वर्य सम्पन्न होने पर) इन्द्र, (हितकारी होने से) मित्र, (श्रेष्ठ होने से) वरुण तथा (प्रकाशक होने से) अग्नि कहा गया है। वह (परमात्मा) भली प्रकार पालन कर्ता होने से सुपर्ण तथा गरुत्मान् है ॥४६॥ कृष्णं नियानं हरयः सुपर्णा अपो वसाना दिवमुत्पतन्ति । त आववृत्रन्त्सदनादृतस्यादिघृतेन पृथिवी व्युद्यते ॥४७॥ श्रेष्ठ गतिमान् सूर्य-किरणें अपने साथ जल को उठाती हुई सबके आकर्षण के केन्द्र यानरूप सूर्यमण्डल के समीप पहुँचती हैं। वहाँ अन्तरिक्ष के मेघों में स्थित जल को बरसाते हुए पृथ्वी को सिक्त कर देती हैं ॥४७॥ द्वादश प्रधयश्चक्रमेकं त्रीणि नभ्यानि क उ तच्चिकेत । तस्मिन्त्साकं त्रिशता न शङ्कवोऽर्पिताः षष्टिर्न चलाचलासः ॥४८॥ एक चक्र है, उसे बारह अरे घेरे हुए हैं। उसकी तीन नाभियाँ हैं। उसे कोई विद्वान् ही जानते हैं। उसमें तीन सौ साठ चलायमान कीलें ठुकी हुई है॥४८॥ यस्ते स्तनः शशयो यो मयोभूर्येन विश्वा पुष्यसि वार्याणि । यो रत्नधा वसुविद्यः सुदत्रः सरस्वति तमिह धातवे कः ॥४९॥ हे देवी सरस्वति ! जो आपका सुखदायक, वरण करने योग्य, पुष्टिकारक, ऐश्वर्य प्रदाता, कल्याणकारी विभूतियों को देने वाला स्तन (स्वरूप) है, उसे जगत् के पोषण के लिए प्रकट करें ॥४९॥ यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवास्तानि धर्माणि प्रथमान्यासन् । ते ह नाकं महिमानः सचन्त यत्र पूर्वे साध्याः सन्ति देवाः ॥५०॥ देवों ने यज्ञ से यज्ञ का यजन किया, उनका धर्म-कर्म में प्रथम स्थान है। (इससे) उन (देवों) ने स्वर्ग में स्थान पाया, जहाँ पूर्णकाल में साधना करने वाले देवता रहते हैं॥५०॥ समानमेतदुदकमुच्चैत्यव चाहभिः । भूमिं पर्जन्या जिन्वन्ति दिवं जिन्वन्त्यग्नयः ॥५१॥ यही जल (तप्त होकर वाष्परूप में) ऊपर जाता है और वही जल पर्जन्य रूप में नीचे आता है। जल बरसने से भूमि तृप्त होती है और अग्नियों (प्रदत्त आहुतियों) से दिव्य लोक तृप्त होते हैं॥५१॥ दिव्यं सुपर्ण वायसं बृहन्तमपां गर्भ दर्शतमोषधीनाम् । अभीपतो वृष्टिभिस्तर्पयन्तं सरस्वन्तमवसे जोहवीमि ॥५२॥ द्युलोक में विद्यमान रहनेवाले, उत्तम गति वाले, निरन्तर गतिमान् महिमाशाली, जलों के केन्द्र, ओषधियों को पुष्ट बनाने वाले, जल वृष्टि द्वारा चतुर्दिक् प्रवहमान जल प्रवाहों से भूमि को तृप्त करनेवाले सूर्यदेव को हम अपने संरक्षण के लिए आवाहित करते हैं॥५२॥

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