ऋग्वेद तृतीय मण्डलं सूक्त २५

ऋग्वेद - तृतीय मंडल सूक्त २५ ऋषि - गाथिनो विश्वामित्रः । देवता - अग्निः, अग्निन्द्रौ । छंद - विराट अग्ने दिवः सूनुरसि प्रचेतास्तना पृथिव्या उत विश्ववेदाः । ऋधग्देवाँ इह यजा चिकित्वः ॥१॥ सर्वज्ञाता, प्रबुद्ध, आकाश-पुत्र हे अग्निदेव! आप पृथ्वी के विस्तारक हैं। हे ज्ञान-समृद्ध अग्निदेव ! आप इस यज्ञ में पृथक् पृथक् देवों के निमित्त यज्ञ कार्य सम्पन्न करें ॥१॥ अग्निः सनोति वीर्याणि विद्वान्त्सनोति वाजममृताय भूषन् । स नो देवाँ एह वहा पुरुक्षो ॥२॥ विद्वान् अग्निदेव उपासकों की क्षमताओं में वृद्धि करते हैं। वे अग्निदेव अपने को विभूषित (प्रज्वलित) करके, अमर देवों को हविष्यान्न प्रदान करते हैं। विविध प्रकार के वैभव से सम्पन्न हे अग्निदेव ! आप हमारे निमित्त देवों को इस यज्ञ में ले आयें ॥२॥ अग्निर्धावापृथिवी विश्वजन्ये आ भाति देवी अमृते अमूरः । क्षयन्वाजैः पुरुश्चन्द्रो नमोभिः ॥३॥ ज्ञान-सम्पन्न, सबके आश्रय स्थल, अत्यन्त तेजस्वी, बल और अन्न से युक्त है अग्निदेव ! आप विश्व का सृजन करने में समर्थ, देदीप्यमान तथा अजर-अमर द्यावा-पृथिवी को प्रकाशित करते हैं॥३॥ अग्न इन्द्रश्च दाशुषो दुरोणे सुतावतो यज्ञमिहोप यातम् । अमर्धन्ता सोमपेयाय देवा ॥४॥ हे अग्निदेव ! आप और इन्द्रदेव दोनों यज्ञ के रक्षणकर्ता हैं। आप अभिषुत सोम-प्रदाता यजमान के घर में सोमपान के निमित्त आयें ॥४॥ अग्ने अपां समिध्यसे दुरोणे नित्यः सूनो सहसो जातवेदः । सधस्थानि महयमान ऊती ॥५॥ बल के पुत्र, अविनाशी और सर्वज्ञ हे अग्निदेव ! आप अपनी संरक्षण शक्ति द्वारा आश्रय देकर, प्राणियों को अनुगृहीत करते हुए, जलों के (बरसने के) स्थान अन्तरिक्ष में, भली-भाँति प्रदीप्त होते हैं ॥५॥

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