ऋग्वेद चतुर्थ मण्डलं सूक्त ४५

ऋग्वेद - चतुर्थ मंडल सूक्त ४५ ऋषि - वामदेवो गौतमः देवता - आश्विनौ । छंद - जगती, ७ त्रिष्टुप एष स्य भानुरुदियर्ति युज्यते रथः परिज्मा दिवो अस्य सानवि । पृक्षासो अस्मिन्मिथुना अधि त्रयो दृतिस्तुरीयो मधुनो वि रप्शते ॥१॥ प्रकाशमान सूर्यदेव उदित होते हैं। हे अश्विनीकुमारो ! आप दोनों के रथ चारों ओर विचरण करते हैं। वे रथ आलोकमान सूर्यदेव के साथ ऊँचे स्थान द्युलोक में मिलते हैं। इस रथ के ऊपर जोड़े से तीन प्रकार के अन्न रखे हैं तथा सोमरस का चौथा पात्र विशेष रूप से सुशोभित होता है ॥१॥ उद्वां पृक्षासो मधुमन्त ईरते रथा अश्वास उषसो व्युष्टिषु । अपोर्णवन्तस्तम आ परीवृतं स्वर्ण शुक्रं तन्वन्त आ रजः ॥२॥ उषाओं के उदित होने पर मधुर अन्न तथा अश्वों से सम्पन्न आपके रथ, चारों तरफ विद्यमान तमिस्रा को नष्ट करते हुए, सूर्यदेव के समान प्रदीप्त तेज को चारों तरफ फैलाते हुए ऊर्ध्वमुखी होकर विचरण करते हैं ॥२॥ मध्वः पिबतं मधुपेभिरासभिरुत प्रियं मधुने युञ्जाथां रथम् । आ वर्तनिं मधुना जिन्वथस्पथो दृतिं वहेथे मधुमन्तमश्विना ॥३॥ हे अश्विनीकुमारो ! आप मधुर रस का पान करने वाले मुख के द्वारा सोमरस का पान करें तथा मधुर रस को प्राप्त करने के लिए अपने प्रिय रथ को अश्वों से नियोजित करके याजक के घर पधारें। आप दोनों जाने के मार्ग को मधुर रस से परिपूर्ण करें तथा सोमरस से पूर्ण पात्र को धारण करें ॥३॥ हंसासो ये वां मधुमन्तो अस्रिधो हिरण्यपर्णा उहुव उषर्बुधः । उदप्प्रुतो मन्दिनो मन्दिनिस्पृशो मध्वो न मक्षः सवनानि गच्छथः ॥४॥ आप लोगों के द्रुतगामी, मधुरतायुक्त, विद्रोह न करने वाले, स्वर्णिम पंखों वाले, उषाकाल में जागने वाले, दूर तक गमन करने वाले, पसीने की बूंदों को गिराने तथा हर्षित करने वाले अश्व आपको वहन करते हैं। जिस प्रकार मधुमक्खियाँ मधु की ओर गमन करती हैं, उसी प्रकार आप हमारे सवनों में आगमन करते हैं ॥४॥ स्वध्वरासो मधुमन्तो अग्नय उस्रा जरन्ते प्रति वस्तोरश्विना । यन्निक्तहस्तस्तरणिर्विचक्षणः सोमं सुषाव मधुमन्तमद्रिभिः ॥५॥ जब कार्य पूरा करने वाले मेधावी याजक मन्त्रपूरित जल के द्वारा हाथ को पवित्र करते हुए, पाषाणों से कूटकर मधुर सोमरस अभिषुत करते हैं, तब प्रत्येक उषाकाल में मधुरता युक्त, श्रेष्ठ अहिंसित कर्म करने वाले, अग्नि के सदृश तेजस्वी याजक अश्विनीकुमारों की प्रार्थना करते हैं ॥५॥ आकेनिपासो अहभिर्दविध्वतः स्वर्ण शुक्रं तन्वन्त आ रजः । सूरश्चिदश्वान्युयुजान ईयते विश्वाँ अनु स्वधया चेतथस्पथः ॥६॥ निकट में अवतरित होने वाली किरणें दिन के द्वारा तमिस्रा को नष्ट करती हुई, सूर्यदेव के समान प्रदीप्त तेज को फैलाती हैं। अश्वों को नियोजित करते हुए सूर्यदेव भी गमन करते हैं। हे अश्विनीकुमारो ! आप अपनी धारक शक्ति के द्वारा समस्त मार्गों को अनुक्रम से बतलाते हैं ॥६॥ प्र वामवोचमश्विना धियंधा रथः स्वश्वो अजरो यो अस्ति । येन सद्यः परि रजांसि याथो हविष्मन्तं तरणिं भोजमच्छ ॥७॥ हे अश्विनीकुमारो ! हम स्तोता आप दोनों की प्रार्थना करते हैं। आप दोनों के श्रेष्ठ अश्वों वाला, कभी जीर्ण न होने वाला रथ; जिसके द्वारा पल भर में आप तीनों लोकों का परिभ्रमण करते हैं, उसी के द्वारा आप हवि वाले, शीघ्र गमन करने वाले तथा भोजन प्रदान करने वाले यज्ञ में आगमन करें ॥७॥

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