ऋग्वेद प्रथम मण्डल सूक्त १५६

ऋग्वेद - प्रथम मंडल सूक्त १५६ ऋषि - दीर्घतमा औचथ्यः देवता- विष्णु । छंद - जगती भवा मित्रो न शेव्यो घृतासुतिर्विभूतद्युम्न एवया उ सप्रथाः । अधा ते विष्णो विदुषा चिदर्ध्यः स्तोमो यज्ञश्च राध्यो हविष्मता ॥१॥ हे विष्णुदेव ! आप जल के उत्पादनकर्ता, अति देदीप्यमान, सर्वत्र गतिशील, अतिव्यापक तथा मित्र के सदृश ही हितकारी सुखों के प्रदाता हैं। हे विष्णुदेव ! इसके पश्चात् मनुष्यों द्वारा हविष्यान्न समर्पित करते हुए सम्पन्न किया गया यज्ञ स्तुति योग्य है। ज्ञान सम्पन्न मनुष्यों द्वारा आपके प्रति कहे गये स्तोत्र सराहनीय हैं॥१॥ यः पूर्व्याय वेधसे नवीयसे सुमज्जानये विष्णवे ददाशति । यो जातमस्य महतो महि ब्रवत्सेदु श्रवोभिर्युज्यं चिदभ्यसत् ॥२॥ जो अनन्तकाल से ज्ञानरूप एवं सदा नवीन दीखते हैं तथा जो सद्बुद्धि के प्रेरक हैं, उन विष्णुदेव के लिए हविष्यान्न अर्पित करने वाले मनुष्य कीर्तिमान् होकर श्रेष्ठ पद को प्राप्त करते हैं॥२॥ तमु स्तोतारः पूर्वं यथा विद ऋतस्य गर्भ जनुषा पिपर्तन । आस्य जानन्तो नाम चिद्विवक्तन महस्ते विष्णो सुमतिं भजामहे ॥३॥ हे स्तोताओ ! यज्ञ के नाभिरूप, चिरपुरातन उन विष्णुदेव से सम्बन्धित जिस भी ज्ञान से आप परिचित हों, उसी के अनुसार स्तुतियों द्वारा उन्हें तुष्ट करें। इनके तेजस्वी पराक्रम से सम्बन्धित जानकारी के अनुरूप आप इनका वर्णन करें। हे सर्वत्र व्यापक देव ! हम आपकी श्रेष्ठ प्रेरणाओं के अनुगामी बनें ॥३॥ तमस्य राजा वरुणस्तमश्विना क्रतुं सचन्त मारुतस्य वेधसः । ं दाधार दक्षमुत्तममहर्विदं व्रजं च विष्णुः सखिवाँ अपोर्णते ॥४॥ सर्वज्ञ विष्णुदेव के साथ तेजस्विता सम्पन्न वरुण और अश्विनीकुमार देवता भी कर्मरत रहते हैं। मित्रों से युक्त सूर्यरूप विष्णुदेव अपनी श्रेष्ठ सामर्थ्य से दिवस को प्रकट करते हैं, (प्रकाश के अवरोधक) आवरण को छिन्न-भिन्न कर देते हैं ॥४॥ आ यो विवाय सचथाय दैव्य इन्द्राय विष्णुः सुकृते सुकृत्तरः । वेधा अजिन्वत्निषधस्थ आर्यमृतस्य भागे यजमानमाभजत् ॥५॥ दिव्यलोक में निवास करने वाले, श्रेष्ठ कर्मों को सम्पन्न करने वालों में सर्वोत्तम विष्णुदेव, श्रेष्ठ कर्मशील इन्द्रदेव का सहयोग करते हैं। तीनों लोकों में व्याप्त ये विष्णुदेव श्रेष्ठ पुरुषों को तुष्ट करते हैं, यज्ञकर्ता के पास स्वतः पहुँच जाते हैं॥५॥

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