Shandilyopanishad Chapter 1 Part 2 (शाण्डिल्योपानिषद प्रथम अध्याय - द्वितीय खण्ड)

प्रथमाध्याये - द्वितीयः खण्डः प्रथम अध्याय - द्वितीय खण्ड तपःसन्तोषास्तिक्यदानेश्वरपूजनसिद्धान्त श्रवणहीमतिजपव्रतानि दश नियमाः। तप, संतोष, आस्तिकता, दान, ईश्वर-पूजन, सिद्धान्त-श्रवण, लज्जा, मति, जप तथा व्रत-ये दस प्रकार के भेद 'नियम' के कहे गये हैं। तत्र तपो नाम विध्युक्तकृच्छ्रचान्द्रायणादिभिः शरीरशोषणम् । इसमें तप का तात्पर्य यह है कि विधिपूर्वक कृच्छ्र चान्द्रायण आदि व्रतों को करने से शरीर को सुखाना। संतोषो नाम यदृच्छालाभसंतुष्टिः । संतोष अर्थात् दैव की इच्छा से जो भी कुछ प्राप्त हो जाए, उस पर संतोष रखना। आस्तिक्यं नाम वेदोक्तधर्माधर्मेषु विश्वासः । आस्तिक्य का भाव यह है कि वेद द्वारा कहे हुए धर्म और अधर्म में विश्वास रखना। दानं नाम न्यायार्जितस्य धनधान्यादेः श्रद्धया र्थिभ्यः प्रदानम् । नीति पूर्वक प्राप्त हुए धन-धान्य आदि को श्रद्धापूर्वक गरीबों को देना ही दान कहा जाता है। ईश्वरपूजनं नाम प्रसन्नस्वभावेन यथाशक्ति विष्णुरुद्रादिपूजनम्। ईश्वर-पूजन प्रसन्न स्वभाव से यथोचित मात्रा में विष्णु, रुद्र आदि का पूजन-अर्चन करना। सिद्धान्तश्र वर्णनामवेदान्तार्थविचारः। सिद्धान्त श्रवण अर्थात् वेदान्त के अर्थ का चिन्तन करना। ही म वेदलौकिकमार्गकुत्सितकर्मणि लजा। ही अर्थात् वेद मार्ग में तथा लोकमार्ग में नीच माने जाने वाले कृत्य के करने में लज्जा का अनुभव होना। मतिर्नाम वेदवि हितकर्ममार्गेषु श्रद्धा। मति अर्थात् वेदोक्त कर्म में श्रद्धा का उत्पन्न होना। जपो नाम विधिवद्रूपदिष्टवेदाविरुद्धमन्त्राभ्यासः। जप का तात्पर्य यह है कि विधिपूर्वक गुरु ने जिस वैदिक मन्त्र का उपदेश दिया है, उसका अभ्यास करना। तदिद्वविधं वाचिकं मानसं चेति। मानसंतुमनसा ध्यानयुक्तम्। वाचिकं द्विविधमुच्चैरुपांशुभेदेन। उच्चैरुच्चारणं यथोक्तफलम् । उपांशु सहस्रगुणम्। मानसं कोटिगुणम्। व्रतं नाम वेदोक्तविधिनिषेधानुष्ठा ननैयत्यम् ॥१॥ जप का अभ्यास दो तरह से होता है- वाचिक और मानसिक। मानसिक-जप मन के द्वारा ध्यान युक्त होने से होता है तथा वाचिक दो प्रकार से होता है-१. उच्चारण पूर्वक से तथा २. उपांशु (फुसफुसाहट) रूप में उच्चारण पूर्वक जप का यथोक्त फल होता है। उपांशु का उससे सहस्रगुना फल प्राप्त होता है तथा मानसिक जप करने का फल तो करोड़ गुना मिलता है। व्रत का तात्पर्य वेद के द्वारा कहे हुए विधि-निषेध का नियमित आचरण करना है ॥१॥

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