ऋग्वेद प्रथम मण्डल सूक्त १९

ऋग्वेद - प्रथम मंडल सूक्त १९ ऋषि - मेधातिथिः काण्व देवता - अग्निर्मरुतश्च । छंद- गायत्री प्रति त्यं चारुमध्वरं गोपीथाय प्र हूयसे । मरुद्भिरग्न आ गहि ॥१॥ हे अग्निदेव ! श्रेष्ठ यज्ञों की गरिमा के संरक्षण के लिए हम आपका आवाहन करते हैं, आपको मरुतों के साथ आमंत्रित करते हैं, अतः देवताओं के इस यज्ञ में आप पधारें ॥१॥ नहि देवो न मर्यो महस्तव क्रतुं परः । मरुद्भिरग्न आ गहि ॥२॥ हे अग्निदेव ऐसा न कोई देव है, न ही कोई मनुष्य, जो आपके द्वारा सम्पादित महान् कर्म को कर सके। ऐसे समर्थ आप मरुद्गणों के साथ इस यज्ञ में पधारें ॥२॥ ये महो रजसो विदुर्विश्वे देवासो अद्रुहः । मरुद्भिरग्न आ गहि ॥३॥ जो मरुद्गण पृथ्वी पर श्रेष्ठ जल वृष्टि करने की (विधि जानते हैं या) क्षमता से सम्पन्न हैं। हे अग्निदेव ! आप उन द्रोहरहित मरुद्गणों के साथ इस यज्ञ में पधारें ॥३॥ य उग्रा अर्कमानृचुरनाधृष्टास ओजसा । मरुद्भिरग्न आ गहि ॥४॥ हे अग्निदेव ! जो अति बलशाली, अजेय और अत्यन्त प्रचण्ड सूर्य के सदृश प्रकाशक हैं। आप उन मरुद्गणों के साथ यहाँ पधारें ॥४॥ ये शुभ्रा घोरवर्पसः सुक्षत्रासो रिशादसः । मरुद्भिरग्न आ गहि ॥५॥ जो शुभ्र तेजों से युक्त, तीक्ष्ण, वेधक रूप वाले, श्रेष्ठ बल – सम्पन्न और शत्रु का संहार करने वाले हैं। हे अग्निदेव ! आप उन मरुतों के साथ यहाँ पधारें ॥५॥ ये नाकस्याधि रोचने दिवि देवास आसते । मरुद्भिरग्न आ गहि ॥६॥ हे अग्निदेव ! ये जो मरुद्गण सबके ऊपर अधिष्ठित, प्रकाशक, द्युलोक के निवासी हैं, आप उन मरुद्गणों के साथ पधारें ॥६॥ य ईङ्खयन्ति पर्वतान्तिरः समुद्रमर्णवम् । मरुद्भिरग्न आ गहि ॥७॥ हे अग्निदेव ! जो पर्वत सदृश विशाल मेघों को एक स्थान से सुदूरस्थ दूसरे स्थान पर ले जाते हैं तथा जो शान्त समुद्रों में भी ज्वार पैदा कर देते हैं (हलचल पैदा कर देते हैं), ऐसे उन मरुद्गणों के साथ आप यज्ञ में पधारें ॥७॥ आ ये तन्वन्ति रश्मिभिस्तिरः समुद्रमोजसा । मरुद्भिरग्न आ गहि ॥८॥ हे अग्निदेव ! जो सूर्य की रश्मियों के साथ संव्याप्त होकर समुद्र को अपने ओज से प्रभावित करते हैं, उन मरुतों के साथ आप यहाँ पधारें ॥८ ॥ अभि त्वा पूर्वपीतये सृजामि सोम्यं मधु । मरुद्भिरग्न आ गहि ॥९॥ हे अग्निदेव ! सर्वप्रथम आपके सेवनार्थ यह मधुर सोमरस हम अर्पित करते हैं, अतः आप मरुतों के साथ यहाँ पधारें ॥९॥

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