Pashupat Upanishad (पशुपत उपनिषद)

॥अथ पाशुपतब्रह्मोपनिषत् ॥ ॥ हरिः ॐ ॥ पाशुपतब्रह्मविद्यासंवेद्यं परमाक्षरम् । परमानन्दसम्पूर्ण रामचन्द्रपदं भजे ॥ ॐ भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवा भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः । स्थिरैरङ्गैस्तुष्तुवासस्तनूभिर्व्यशेम देवहितं यदायुः ॥ गुरुके यहाँ अध्ययन करने वाले शिष्य अपने गुरु, सहपाठी तथा मानवमात्र का कल्याण-चिन्तन करते हुए देवताओं से प्रार्थना करते है कि: हे देवगण ! हम भगवान का आराधन करते हुए कानों से कल्याणमय वचन सुनें। नेत्रों से कल्याण ही देखें। सुदृढः अंगों एवं शरीर से भगवान की स्तुति करते हुए हमलोग; जो आयु आराध्य देव परमात्मा के काम आ सके, उसका उपभोग करें। स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः । स्वस्ति नस्तार्थ्यो अरिष्टनेमिः स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु ॥ जिनका सुयश सभी ओर फैला हुआ है, वह इन्द्रदेव हमारे लिए कल्याण की पुष्टि करें, सम्पूर्ण विश्व का ज्ञान रखने वाले पूषा हमारे लिए कल्याण की पुष्टि करें, हमारे जीवन से अरिष्टों को मिटाने के लिए चक्र सदृश्य, शक्तिशाली गरुड़देव हमारे लिए कल्याण की पुष्टि करें तथा बुद्धि के स्वामी बृहस्पति भी हमारे लिए कल्याण की पुष्टि करें। ॥ ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥ भगवान् शांति स्वरुप हैं अतः वह मेरे अधिभौतिक, अधिदैविक और अध्यात्मिक तीनो प्रकार के विघ्नों को सर्वथा शान्त करें । ॥ हरिः ॐ ॥ ॥ श्री हरि ॥ ॥ पाशुपतब्रह्मोपनिषत् ॥ ॥ पशुपत उपनिषद ॥ पूर्वकाण्ड हरिः ॐ ॥ अथ ह वै स्वयंभूर्ब्रह्मा प्रजाः सृजानीति कामकामो जायते कामेश्वरो वैश्रवणः । ॥१॥ एक बार स्वयंभू भगवान् ब्रह्माजी के मन में यह आकांक्षा प्रादुर्भूत हुई कि "मैं प्रजा का सृजन करूं"। उसी सृष्टि क्रम में कामेश्वर (रुद्र) एवं वैश्रवण की उत्पत्ति हुई ॥१॥ वैश्रवणो ब्रह्मपुत्रो वालखिल्यः स्वयंभुवं परिपृच्छति जगतां का विद्या का देवता जाग्रत्तुरीययोरस्य को देवो यानि तस्य वशानि कालाः कियत्प्रमाणाः कस्याज्ञया रविचन्द्रग्रहादयो भासन्ते कस्य महिमा गगनस्वरूप एतदहं श्रोतुमिच्छामि नान्यो जानाति त्वं ब्रूहि ब्रह्मन् । ॥२॥ तदुपरान्त ब्रह्मपुत्र वैश्रवण वालखिल्य ऋषि ने स्वयंभू ब्रह्माजी से प्रश्न किया- हे भगवन्! यह जगत् विद्या क्या है? जाग्रत् और तुरीयावस्था के देवता कौन हैं? यह जगत् किसके वश में है? काल का क्या प्रमाण है? सूर्य एवं चन्द्रादि ग्रह किसकी आज्ञा से प्रतिभासित (प्रकाशित)होते हैं? किसकी महिमा गगन के सदृश विशाल है? हम इन सभी प्रश्नों के उत्तर आपसे सुनना चाहते हैं। आपके अतिरिक्त अन्य और कोई इन प्रश्नों का ज्ञाता नहीं है, अतः हे ब्रह्मन् ! आप कृपा करके इन प्रश्नों को बताने का अनुग्रह करें ॥२॥ स्वयंभूरुवाच कृत्स्त्रजगतां मातृका विद्या ॥३॥ स्वयंभू (ब्रह्माजी) ने कहा-सम्पूर्ण जगत् (उत्पन्न) करने वाली मातृका विद्या (अक्षर विद्या) है॥३॥ द्वित्रिवर्णसहिता द्विवर्णमाता त्रिवर्णसहिता । चतुर्मात्रात्मकोङ्कारो मम प्राणात्मिका देवता । ॥४॥ वह दो वर्ण (हंस) से युक्त तथा तीन वर्ण (प्रणव) वाली है। दो वर्ण वाली भी तीन वर्ण के सहित (प्रणव) ही है। चार मात्राओं से युक्त ओंकार मेरा प्राण रूप देवता है॥४॥ अहमेव जगत्त्रयस्यैकः पतिः । ॥५॥ मैं ही एकमात्र तीनों लोकों का पति (भरण-पोषण करने वाला) हैं ॥५॥ मम वशानि सर्वाणियुगान्यपि । ॥६॥ समस्त युग मेरे ही वश (नियंत्रण) में रहते हैं॥६॥ अहोरात्रादयो मत्संवर्धिताः कालाः । ॥७॥ मेरे द्वारा ही अहोरात्र अर्थात् दिन-रात्रि आदि काल संवर्द्धित (प्रादुर्भूत) हुए हैं॥७॥ मम रूपा रवेस्तेजश्चन्द्रनक्षत्रग्रहतेजांसि च । ॥८॥ रवि, चन्द्रमा, समस्त नक्षत्रों एवं ग्रह आदि में जो तेज विद्यमान है, वह मेरा ही स्वरूप है॥८॥ गगनो मम त्रिशक्तिमायास्वरूपः नान्यो मदस्ति । ॥९॥ यह आकाश त्रिशक्ति युक्त (सत, रज, तम) मायारूप में मेरा ही स्वरूप है। मेरे सिवाय अन्य और कुछ भी नहीं है ॥९॥ तमोमायात्मको रुद्रः सात्विकमायात्मको विष्णू राजसमायात्मको ब्रह्मा । इन्द्रादयस्तामसराजसात्मिका न सात्विकः कोऽपि अघोरः सर्वसाधारणस्वरूपः । ॥१०॥ तमोगुणी मायारूप - रुद्र हैं, विष्णु सतोगुणी मायारूप हैं और ब्रह्मा रजोगुणी माया रूप हैं। इन्द्रादि देवता रजोगुण एवं तमोगुण से ओत- प्रोत हैं। इनमें से कोई भी देव सात्त्विक नहीं हैं। एक मात्र केवल अघोर (शिव) ही सर्वसाधारण सामान्य रूप वाले हैं॥१०॥ समस्तयागानां रुद्रः पशुपतिः कर्ता । रुद्रो यागदेवो विष्णुरध्वर्युर्होतेन्द्रो देवता यज्ञभुग् मानसं ब्रह्म माहेश्वरं ब्रह्म ॥११॥ समस्त यज्ञों के कर्ता-पशुपति रुद्र भगवान् हैं, भगवान् विष्णु यज्ञ के अध्वर्यु हैं तथा इन्द्रदेव होता (मंत्र बोलने वाले) हैं। महेश्वर-ब्रह्म के मानस रूप ब्रह्म ही इस यज्ञ के भोक्ता हैं॥११॥ मानसं हंसः सोऽहं हंस इति । तन्मययज्ञो नादानुसंधानम् । तन्मयविकारो जीवः । ॥१२॥ उस मानस ब्रह्म का रूप ही हंसः सोऽहं" है। इस तन्मयता की प्राप्ति हेतु जो यज्ञ सम्पन्न किया जाता है, वही नाद-अनुसंधान है। तन्मय (उस चैतन्यमयता) का विकार ही जीव है॥१२॥ परमात्मस्वरूपो हंसः । अन्तर्बहिश्चरति हंसः । अन्तर्गतोऽनकाशान्तर्गतसुपर्णस्वरूपो हंसः । ॥१३॥ (वह) 'हंस' परमात्मा का स्वरूप है। (वह) हंस बाह्य एवं अन्तः में विचरण करता रहता है। अन्तः के अनवकाश वाले स्थल में यह हंस सुपर्णमय (ईश्वर-परब्रह्म) रूप में विद्यमान रहता है॥१३॥ षण्णवतितत्त्वतन्तुवद्व्यक्तं चित्सूत्रत्रयचिन्मयलक्षणं नवतत्त्वत्रिरावृतं ब्रह्मविष्णुमहेश्वरात्मकमग्नित्रयकलोपेतं चिद्रून्थिबन्धनम् । अद्वैतग्रन्थिः यज्ञसाधारणाङ्गं बहिरन्तर्ध्वलनं यज्ञाङ्गलक्षणब्रह्मस्वरूपो हंसः ।॥१४-१५॥ छियानवे तत्त्व तन्तुओं के रूप में व्यक्त होने वाला, चित् के तीन सूत्रों (सत्, चित्, आनन्द) से चिन्मय लक्षणों वाला त्रिगुणित होने से नौ तत्त्वों वाला, ब्रह्मा, विष्णु और महेश रूप तीन अग्नियों से संयुक्त, चिद् ग्रन्थियों से बँधा हुआ, अद्वैत ग्रन्थि (ब्रह्मग्रन्थि) से युक्त यज्ञ के सामान्य अंग-रूप में बाह्य एवं अन्तःकरण को प्रकाशित करने वाला यज्ञोपवीत, ब्रह्म के लक्षणों से युक्त हंस रूप है॥१४-१५॥ उपवीतलक्षणसूत्रब्रह्मगा यज्ञाः । ब्रह्माङ्गलक्षणयुक्तो यज्ञसूत्रम् । तद्ब्रह्मसूत्रम् । यज्ञसूत्रसंबंधी ब्रह्मयज्ञः ।॥१६॥ इस प्रकार यह उपवीत के लक्षणों से युक्त सूत्र (ब्रह्मसूत्र) यज्ञ-रूप है अर्थात् यह ब्रह्म का प्रतीक रूप है। ब्रह्म के लक्षणों से युक्त यह यज्ञसूत्र (यज्ञोपवीत) है, वही ब्रह्मसूत्र है। अतः यज्ञोपवीत एवं ब्रह्मयज्ञ दोनों एक दूसरे के स्वरूप ही हैं॥१६॥। तत्स्वरूपोऽङ्गानि मात्राणि मनो यज्ञस्य हंसो यज्ञसूत्रम् । प्रणवं ब्रह्मसूत्रं ब्रह्मयज्ञमयम् । प्रणवान्तर्वर्ती हंसो ब्र रह्मसूत्रम् । तदेव ब्रह्मयज्ञमयं मोक्षक्रमम् । ॥१७॥ इसके अंग मात्राएँ हैं। यह ब्रह्मसूत्र ही इस मनोयज्ञ का हंस है। ब्रह्मयज्ञ से युक्त यह प्रणव भी ब्रह्मसूत्र ही है। प्रणव का अन्तःवर्ती हंस भी ब्रह्मसूत्र है। यह ब्रह्मयज्ञ मोक्ष का साधन रूप ही है॥१७॥ ब्ररररह्मसन्ध्याक्रिया मनोयागः । सन्ध्याक्रिया मनोयागस्य लक्षणम् । ॥१८॥ ब्रह्मसंध्या मानसिक यज्ञ की क्रिया है, संध्या-क्रिया मानसिक यज्ञ का लक्षण है॥ १८ ॥ यज्ञसूत्रप्रणवब्रह्मयज्ञक्रियायुक्तो ब्राह्मणः । ब्रह्मचर्येण हरन्ति देवाः । हंससूत्रचर्या यज्ञाः । हंसप्रणवयोरभेदः । ॥१९॥ जो मनुष्य यज्ञोपवीत, प्रणव एवं ब्रह्मयज्ञ की क्रिया से सम्पन्न हैं, वही ब्राह्मण हैं। ब्रह्मचर्य में ही देवता विचरण करते हैं। सूत्ररूप हंस एवं प्रणव दोनों एक ही हैं। इन दोनों में कोई भेद नहीं है ॥१९॥ हंसस्य प्रार्थनास्त्रिकालाः । त्रिकालस्त्रिवर्णाः । त्रेताग्यनुसन्धानो यागः। त्रेताग्यात्माकृतिवर्णोङ्कारहंसानुसन्धानोऽन्तर्यागः ।॥२०॥ हंस की प्रार्थना त्रिकाल अर्थात् तीन समय में सम्पन्न की जाती है। तीन काल, तीन वर्ण (अकार, उकार, मकार) होते हैं। यह यज्ञ तीन अग्नियों के अनुसंधान द्वारा सम्पन्न करने का है। तीन अग्नि रूप आत्मा की आकृति एवं वर्ण वाले ॐकार रूप हंस का अनुसंधान ही अन्तः का यज्ञ है॥२०॥ चित्स्वरूपवत्तन्मयं तुरीयस्वरूपम् । अन्तरादित्ये ज्योतिःस्वरूपो हंसः । ॥२१॥ चित् स्वरूप में तन्मय (तल्लीन) होना ही तुरीयावस्था का स्वरूप है। अन्तः के आदित्य में हंस ही ज्योति रूप में अवस्थित है॥२१॥ यज्ञाङ्गं ब्रह्मसम्पत्तिः । ब्रह्मप्रवृत्तौ तत्प्रणवहंससूत्रेणैव ध्यानमाचरन्ति । ॥२२॥ यज्ञाङ्ग ही ब्रह्म-सम्पत्ति है। अतः ब्रह्म-प्राप्ति के निमित्त प्रणवरूप हंस की साधना में ही ध्यान द्वारा विचरण करना चाहिए ॥२२॥ प्रोवाच पुनः स्वयंभुवं प्रतिजानीते ब्रह्मपुत्रो ऋषिर्वालखिल्यः । हंससूत्राणि कतिसंख्यानि कियद्वा प्रमाणम्। ॥२३॥ ब्रह्मपुत्र वालखिल्य ने पुनः स्वयंभू ब्रह्माजी से पूछा-हे भगवन् ! 'हंससूत्रों की संख्या कितनी है तथा उनके प्रमाण कितने हैं? आप तो सभी कुछ जानने में समर्थ हैं, कृपा करके बताने का अनुग्रह करे ॥२३॥ हृद्यादित्यमरीचीनां पदं षण्णवतिः । चित्सूत्रघ्राणयोः स्वर्निर्गता प्रणवधारा षडङ्‌गुलदशाशीतिः । ॥२४॥ तदनन्तर स्वयंभू ब्रह्माजी ने उत्तर दिया- 'हृदय- आदित्य की छियानवे रश्मियाँ हैं। चित्-सूत्र घ्राण से स्वरसहित निकलने वाली धारा भी छियानवे अंगुल होती है॥२४॥ वामबाहुर्दक्षिणकठ्योरन्तश्चरति हंसः परमात्मा ब्रह्मगुह्यप्रकारो नान्यत्र विदितः । ॥२५॥ बायीं भुजा (कंधा) और दक्षिण कट्यन्त (दाहिनी ओर कटि के छोर पर) के मध्य (हृदय क्षेत्र) में परमात्मा हंस का निवास है; किन्तु इस गुह्य विषय की जानकारी किसी को नहीं हो पाती है॥२५॥ जानन्ति तेऽमृतफलकाः । सर्वकालं हंसं प्रकाशकम् । प्रणवहंसान्तर्ध्यानप्रकृतिं विना न मुक्तिः ।॥२६॥ जिन्हें अमृतत्व की प्राप्ति हो गई है, वे ही उस सर्वकाल प्रकाशमान हंस को जानते हैं। प्रणवरूपी हंस का अन्तर्ध्यान किये बिना मोक्ष की प्राप्ति नहीं हो पाती ॥२६॥ नवसूत्रान्परिचर्चितान् । तेऽपि यद्ब्रह्म चरन्ति । अन्तरादित्ये न ज्ञातं मनुष्याणाम् । ॥२७॥ जो मनुष्य रँगे हुए इस नौ सूत्र वाले यज्ञोपवीत को धारण करते हैं। वे भी इसकी उपासना ब्रह्ममय मान कर ही करते हैं; किन्तु इन मनुष्यों को अन्तः में स्थित आदित्यरूप ब्रह्म का ज्ञान (आत्मबोध) नहीं होता ॥२७॥ जगदादित्यो रोचत इति ज्ञात्वा ते मर्त्या विबुधास्तपन प्रार्थनायुक्ता आचरन्ति ।॥ २८ ॥ आदित्य जगत् को प्रकाशित करता है, यह जानकर वे बुद्धिमान् मनुष्य पवित्रता एवं ज्ञान के लिए उसकी प्रार्थना करते हैं॥२८॥ वाजपेयः पशुहर्ता अध्वर्युरिन्द्रो देवता अहिंसा धर्मयागः परमहंसोऽध्वर्युः परमात्मा देवता ॥२९॥ वाजपेय यज्ञ (विशिष्ट ज्ञानयज्ञ) पशुहर्ता (पशुत्वभाव-अज्ञान भाव का हरण करने वाला) है। इस यज्ञ के अध्वर्यु एवं देवता इन्द्र (परमेश्वर) हैं। यह अहिंसात्मक धर्मयज्ञ (मोक्षयज्ञ) है, इसके अध्वर्यु परमहंस तथा देवता पशुपति परमात्मा हैं॥२९॥ पशुपतिः ब्रह्मोपनिषदो ब्रह्म । स्वाध्याययुक्ता ब्राह्मणाश्चरन्ति । ॥३०॥ वेद एवं उपनिषद् में जिस ब्रह्म का प्रतिपादन किया गया है, उसी (परमात्मतत्त्व) की ये स्वाध्याययुक्त, ब्रह्मज्ञानी उपासना करते हैं॥३०॥ अश्वमेधो महायज्ञकथा । तद्राज्ञा ब्रह्मचर्यमाचरन्ति । सर्वेषां पूर्वोक्तब्रह्मयज्ञक्रमं मुक्तिक्रममिति ब्रह्मपुत्रः प्रोवाच । ॥३१॥ इस महायज्ञ का ज्ञान ही अश्वमेध यज्ञ है। इसके आश्रय से ही वे (ज्ञानीजन) ब्रह्मज्ञान का आचरण करते हैं। पूर्व में वर्णित समस्त ब्रह्मयज्ञ-कर्म ही मुक्ति प्रदान करने में समर्थ हैं॥ ३१॥ उदितो हंस ऋषिः । स्वयंभूस्तिरोदधे । रुद्रो ब्रह्मोपनिषदो हंसज्योतिः पशुपतिः प्रणवस्तारकः स एवं वेद । ॥३२॥ ब्रह्मपुत्र ने पुनः कहा-'हंस से सम्बन्धित ज्ञान का प्राकट्य हो गया है। ऐसा श्रवण कर स्वयंभू तिरोहित हो गये। इस उपनिषद् में जिस हंस ज्योति का वर्णन किया गया है, वही रुद्र है और संसार से उद्धार करने वाला प्रणव (ओंकार) ही पशुपति (ब्रह्म) है, उसे ऐसा जानो ॥३२॥ ॥ इति पूर्वकाण्डः ॥ ॥ पूर्वकाण्ड समात ॥

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