Maitreya Upanishad Third Chapter (मैत्रायणी उपनिषद) तृतीय प्रपाठक

॥ श्री हरि ॥ ॥ मैत्रायण्युपनिषत् ॥ ॥ मैत्रायणी उपनिषद ॥ तृतीयः प्रपाठकः तृतीय प्रपाठक ते होचुर्भगवन्यद्येवमस्यात्मनो महिमानं सूचयसीत्यन्यो वा परः कोऽयमात्मा सितासितैः कर्मफलैरभिभूयमानः सदसद्योनिमापद्यत इत्यवाचीं वोर्ध्वा वा गतं द्व वन्द्वैरभिभूयमानः परिभ्रमतीति कतम एष इति तान्होवाच ॥ १॥ महर्षि ने पुनः प्रश्न किया हे भगवन् ! इस आत्मा की महिमा का वर्णन यदि इस प्रकार है, तो पुनः वह (आत्मा) श्रेष्ठ एवं निकृष्ट कर्मों के बन्धन में बँधा हुआ तथा अच्छी-बुरी योनियों में घूमता हुआ क्या कोई अन्य आत्मा है? सुख-दुःखादि द्वन्द्वों से अभिभूत ऊर्ध्वगामी अथवा अधोगामी गतियों में विचरण करने वाला कौन है ? ॥ १ ॥ अस्ति खल्वन्योऽपरो भूतात्मा योऽयं सितासितैः कर्मफलैरभिभूयमानः सदसदयोनिमापद्यत इत्यवाचीं वोर्ध्वा गतिं द्वन्द्वैरभिभूयमानः परिभ्रमतीत्यस्योपव्याख्यानं पञ्च तन्मात्राणि भूतशब्देनोच्यन्ते पञ्च महाभूतानि भूतशब्देनोच्यन्तेऽथ तेषां यः समुदायः शरीरमित्युक्तमथ यो ह खलु वाव शरीरमित्युक्तं स भूतात्मेत्युक्तमथास्ति तस्यात्मा बिन्दुरिव पुष्कर इति स वा एषोऽभिभूतः प्राकृत्यैर्गुणैरित्यतोऽभिभूतत्वात्संमूढत्वं प्रयात्यसंमूढस्त्वादात्मस्थं प्रभुं भगवन्तं कारयितारं नापश्यद्‌गुणौधैस्तृप्यमानः कलुषीकृतास्थिरश्चञ्चलो लोलुप्यमानः सस्पृहो व्यग्रश्चाभिमानत्वं प्रयात इत्यहं सो ममेदमित्येवं मन्यमानो निबध्नात्यात्मनात्मानं जालेनैव खचरः कृतस्यानुफलैरभिभूयमानः परिभ्रमतीति ॥ २॥ (हे श्रेष्ठ महर्षे!) जो शुभ अशुभ कर्मों के कारण अधोगामी हुआ है, - वह तो दूसरा भूतात्मा (जीवात्मा) के नाम से जाना जाता है तथा वह कर्मानुसार अच्छी-बुरी योनियों में गमन करता है, ऊँचीनीची गतियों को प्राप्त करता है, साथ ही सुख-दुःखादि द्वन्द्वों से प्रभावित होता है। पंचभूतों और तन्मात्राओं को 'भूत' कहा जाता है। इनकी समुच्चय ही शरीर है। इस कारण से इस शरीर को भूतात्मा (भूतात्मक) कहा जाता है। शरीर में निवास करने वाली यह आत्मा तो कमल के पत्तों में रहने वाली बूंदों की भाँति है; किन्तु वह अपने प्राकृतिक गुणों से प्रभावित-पराजित होकर मूढ़ बन गया है। इस कारण वह अपने अन्दर उपस्थित प्रेरक परमात्मतत्त्व को नहीं देख सकता। इस तरह वह सद्‌गुणों से तृप्त होता हुआ पापयुक्त, अस्थिर, चञ्चल, लोलुप, विषयासक्त, व्यग्र एवं अभिमानी होकर अहंकार युक्त हो जाता है। उसके अन्दर यह भाव आने लगते हैं कि 'यह मैं हूँ' 'यह मेरा है', इस प्रकार वह पक्षी की भाँति जालरूपी विकारों में फँस जाता है। वह अपने द्वारा कृत-कर्मों के फलस्वरूप खुद ही आबद्ध होकर विचरण करता है॥ २ ॥ अथान्यत्राप्युक्तं यः कर्ता सोऽयं वै भूतात्मा करणैः कारयितान्तःपुरुषोऽथ यथाग्निनायः पिण्डो वाभिभूतः कर्तृभिर्हन्यमानो नानात्वमुपैत्येवं वाव खल्वसौ भूतात्मान्तः पुरुषेणाभिभूतो गुणैर्हन्यमानो नानात्वमुपैत्यथ यत्त्रिगुणं चतुरशीतिलक्षयोनिपरिणतं भूतत्रिगुणमेतद्वै नानात्वस्य रूपं तानि ह वा इमानि गुणानि पुरुषेणेरितानि चक्रमिव चक्रिणेत्यथ यथायःपिण्डे हन्यमाने नाग्निरभिभूयत्येवं नाभिभूयत्यसौ पुरुषोऽभिभूयत्ययं भूतात्मोपसंश्लिष्टत्वादिति ॥ ३॥ अन्य स्थलों पर भी कहा गया है कि कर्त्तापन तो इस भूतात्मा का ही है। अन्तःकरण में विद्यमान रहने वाली पवित्रात्मा तो मात्र प्रेरणा प्रदान करने वाली है। जिस प्रकार लोहे को अग्नि में तप्त करके लुहार उसे विभिन्न रूपों में परिणत कर देता है, उसी प्रकार यह भूतात्मा शुद्ध आत्मा के द्वारा तप्त तथा सद्‌गुणों के द्वारा सतत प्रहार करने पर वह अन्य अनेक रूपों में परिणत हो जाता है। अर्थात् वह गुणों से युक्त हो चौरासी लाख योनियों में भ्रमण करता रहता है, यही अनेकत्व का स्वरूप है। जिस प्रकार चक्र (चाक) को संचालित करने वाला कुम्हार चाक से अलग रहता है, उसी तरह आत्मा (सत्, रज और तम) इन तीनों गुणों से पृथक् है। जिस प्रकार लौह खण्ड को पीटने से उसमें स्थित अग्नि नहीं पीटी जाती, वैसे ही शुद्ध आत्मा विकाररहित होता है, परन्तु उस (शुद्ध आत्मा) को भूतात्मा के संसर्ग का दोष लग जाता है ॥ ३ ॥ अथान्यत्राप्युक्तं शरीरमिदं मैथुनादेवोद्भूतं संविदपेतं निरय एव मूत्रद्वारेण निष्क्रामन्तमस्थिभिश्चितं मांसेनानुलिप्तं चर्मणावबद्धं विण्मूत्रपित्तकफमज्जामेदोवसाभिरन्यैश्च मलैर्बहुभिः परिपूर्ण कोश इवावसन्नेति ॥ ४॥ इसके अतिरिक्त एक अन्य स्थल पर यह भी संकेत मिलता है कि स्त्री-पुरुष के संयोग से जिस शरीर का प्रादुर्भाव होता है, वह चेतना शून्य है तथा नरक जैसा प्रतीत होता है। मूत्र द्वार से बहिर्गमन होने वाला यह शरीर हड्डियों के द्वारा गठित किया गया है। मांस से अनुलिप्त है तथा चर्म के द्वारा आबद्ध किया गया है। मल, मूत्र, पित्त, कफ, मज्जा, मेद, वसा आदि से युक्त है। इसके अतिरिक्त अन्य कई तरह के मलों से भी परिपूर्ण है। यह शरीर ऐसा लगता है कि सभी विकार युक्त पदार्थों का कोषागार ही है ॥ ४ ॥ अथान्यत्राप्युक्तं संमोहो भयं विषादो निद्रा तन्द्री व्रणो जरा शोकः क्षुत्पिपासा कार्पण्यं क्रोधो नास्तिक्यमज्ञानं मात्सर्यं वैकारुण्यं मूढत्वं निर्भीडत्वं निकृतत्वमुद्धातत्वमसमत्वमिति तामसान्वितस्तृष्णा स्नेहो रागो लोभो हिंसा रतिर्दृष्टिव्यापृतत्वमीर्ष्या काममवस्थितत्वं चञ्चलत्वं जिहीर्षार्थोपार्जनं मित्रानुग्रहणं परिग्रहावलम्बोऽनिष्टेष्विन्द्रियार्थेषु द्विष्टिरिष्टेश्वभिषङ्ग इति राजसान्वितैः परिपूर्ण एतैरभिभूत इत्ययं भूतात्मा ै तस्मान्नानारूपाण्याप्नोतीत्याप्नोतीति ॥ ५॥ एक अन्य स्थान में यह भी कहा गया है कि मोह, भय, विषाद, निद्रा, तन्द्रा, वृद्धावस्था, शोक, दुःख, भूख, प्यास, कार्पण्य (दीनता), क्रोध, नास्तिकतो, अज्ञान, मात्सर्य, विकार, मूढ़ता, निर्लज्जता, उद्धतता, विषमता, कृतघ्नता आदि तमोगुण के विकारों से यह शरीर परिपूर्ण है। इसके अतिरिक्त तृष्णा, स्नेह, रोग, लोभ, हिंसा, काम-दृष्टि, व्यापार, इर्ष्या, स्वेच्छाचारिता, चंचलता, किसी की वस्तु को ग्रहण करने की इच्छा, धनोपार्जन की इच्छा, मित्रों का अनुग्रह, परिग्रह का आश्रय, इन्द्रियों का अप्रिय विषयों से द्वेष और प्रिय विषयों से आसक्ति आदि रजोगुण से युक्त विकार भी उस भूतात्मा में विद्यमान रहते हैं। इन सभी विकारों के द्वारा यह भूतात्मा पराभव को प्राप्त होता है तथा पुनः अनेक रूपों को प्राप्त करता है ॥ ५ ॥ ॥ इति तृतीयः प्रपाठकः ॥३॥ ॥ तृतीय प्रपाठक समात ॥

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