ऋग्वेद तृतीय मण्डलं सूक्त ५६

ऋग्वेद - तृतीय मंडल सूक्त ५६ ऋषि – प्रजापतिवैश्वामित्रः, प्रजापतिर्वाच्यो वा देवता - विश्वेदेवाः । छंद - त्रिष्टुप न ता मिनन्ति मायिनो न धीरा व्रता देवानां प्रथमा ध्रुवाणि । न रोदसी अद्रुहा वेद्याभिर्न पर्वता निनमे तस्थिवांसः ॥१॥ देवों के नियम प्रथम (शाश्वत अथवा सर्वोपर) एवं अविचल हैं । मायावी (कर्म कुशल व्यक्ति एवं बुद्धिमान् उन (प्रकृति के अनुशासन) को लण्डन नहीं करते। द्रोह रहित, ज्ञान-सम्पन्न द्यावा- पृथिवीं भी उनका उल्लंघन नहीं करते। स्थिर बनाये गये पर्वत कभी झुकते नहीं ॥१॥ षड्‌भाराँ एको अचरन्बिभर्वृतं वर्षिष्ठमुप गाव आगुः । तिस्रो महीरुपरास्तस्थुरत्या गुहा द्वे निहिते दर्थेका ॥२॥ एक स्थायी संवत्सर, वसन्त मीष्मादि छः ऋतुओं को वहन करता है । क्रत (सत्य अनुशासन) पर चलने वाले तथा अति श्रेष्ठ आदित्यात्मक संवत्सर का प्रभाव सूर्य किरणों से प्राप्त होता हैं। सतत गतिशील एवं विस्तृत तीनों तक क्रमशः उच्चतर स्थानों पर अवस्थित हैं। उनमें स्वर्ग और अन्तरिक्ष सूक्ष्म रूप में (अदृश्य) हैं तथा एक पृथ्यों तक प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर होता हैं ॥२॥ त्रिपाजस्यो वृषभो विश्वरूप उत त्र्युधा पुरुध प्रजावान् । त्र्यनीकः पत्यते माहिनावान्त्स रेतोधा वृषभः शश्वतीनाम् ॥३॥ तीन प्रकार के बलों (सृजन, पोषण, परिवर्तन की क्षमताओं से युक्त, वीर, अनेक रूपों से युक्त, तीन (चु, अन्तरिक्ष, पृथ्वी) से युक्त, अनेक रंगों से युक्त, प्रज्ञावान्, तीनों लोकों में स्थित, शक्तिरूपी तीनों सेनाओं से सम्पन्न सूर्यदेव का उदय होता है। वे अपनी किरणों द्वारा समस्त ओषधियों में रेत का (प्राण ऊर्जा का संचार करते हैं॥३॥ अभीक आसां पदवीरबोध्यादित्यानामले चारु नाम । आपश्चिदस्मा अरमन्त देवीः पृथग्व्रजन्तीः परि षीमवृञ्जन् ॥४॥ दिव्य जल (रस धाराओं) से सुसम्पन्न सूर्यदेव की आभा हौं इन समस्त वनस्पतियों के वैभव रूप में बिखरी हुई हैं। उन आदित्यगणों के सुन्दर नाम को हम गुणगान करते हैं। सूर्यदेव से सम्बद्ध रस ही वर्षा (जल, प्राण-पर्जन्य) के रूप में पृथ्वी को तृप्त (परिपुष्ट करते हैं॥४॥ त्री षधस्था सिन्धवस्त्रिः कवीनामुत त्रिमाता विदथेषु सम्राट् । ऋतावरीर्योषणास्तिस्रो अप्यास्त्रिरा दिवो विदथे पत्यमानाः ॥५॥ हे नदियों ! आप तीनों लोकों में निवास करती हैं तथा तीन प्रकार के देवगण भी इन तीनों लोकों में विद्यमान हैं। इन तीनों लोकों के निर्माता सूर्यदेव समस्त यज्ञीय प्रवाहों के स्वामी हैं। (पोषक रसों से युक्त) इला, सरस्वती और भारती तीनों अन्तरिक्षीय देवियाँ (दिव्य रस धाराएँ द्युलोक द्वारा तीनों सदनों से युक्त इस यज्ञ में पधारें ॥५॥ त्रिरा दिवः सवितर्वार्याणि दिवेदिव आ सुव त्रिर्नो अह्नः । त्रिधातु राय आ सुवा वसूनि भग त्रातर्धिषणे सातये धाः ॥६॥ हे सर्वप्रेरक सूर्यदेव ! आप दिव्यलोक से आकर प्रतिदिन तीन बार हमें श्रेष्ठ धन प्रदान करें। ऐश्वर्यवान् सबके रक्षक हे सूर्यदेव ! आप हमें दिवस के तीनों सवनों में तीनों प्रकार के धन प्रदान करें। हे बुद्धिमान् ! आप हमें धन प्राप्ति के योग्य बनायें ॥६॥ त्रिरा दिवः सविता सोषवीति राजाना मित्रावरुणा सुपाणी । आपश्चिदस्य रोदसी चिदुर्वी रत्नं भिक्षन्त सवितुः सवाय ॥७॥ सर्वप्रेरक सूर्यदेव हमें द्युलोक से तीन प्रकार के धनों को प्रदान करें । तेजस्वी कल्याणकारी हाथों से युक्त मित्र, वरुण, अन्तरिक्ष और विशाल द्यावा-पृथिवी भी सूर्यदेव से धन-वैभव के वृद्धि की याचना करते हैं॥७॥ त्रिरुत्तमा दूणशा रोचनानि त्रयो राजन्त्यसुरस्य वीराः । ऋतावान इषिरा दूळभासस्त्रिरा दिवो विदथे सन्तु देवाः ॥८॥ क्षयरहित, सर्वजित् और द्युतिमान् तीन लोक (श्रेष्ठ स्थान) हैं। इन तीनों स्थानों में कलात्मक संवत्सर के अग्नि, वायु और सूर्य नामक तीन पुत्र शोभायमान होते हैं। सत्यनिष्ठ उत्साहवर्धक कार्यों में तत्पर और कभी न झुकने वाले देवगणों का दिन में तीन बार (तीनों सदनों में हमारे यज्ञ में आगमन हो ॥८॥

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