ऋग्वेद चतुर्थ मण्डलं सूक्त १६

ऋग्वेद-चतुर्थ मंडल सूक्त १६ ऋषि - वामदेवो गौतमः देवता - इन्द्र । छंद - त्रिष्टुप, आ सत्यो यातु मघवाँ ऋजीषी द्रवन्त्वस्य हरय उप नः । तस्मा इदन्धः सुषुमा सुदक्षमिहाभिपित्वं करते गृणानः ॥१॥ व्यवहार कुशल, सत्यनिष्ठ तथा धनवान् इन्द्रदेव हमारे समीप पधारें । दौड़ते हुए उनके अश्व (उन्हें साथ लेकर) हमारे समीप शीघ्र ही पहुँचे । उन इन्द्रदेव के निमित्त हम याजक अन्नरूप सोमरस अभिषुत करते हैं। तृप्त होकर वे हमारी कामनाओं को पूर्ण करें ॥१॥ अव स्य शूराध्वनो नान्तेऽस्मिन्नो अद्य सवने मन्दध्यै । शंसात्युक्थमुशनेव वेधाश्चिकितुषे असुर्याय मन्म ॥२॥ हे शूरवीर इन्द्रदेव ! जिस प्रकार लक्ष्य पर पहुँचे हुए अश्वों को मुक्त करते हैं, उसी प्रकार आप हमें मुक्त करें; ताकि हम इस यज्ञ में आपको हर्षित करने के लिए भली-भाँति परिचर्या कर सकें। हे इन्द्रदेव ! आप सर्वज्ञाता तथा असुरों का संहार करने वाले हैं । याजकगण उशना' ऋषि के सदृश उत्तम स्तोत्रों को उच्चारित करते हैं ॥२॥ कविर्न निण्यं विदथानि साधन्वृषा यत्सेकं विपिपानो अर्चात् । दिव इत्था जीजनत्सप्त कारूनह्वा चिच्चक्रुर्वयुना गृणन्तः ॥३॥ जब यज्ञों को सम्पादित करते हुए तथा सोमपान ग्रहण करते हुए वे इन्द्रदेव पूजे जाते हैं, तब वे द्युलोक से सप्त रश्मियों को उत्पन्न करते हैं। जैसे विद्वान् गूढ़ अर्थों को जानते हैं, उसी प्रकार कामना की वर्षा करने वाले इन्द्रदेव समस्त कार्यों को जानते हैं। उनकी रश्मियों की सहायता से याजकगण अपने कर्मों को सम्पन्न करते हैं ॥३॥ स्वर्यद्वदि सुदृशीकमकैर्महि ज्योती रुरुचुर्यद्ध वस्तोः । अन्धा तमांसि दुधिता विचक्षे नृभ्यश्चकार नृतमो अभिष्टौ ॥४॥ जब विस्तृत तथा तेजोयुक्त द्युलोक प्रकाशित होकर. दर्शनीय बनता है-तब सभी के आवास भी आलोकित होते हैं। जगत् के श्रेष्ठ नायक सूर्यदेव ने उदित होकर मनुष्यों के देखने के निमित्त सघन तमिस्रा को विनष्ट कर दिया है ॥४॥ ववक्ष इन्द्रो अमितमृजीष्युभे आ पप्रौ रोदसी महित्वा । अतश्चिदस्य महिमा वि रेच्यभि यो विश्वा भुवना बभूव ॥५॥ अपरिमित महिमा को धारण करने वाले इन्द्रदेव ने समस्त भुवनों पर अपना अधिकार कर लिया है। सोमरस पान करने वाले वे इन्द्रदेव अपनी महिमा के द्वारा द्यावा-पृथिवी दोनों को पूर्ण करते हैं । इसीलिए इनकी महानता की कोई तुलना नहीं की जा सकती ॥५॥ विश्वानि शक्रो नर्याणि विद्वानपो रिरेच सखिभिर्निकामैः । अश्मानं चिद्ये बिभिदुर्वचोभिर्ब्रजं गोमन्तमुशिजो वि वब्रुः ॥६॥ वे इन्द्रदेव मनुष्यों के समस्त कल्याणकारी कार्यों के ज्ञाता हैं । कामना करने वाले सखाभाव युक्त मरुतों के निमित्त उन्होंने ज्ञल वृष्टि की। जिन मरुतों ने अपनी ध्वनि के द्वारा मेघों को भी विदीर्ण कर दिया, उन आकांक्षा करने वाले मरुतों ने गौओं (किरणों) के भण्डार खोल दिये ॥६॥ अपो वृत्रं वव्रिवांसं पराहन्प्रावत्ते वज्रं पृथिवी सचेताः । प्रार्णांसि समुद्रियाण्यैनोः पतिर्भवञ्छवसा शूर धृष्णो ॥७॥ हे इन्द्रदेव ! सुरक्षा करने वाले आपके वज्र ने जब पानी को अवरुद्ध करने वाले मेघ को विनष्ट किया, तब पानी बरसने से धरती चैतन्य हुई। हे रिपुओं के संहारक, पराक्रमी इन्द्रदेव ! आपने अपनी शक्ति से लोकपति होकर आकाश में स्थित जल को प्रेरित किया ॥७॥ अपो यदद्रिं पुरुहूत दर्दराविर्भुवत्सरमा पूर्व्य ते । स नो नेता वाजमा दर्षि भूरिं गोत्रा रुजन्नङ्गिरोभिर्गुणानः ॥८॥ बहुतों के द्वारा आहूत किये जाने वाले हे इन्द्रदेव ! जब 'सरमा' ने आपके निमित्त गौओं (प्रकाश किरणों) को प्रकट किया, तब आपने जल से परिपूर्ण मेघों को विदीर्ण किया। अंगिरा वंशियों से स्तुत्य होकर आप हमें प्रचुर अन्न प्रदान करें ॥८॥ अच्छा कविं नृमणो गा अभिष्टौ स्वर्षाता मघवन्नाधमानम् । ऊतिभिस्तमिषणो द्युम्नहूतौ नि मायावानब्रह्मा दस्युरर्त ॥९॥ हे धनवान् इन्द्रदेव ! मनुष्य आपका सम्मान करते हैं। ऐश्वर्य प्रदान करने के लिए आप कुत्स' के पास गये थे। उनके द्वारा प्रार्थना करने पर रिपुओं के विप्लव से आपने उन्हें रक्षित किया था। कुटिल याजकों के कार्यों को आपने अपनी बुद्धि से जाना और कुत्स के ऐश्वर्य की कामना करने वाले रिपुओं को संग्राम में नष्ट किया था ॥९॥ आ दस्युघ्ना मनसा याह्यस्तं भुवत्ते कुत्सः सख्ये निकामः । स्वे योनौ नि षदतं सरूपा वि वां चिकित्सदृतचिद्ध नारी ॥१०॥ हे इन्द्रदेव! आपने मन में रिपुओं का संहार करने की कामना करके 'कुत्स' के घर में आगमन किया था। कुत्स भी आपके संग मित्रता करने के लिए अत्यधिक लालायित हुए थे। इसके बाद आप दोनों अपने घर में बैठे थे, तब सत्यावलोकन करने वाली 'शची' आप दोनों की एक जैसी आकृति देखकर द्विविधा में पड़ गई थी ॥१०॥ यासि कुत्सेन सरथमवस्युस्तोदो वातस्य हर्योरीशानः । ऋज्रा वाजं न गध्यं युयूषन्कविर्यदहन्पार्याय भूषात् ॥११॥ जिस दिन दूरदर्शी कुत्स (कुण्ठाग्रस्त साधक) योग्य अन्न (आहार) की तरह ऋजुता (सरलता) को अपनाकर (संकट से) पार होने के लिए तत्पर होता है, तब उसके रक्षण की कामना से शत्रुहन्ता, वायुवेगवाले अश्वों के स्वामी आप (इन्द्रदेव) कुत्स के साथ एक ही रथ पर आरूढ़ हो जाते हैं ॥११॥ कुत्साय शुष्णमशुषं नि बींः प्रपित्वे अह्नः कुयवं सहस्रा । सद्यो दस्यून्प्र मृण कुत्स्येन प्र सूरश्चक्रं वृहतादभीके ॥१२॥ हे इन्द्रदेव ! 'कुत्स' की सुरक्षा के लिए आपने अत्यन्त बलशाली 'शुष्ण' नामक असुर का संहार किया था। आपने दिवस के पूर्व भाग (पूर्वाह्न) में ही सहस्रों सैनिकों वाले 'कुयव' राक्षस का संहार किया। अनेकों स्वजनों से घिर कर आपने उसी क्षण अपने वज्र से दस्युओं का भी विनाश किया तथा युद्ध में सूर्य के सदृश तेजस्वी शस्त्रास्त्रों को नष्ट किया ॥१२॥ त्वं पिप्पुं मृगयं शूशुवांसमृजिश्वने वैदथिनाय रन्धीः । ्य पञ्चाशत्कृष्णा नि वपः सहस्रात्कं न पुरो जरिमा वि दर्दः ॥१३॥ हे इन्द्रदेव ! वैदथि के पुत्र ऋजिश्वा' के निमित्त आपने, अत्यन्त शक्तिशाली असुर 'पित्रु' तथा 'मृगया' को विनष्ट किया। आपने पचास हजार श्याम वर्ण वाले राक्षसों का संहार किया। जिस प्रकार बुढ़ापा सौन्दर्य को नष्ट कर देता है अथवा पुराने वस्त्रों को फाड़ दिया जाता है, उसी प्रकार आपने रिपुओं के नगरों को नष्ट किया था ॥१३॥ सूर उपाके तन्वं दधानो वि यत्ते चेत्यमृतस्य वर्पः । मृगो न हस्ती तविषीमुषाणः सिंहो न भीम आयुधानि बिभ्रत् ॥१४॥ हे अविनाशी इन्द्रदेव ! जब आप सूर्य के समीप अपने देह को धारण करते हैं, तब आपका रूप और अधिक आलोकित होने लगता है। हे इन्द्रदेव ! आप शक्तिशाली हाथी के सदृश विकराल रिपुओं की सेनाओं को भस्मसात् । करते हैं। जब आप हथियार धारण करते हैं, तब सिंह की तरह भयंकर होते हैं ॥१४॥ इन्द्रं कामा वसूयन्तो अग्मन्स्वर्मीळ्हे न सवने चकानाः । श्रवस्यवः शशमानास उक्थैरोको न रण्वा सुदृशीव पुष्टिः ॥१५॥ असुरों द्वारा पैदा किये गये भय को दूर करने की तथा धन की कामना करने वाले याजकगण, युद्ध के समान यज्ञों में देदीप्यमान इन्द्रदेव से अन्न की याचना करते हैं। वे याजकगण स्तोत्रों द्वारा प्रार्थना करते हुए उनके पास गमन करते हैं। वे इन्द्रदेव निवास स्थान के सदृश हर्षदायक और मनोहर हैं तथा श्रेष्ठ धन के समान दर्शनीय हैं ॥ १५॥ तमिद्व इन्द्रं सुहवं हुवेम यस्ता चकार नर्या पुरूणि । यो मावते जरित्रे गध्यं चिन्मधू वाजं भरति स्पार्हराधाः ॥१६॥ स्पृहणीय ऐश्वर्य वाले जिन इन्द्रदेव ने मनुष्यों के कल्याण के लिए अनेकों ख्यातिपूर्ण कार्य सम्पन्न किये तथा जो हम याजकों के निमित्त ग्रहणीय अन्न तुरन्त प्रदान करते हैं, ऐसे श्रेष्ठ आवाहन योग्य इन्द्रदेव को हम सबकी सहायता के लिए बुलाते हैं ॥१६॥ तिग्मा यदन्तरशनिः पताति कस्मिञ्चिच्छूर मुहुके जनानाम् । घोरा यदर्य समृतिर्भवात्यध स्मा नस्तन्वो बोधि गोपाः ॥१७॥ हे शूरवीर इन्द्रदेव ! जब मनुष्यों के किसी भी संग्राम में हम याजकों के ऊपर तीक्ष्ण वज्रपात हो अथवा घमासान युद्ध हो, तब आप हमारे शरीरों के संरक्षक बनें ॥१७॥ भुवोऽविता वामदेवस्य धीनां भुवः सखावृको वाजसातौ । त्वामनु प्रमतिमा जगन्मोरुशंसो जरित्रे विश्वध स्याः ॥१८॥ हे इन्द्रदेव ! 'वामदेव' ऋषि द्वारा सम्पन्न किये जा रहे यज्ञ-कृत्य के आप संरक्षक हों। आप कपट रहित होकर संग्राम में हमारे सखा हों । हम श्रेष्ठ ज्ञानी बनकर आपका अनुसरण करें और आप हम स्तोताओं के निमित्त सदैव प्रार्थनीय हों ॥१८॥ एभिर्नृभिरिन्द्र त्वायुभिष्ट्वा मघवद्भिर्मघवन्विश्व आजौ । द्यावो न द्युम्नैरभि सन्तो अर्यः क्षपो मदेम शरदश्च पूर्वीः ॥१९॥ हे धनवान् इन्द्रदेव ! हम समस्त युद्धों में धन से सम्पन्न हों। द्युलोक के सदृश ओजस्वी अपने सहायक मरुतों के साथ होकर आप रिपुओं को परास्त करें। हम अनेक वर्षों तक रात-दिन आपको हर्षित करते रहें ॥१९॥ एवेदिन्द्राय वृषभाय वृष्णे ब्रह्माकर्म भृगवो न रथम् । नू चिद्यथा नः सख्या वियोषदसन्न उग्रोऽविता तनूपाः ॥२०॥ जिस प्रकार भृगुवंशियों ने इन्द्रदेव को रथ प्रदान किया था, उसी प्रकार हम शक्तिशाली तथा इच्छाओं की पूर्ति करने वाले इन्द्रदेव के निमित्त स्तोत्र पाठ करते हैं। इस प्रकार हमारी उनको मित्रता परिपक्व हो । वे हमारे शरीर के पोषक तथा संरक्षक हों ॥२०॥ नू ष्टुत इन्द्र नू गृणान इषं जरित्रे नद्यो न पीपेः । अकारि ते हरिवो ब्रह्म नव्यं धिया स्याम रथ्यः सदासाः ॥२१॥ हे इन्द्रदेव ! जिस प्रकार सरिताएँ जल प्रदान करती हैं, उसी प्रकार आप स्तुतियों द्वारा प्रशंसित होकर हम याजकों के लिए अन्न प्रदान करें। हे अश्ववान् इन्द्रदेव! हम आपके निमित्त अभिनव स्तोत्रों को रचते हैं, जिससे हम रथों से युक्त होकर आपके सेवक बने रहें ॥२१॥

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