ऋग्वेद द्वितीय मंडल सूक्त २२

ऋग्वेद - द्वितीय मंडल सूक्त २२ ऋषिः- गृत्समद (अंगीरसः शौन होत्रः पश्चयाद) भार्गवः शौनकः । देवता- इन्द्रः । छंद- १ अष्टि, २-३ अति शक्करी, ४ अष्टि अतिशक्करी, त्रिकद्रुकेषु महिषो यवाशिरं तुविशुष्मस्तृपत्सोममपिबद्विष्णुना सुतं यथावशत् । स ईं ममाद महि कर्म कर्तवे महामुरुं सैनं सश्चद्देवो देवं सत्यमिन्द्रं सत्य इन्दुः ॥१॥ अत्यन्त बली पूजनीय इन्द्रदेव ने तीनों लोकों में व्याप्त, तृप्तिदायक, दिव्य सोम को जौ के सार भाग के साथ मिलाकर विष्णुदेव के साथ इच्छानुसार पान किया। उस (सोम) ने महान् इन्द्रदेव को श्रेष्ठ कार्य करने के लिये प्रेरित किया। उत्तम दिव्य गुणों से युक्त उस दिव्य सोमरस ने इन्द्रदेव को प्रसन्न किया ॥१॥ अध त्विषीमाँ अभ्योजसा क्रिविं युधाभवदा रोदसी अपृणदस्य मज्मना प्र वावृधे । अधत्तान्यं जठरे प्रेमरिच्यत सैनं सश्चद्देवो देवं सत्यमिन्द्रं सत्य इन्दुः ॥२॥ है इन्द्रदेव ! अपनी सामर्थ्य से क्रिवि नामक असुर को अपने जीता और आकाश एवं पृथ्वी को तेज से परिपूर्ण कर दिया। आपने सोम के एक भाग को अपने उदर में धारण किया और दूसरा भाग देवों को दिया । सत्यस्वरूप दीप्तिमान् दिव्य सोम सत्यस्वरूप तेजस्वी इन्द्रदेव को पुष्ट करता है ॥२॥ साकं जातः क्रतुना साकमोजसा ववक्षिथ साकं वृद्धो वीर्यैः सासहिर्मृधो विचर्षणिः । दाता राधः स्तुवते काम्यं वसु सैनं सश्चद्देवो देवं सत्यमिन्द्रं सत्य इन्दुः ॥३॥ हे इन्द्रदेव ! आप यज्ञ के साथ प्रकट हुए हैं। अपनी सामर्थ्य से विश्व का भार उठाने को लालायित रहते हैं। हे ज्ञानी श्रेष्ठ इन्द्रदेव ! महान् पराक्रमी, शत्रु संहारक, विशिष्ट ज्ञानी आप स्तोताओं को अभीष्ट ऐश्वर्य देते हैं। सत्यस्वरूप दीप्तिमान् दिव्य सोम सत्य के ज्ञाता इन्द्रदेव को प्राप्त होता है॥३॥ तव त्यन्नर्यं नृतोऽप इन्द्र प्रथमं पूर्वं दिवि प्रवाच्यं कृतम् । यद्देवस्य शवसा प्रारिणा असुं रिणन्नपः । भुवद्विश्वमभ्यादेवमोजसा विदादूर्ज शतक्रतुर्विदादिषम् ॥४॥ सभी को अपने अनुशासन में चलाने वाले हे इन्द्रदेव! मानव मात्र के हितकारी, सबसे पहले किये गये आपके सबसे उत्कृष्ट कर्म स्वर्ग लोक में प्रशंसित हैं। अपनी शक्ति से आपने राक्षसों का संहार किया, असुरों को हराया तथा जल प्रवाहित किया। शतकर्मा (शतक्रत) इन्द्रदेव ने अन्न एवं बल प्राप्त किया ॥४॥

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