Brihadaranyaka Upanishad Chapter 2 (बृहदारण्यक उपनिषद) द्वितीय अध्याय

बृहदारण्यकोपनिषद ॥ अथ द्वितीयोऽध्यायः - प्रथमं ब्राह्मणम् द्वितीय अध्याय प्रथम ब्राह्मण अजातशत्रु ब्राह्मण ॐ दृप्तबालाकिर्हानूचानो गार्ग्य आस । स होवाचाजातशत्रु काश्यं ब्रह्म ते ब्रवाणीति । स होवाचाजातशत्रुः सहस्रमेतस्यां वाचि दद्मो जनको जनक इति वै जना धावन्तीति ॥ १॥ ॐ किसी समय गार्ग्य गोत्र में उत्पन्न कोई गर्वीला बलाका का पुत्र अत्यंत अभिमानी और पंडित था। उसने काशी के राजा अजातशत्रु के पास जाकर कहा-मैं तुम्हें ब्रह्म का उपदेश करूँगा।' उस अजातशत्रु ने कहा, इस वचनके लिये मैं आपको सहस्र गौएँ देता हूँ। लोग 'जनक, जनक' ऐसा कहकर दौड़ते हैं अर्थात् सब लोग यही कहते हैं कि 'जनक बड़ा दानी है, जनक बड़ा श्रोता है। ये दोनों बातें आपने अपने वचनसे मेरे लिये सुलभ कर दी हैं। इसलिये मैं आपको सहस्र गौएँ देता हूँ। ॥१॥ स होवाच गार्यो य एवासावादित्ये पुरुष एतमेवाहं ब्रह्मोपास इति । स होवाचाजातशत्रुर्मा मैतस्मिन्संवदिष्ठा । अतिष्ठाः सर्वेषां भूतानां मूर्धा राजेति वा अहमेतमुपास इति । स य एतमेवमुपास्ते ऽतिष्ठाः सर्वेषां भूतानां मूर्धा राजा भवति ॥ २॥ उस गार्ग्य ने कहा,' यह पुरुष जो साक्षात् रूप से सूर्य में विद्यमान है, मैं इसी की ब्रह्मरूप से उपासना करता हूँ।' उस अजातशत्रुने कहा-नहीं, नहीं, इसके विषय में बात मत करो क्योंकि यह सब मैं पहले से ही जानता हूँ। यह पुरुष जो साक्षात् सूर्य में स्थित है यह सबके ऊपर स्थित है, समस्त भूतों प्राणियों का मस्तक और राजा है, मैं ऐसा समझ कर इसकी उपासना करता हूँ। जो पुरुष इसकी इस प्रकार उपासना करता है, वह समस्त प्राणियों में श्रेष्ठ, समस्त प्राणियों में शिरोमणि और राजा होता है। ॥२॥ स होवाच गार्यो य एवासौ चन्द्रे पुरुष एतमेवाहं ब्रह्मोपास इति । स होवाचाजातशत्रुर्मा मैतस्मिन्संवदिष्ठा । बृहन् पाण्डरवासाः सोमो राजेति वा अहमेतमुपास इति । स य एतमेवमुपास्तेऽहरहर्ह सुतः प्रसुतो भवति नास्यान्नं क्षीयते ॥ ३॥ वह गार्ग्य बोला, 'यह जो पुरुष चन्द्रमा में स्थित है, मैं इसी की ब्रह्मरूप से उपासना करता हूँ।' उस अजातशत्रुने कहा, 'नहीं, नहीं, इसके विषयमें बात मत करो क्योंकि यह सब मैं पहले से ही जानता हूँ। चंद्रमा में स्थित यह पुरुष महान्, शुक्ल वस्त्रधारी, सोम राजा है, इस प्रकार मैं इसकी उपासना करता हूँ। जो इसकी इस प्रकार उपासना करता है, उसके लिये नित्य-प्रति सोम सुत और प्रस्तुत होता है तथा उसका अन्न क्षीण नहीं होता' ॥ ३ ॥ स होवाच गार्यो य एवासौ विद्युति पुरुष एतमेवाहं ब्रह्मोपास इति । स होवाचाजातशत्रुर्मा मैतस्मिन्संवदिष्ठास्तेजस्वीति वा अहमेतमुपास इति । स य एतमेवमुपास्ते तेजस्वी ह भवति तेजस्विनी हास्य प्रजा भवति ॥ ४॥ वह गार्ग्य बोला, "यह जो पुरुष विद्युत् में स्थित है, मैं इसी की ब्रह्मरूप से उपासना करता हूँ।' उस अजातशत्रुने कहा, 'नहीं, नहीं, इसकी चर्चा मत करो क्योंकि यह सब मैं पहले से ही जानता हूँ। मैं इसको निःसंदेह तेजस्वीरूप से उपासना करता हूँ। जो कोई इसकी इस प्रकार उपासना करता है, वह तेजस्वी होता है तथा उसकी प्रजा भी तेजस्विनी होती है। ॥ ४ ॥ स होवाच गार्यो य एवायमाकाशे पुरुष एतमेवाहं ब्रह्मोपास इति। स होवाचाजातशत्रुर्मा मैतस्मिन्संवदिष्ठाः। पूर्णमप्रवर्तीति वा अहमेतमुपास इति। स य एतमेवमुपास्ते पूर्यते प्रजया पशुभिर्नास्यास्माल्लोकात्प्रजोद्वर्तते ॥ ५॥ वह गार्ग्य बोला, 'यह जो पुरुष आकाश में स्थित है, मैं इसी की ब्रह्मरूप से उपासना करता हूँ।' उस अजातशत्रुने कहा, 'नहीं, नहीं, इसके विषय में बात मत करो क्योंकि यह सब मैं पहले से ही जानता हूँ। मैं उसकी पूर्ण और न मिटने वाला जानकार उपासना करता हूँ। जो कोई इसकी इस प्रकार उपासना करता है, वह प्रजा और पशुओंसे पूर्ण होता है और इस लोकमें उसकी प्रजा का उच्छेद नहीं होता। ॥ ५ ॥ स होवाच गार्यो य एवायं वायौ पुरुष एतमेवाहं ब्रह्मोपास इति । स होवाचाजातशत्रुर्मा मैतस्मिन्संवदिष्ठा । इन्द्रो वैकुण्ठोऽपराजिता सेनेति वा अहमेतमुपास इति । स य एतमेवमुपास्ते जिष्णुर्हापराजिष्णुर्भवत्यन्यतस्त्यजायी ॥ ६॥ वह गार्ग्य बोला, "यह जो पुरुष वायु में स्थित है, मैं इसकी ब्रह्मरूप से उपासना करता हूँ।' उस अजातशत्रुने कहा, 'नहीं, नहीं, इसके विषयमें बात मत करो । इसकी तो मैं इन्द्र, वैकुण्ठ और अपराजिता सेना-इस रूपसे उपासना करता हूँ। जो कोई इसकी इस प्रकार उपासना करता है, वह विजयी, कभी न हारनेवाला और शत्रुविजेता होता है। ॥ ६ ॥ स होवाच गार्यो य एवायमग्नौ पुरुष एतमेवाहं ब्रह्मोपास इति । स होवाचाजातशत्रुर्मा मैतस्मिन्संवदिष्ठा । विषासहिरिति वा अहमेतमुपास इति । स य एतमेवमुपास्ते विषासहिर्ह भवति विषासहिर्हास्य प्रजा भवति ॥ ७॥ वह गार्ग्य बोला, "यह जो अग्निमें पुरुष है, इसीकी मैं ब्रह्मरूपसे उपासना करता हूँ।' उस अजातशत्रु ने कहा, 'नहीं, नहीं, इसकी चर्चा मत करो क्योंकि यह सब मैं पहले से ही जानता हूँ। इसकी तो मैं वैकुण्ठ तथा इंद्र की न हारने वाली सेना - मरुत सेना जान कर उपासना करता हूँ। जो कोई इसकी इस प्रकार उपासना करता है, वह निश्चय जीतने के स्वरुप वाला, कभी न हारने वाला तथा अपने शत्रुओं को जीतने वाला होता है और उसकी प्रजा भी ऐसी ही होती है।॥ ७ ॥ स होवाच गाग्र्यो य एवायमप्सु पुरुष एतमेवाहं ब्रह्मोपास इति । स होवाचाजातशत्रुर्मा मैतस्मिन्संवदिष्ठाः । प्रतिरूप इति वा अहमेतमुपास इति । स य एतमेवमुपास्ते प्रतिरूपर हैवैनमुपगच्छति नाप्रतिरूपमथो प्रतिरूपोऽस्माज्जायते ॥ ८॥ वह गार्ग्य बोला, "यह जो पुरुष जलों में स्थित है, इसकी मैं ब्रह्मरूप से उपासना करता हूँ।' उस अजातशत्रु ने कहा, 'नहीं, नहीं, इसकी चर्चा मत करो क्योंकि यह सब मैं पहले से ही जानता हूँ। इसकी मैं प्रतिरूप (ठीक सदृश्य) जानकर उपासना करता हूँ। जो कोई इसकी इस प्रकार उपासना करता है, उसको वह वस्तु प्राप्त होता है, जो प्रतिरूप (अनुकूल) है, न की अप्रतिरूप (प्रतिकूल) और प्रतिरूप (अपने सदृश्य ही इस से पुत्र उत्पन्न होता है। ॥८॥ स होवाच गार्यो य एवायमादर्श पुरुष एतमेवाहं ब्रह्मोपास इति । स होवाचाजातशत्रुर्मा मैतस्मिन्संवदिष्ठा । रोचिष्णुरिति वा अहमेतमुपास इति । स य एतमेवमुपास्ते रोचिष्णुर्ह भवति रोचिष्णुर्हास्य प्रजा भवत्यथो यैः सन्निगच्छति सर्वास्तानतिरोचते ॥ ९॥ वह गार्ग्य बोला, 'यह जो पुरुष दर्पण में स्थित है, मैं इसकी ब्रह्मरूप से उपासना करता हूँ।' उस अजातशत्रुने कहा, 'नहीं नहीं, इसकी चर्चा मत करो क्योंकि यह सब मैं पहले से ही जानता हूँ। इसकी तो मैं देदीप्यमान रूप से उपासना करता हूँ।' जो कोई इसकी इस प्रकार उपासना करता है, वह निश्चय देदीप्यमान होता है, उसकी प्रजा भी देदीप्यमान होती है और उसका जिनसे सङ्गम होता है, उन सबसे बढ़कर वह दीप्तिमान होता है ॥९॥ स होवाच गार्यो य एवायं यन्तं पश्चाछब्दोऽनूदेत्येतमेवाहं ब्रह्मोपास इति । स होवाचाजातशत्रुर्मा मैतस्मिन्संवदिष्ठा । असुरिति वा अहमेतमुपास इति । स य एतमेवमुपास्ते सर्व हैवास्मिल्लोक आयुरेति नैनं पुरा कालात्प्राणो जहाति ॥१०॥ वह गार्ग्य बोला, 'जानेवाले के पीछे जो यह शब्द उत्पन्न होता है, इसीकी मैं ब्रह्मरू पसे उपासना करता हूँ।' उस अजातशत्रुने कहा, 'नहीं, नहीं, इसकी चर्चा मत करो क्योंकि यह सब मैं पहले से ही जानता हूँ। इसकी तो मैं प्राणरूप से उपासना करता हूँ।' जो कोई इसकी इस प्रकार उपासना करता है वह इस लोक में पूर्ण आयु प्राप्त करता है, इसे प्राण समय से पहले नहीं छोड़ता। ॥१०॥ स होवाच गार्यो य एवायं दिक्षु पुरुष एतमेवाहं ब्रह्मोपास इति । स होवाचाजातशत्रुर्मा मैतस्मिन्संवदिष्ठा । द्वितीयोऽनपग इति वा अहमेतमुपास इति । स य एतमेवमुपास्ते द्वितीयवान्ह भवति नास्माद् गणश्छिद्यते ॥ ११॥ वह गार्ग्य बोला, 'यह जो पुरुष दिशाओं में स्थित है, मैं इसकी ब्रह्मरूप से उपासना करता हूँ।' उस अजातशत्रुने कहा, 'नहीं, नहीं, इसकी चर्चा मत करो क्योंकि यह सब मैं पहले से ही जानता हूँ। मैं इसकी द्वितीय और अनपगरूपसे उपासना करता हूँ।' जो कोई इसकी इस प्रकार उपासना करता है, वह द्वितीयवान् होता है और उससे गण का विच्छेद नहीं होता ॥ ११॥ स होवाच गार्यो य एवायं छायामयः पुरुष एतमेवाहं ब्रह्मोपास इति । स होवाचाजातशत्रुर्मा मैतस्मिन्संवदिष्ठा । मृत्युरिति वा अहमेतमुपास इति । स य एतमेवमुपास्ते सर्व हैवास्मिल्लोक आयुरेति नैनं पुरा कालान्मृत्युरागच्छति ॥ १२॥ वह गार्ग्यबोला, 'यह जो छायामय पुरुष है, इसकी मैं ब्रह्मरूप से उपासना करता हूँ।' उस अजातशत्रु ने कहा, 'नहीं, नहीं, इसकी चर्चा मत करो क्योंकि यह सब मैं पहले से ही जानता हूँ। इसकी तो मैं मृत्युरूप से उपासना करता हूँ।' जो कोई इसकी इस प्रकार उपासना करता है, वह इस लोक में पूर्ण आयु प्राप्त करता है और इसके पास समय से पहले मृत्यु नहीं आती हैं ॥ १२ ॥ स होवाच गार्यो य एवायमात्मनि पुरुष एतमेवाहं ब्रह्मोपास इति । स होवाचाजातशत्रुर्मा मैतस्मिन्संवदिष्ठा आत्मन्वीति वा अहमेतमुपास इति । स य एतमेवमुपास्त आत्मन्वी ह भवत्यात्मन्विनी हास्य प्रजा भवति । स ह तूष्णीमास गार्ग्यः ॥ १३॥ वह गार्ग्यबोला 'यह जो पुरुष आत्मा में स्थित है, इसकी मैं ब्रह्मरूप से उपासना करता हूँ।' उस अजातशत्रुने कहा, नहीं, नहीं, इसकी चर्चा मत करो क्योंकि यह सब मैं पहले से ही जानता हूँ। इसकी तो मैं आत्मा वाला जान कर उपासना करता हूँ। जो कोई इसकी इस प्रकार उपासना करता है, वह निश्चय आत्मा वाला होता है और उसकी प्रजा भी आत्मा वाली होती है।' तब वह गार्ग्य चुप हो गया॥१३॥ स होवाचाजातशत्रुरेतावन्नू ३ इत्येतावद्धीति । नैतावता विदितं भवतीति । स होवाच गार्ग्य उप त्वा यानीति ॥ १४॥ वह अजातशत्रु बोला, 'बस, क्या इतना ही है ? गार्ग्य बोला -'हाँ, इतना ही है।' अजातशत्रु बोला - 'इतने से तो ब्रह्म विदित नहीं होता ।' वह गार्ग्य बोला, तो मुझे शिष्य बनकर अपने समक्ष उपस्थित होने की आज्ञा दें। ॥१४॥ स होवाचाजातशत्रुः प्रतिलोमं चैतद्यद्ब्राह्मणः क्षत्रियमुपेयाद् ब्रह्म मे वक्ष्यतीति । व्येव त्वा ज्ञपयिष्यामीति । तं पाणावादायोत्तस्थौ । तौ ह पुरुष सुप्तमाजग्मतुस्तमेतैर्नामभिरामन्त्रयांचक्रे बृहन्पाण्डरवासः सोम राजन्निति । स नोत्तस्थौ । तं पाणिनाऽऽपेषं बोधयांचकार । स होत्तस्थौ ॥ १५॥ उस अजातशत्रु ने कहा, 'ब्राह्मण क्षत्रिय की शरण में इस आशा से जाए कि यह मुझे ब्रह्म का उपदेश करेगा, यह तो विपरीत है। परन्तु मैं तुम्हे उस ब्रह्म का ज्ञान अवश्य करवाऊंगा।' तब अजातशत्रु उसका हाथ पकड़कर उठा और वह दोनों एक सोये हुए पुरुष के पास गये। अजातशत्रु ने उस सोये हुए पुरुष को 'हे ब्रह्म ! हे पाण्डरवास ! हे सोम राजन् !' इन नामों से पुकारा। परंतु वह नही उठा । तब अजातशत्रु ने उस सोये हुए पुरुष को हाथ से दबा दबाकर जगाया तो वह उठ बैठा। ॥१५॥ स होवाचाजातशत्रुर्यत्रैष एतत् सुप्तोऽभूद् य एष विज्ञानमयः पुरुषः कैष तदाऽभूत् कुत एतदागादिति। तदु ह न मेने गार्ग्यः ॥१६॥ उस अजातशत्रु ने कहा, 'यह जो विज्ञानमय पुरुष है, जब सोया हुआ था, तब कहाँ था ? और यह कहाँ से आया ?' किंतु गार्ग्य यह न जान सका। ॥१६॥ स होवाचाजातशत्रुर्यत्रैष एतत्। सुप्तोऽभूद् य एष विज्ञानमयः पुरुषस्तदेषां प्राणानां विज्ञानेन विज्ञानमादाय य एषोऽन्तहृदय आकाशस्तस्मिञ्छेते। तानि यदा गृह्णाति अथ हैतत्पुरुषः स्वपिति नाम। तद्गृहीत एव प्राणो भवति गृहीता वाग् गृहीतं चक्षुर्गृहीतः श्रो रोत्रं गृहीतं मनः ॥१७॥ अजातशत्रु ने कहा, "यह जो विज्ञानमय पुरुष है, जब यह सोया हुआ था, उस समय यह विज्ञान के द्वारा इन प्राणों के विज्ञान को ग्रहण कर, हृदय के भीतर जो आकाश है उसमें शयन करता है। जिस समय यह उन विज्ञानों को ग्रहण कर लेता है, उस समय इस पुरुष का 'स्वपिति' 10 नाम होता है। उस समय प्राण धारण किया हुआ रहता है, वाणी धारण की हुई रहती है, नेत्र धारण किया हुआ रहता है, श्रोत्र धारण किया हुआ रहता है और मन भी धारण किया हुआ गृहीत रहता है। ॥ १७ ॥ स यत्रैतत्स्वप्यया चरति ते हास्य लोकास्तदुतेव महाराजो भवत्युतेव महाब्राह्मण उतेवोच्चावचं निगच्छति। स यथा महाराजो जानपदान्गृहीत्वा स्वे जनपदे यथाकामं परिवर्ततैवमेवैष एतत्प्राणान्गृहीत्वा स्वे शरीरे यथाकामं परिवर्तते ॥ १८॥ जिस समय यह आत्मा स्वप्न की वृत्ति से विचरता है अर्थात स्वप्न देखता है। उस समय इसके वह लोक स्वप्न लोक के कर्मफल उदित होते हैं। वहाँ भी यह महाराजा होता है अथवा महाब्राह्मण होता है अथवा ऊँची-नीची गतियों को प्राप्त होता है। जिस प्रकार कोई महाराज अपने प्रजाजनों को लेकर अपने देश में इच्छा अनुसार विचरता है, उसी प्रकार यह प्राणों को ग्रहण कर अपने शरीर में यथेच्छ विचरता है। ॥१८॥ अथ यदा सुषुप्तो भवति यदा न कस्यचन वेद हिता नाम नाड्यो द्वासप्ततिः सहस्राणि हृदयात्पुरीततमभिप्रतिष्ठन्ते । ताभिः प्रत्यवसृप्य पुरीतति शेते। स यथा कुमारो वा महाराजो वा महाब्राह्मणो वाऽतिघ्नीमानन्दस्य गत्वा शयीतैवमेवैष एतच्छेते ॥ १९॥ इसके पश्चात् जब वह गहरी नींद में सोता है और जिस समय वह किसी के विषय में कुछ भी नहीं जानता, उस समय हिता नाम की जो बहत्तर हजार नाडियाँ हृदय से सम्पूर्ण शरीर में व्याप्त होकर स्थित हैं, उनके द्वारा बुद्धि के साथ जाकर वह शरीर में व्याप्त होकर शयन करता है। वह जिस प्रकार कोई बालक अथवा महाराज अथवा महाब्राह्मण आनन्द की चरम सीमा को प्राप्त होकर सोता है, उसी प्रकार यह भी सोता है ॥ १९॥ स यथोर्णभिस्तन्तुनोच्चरेद् यथाऽग्नेः क्षुद्रा विष्फुलिङ्गा व्युच्चरन्त्येवमेवास्मादात्मनः सर्वे प्राणाः सर्वे लोकाः सर्वे देवाः सर्वाणि भूतानि व्युच्चरन्ति । सर्वे ॥। व्युच्चरन्ति तस्योपनिषत्सत्यस्य सत्यमिति प्राणा वै सत्यं तेषामेष सत्यम् ॥ २०॥ जिस प्रकार मकड़ा तन्तुओं पर ऊपर की ओर जाता है तथा जैसे अग्नि से अनेकों छोटी छोटी चिनगारियाँ उड़ती हैं, उसी प्रकार इस आत्मा से समस्त प्राण, समस्त लोक, समस्त देवगण और समस्त प्राणी विविध रूप से उत्पन्न होते हैं। 'सत्य का सत्य' यह उस आत्मा की उपनिषद् है। प्राण ही सत्य हैं। उन्हीं का यह सत्य है ॥२०॥ ॥ इति प्रथमं ब्राह्मणम् ॥ ॥ प्रथम ब्राह्मण समाप्त ॥ ॥ श्री हरि ॥ ॥बृहदारण्यकोपनिषद ॥ अथ द्वितीयोऽध्यायः - द्वितीयं ब्राह्मणम् द्वितीय ब्राह्मण शिशु ब्राह्मण यो ह वै शिशु साधान सप्रत्याधान सस्थूण सदामं वेद सप्त ह द्विषतो भ्रातृव्यानवरुणद्ध्ययं वाव शिशुर्योऽयं मध्यमः प्राणस्तस्येदमेवाऽऽधानमिदं प्रत्याधानं प्राणः स्थूणाऽन्नं दाम ॥ १॥ जो कोई शिशु को उसके घर, खाने, खूंटे और रस्सी के सहित को जानता है, वह अपने से द्वेष करने वाले सात भ्रातव्यों 11 का अवरोध करता है। यह जो मध्यम प्राण है, वही शिशु है, उसका यह शरीर ही घर है। यह सिर ही खाना है, खूंटा प्राण अन्नपान जनित शक्ति है और अन्न ही रस्सी है 12। ॥१॥ तमेताः सप्ताक्षितय उपतिष्ठन्ते तद्या इमा अक्षल्लोहिन्यो राजयस्ताभिरेन रुद्रोऽन्वायत्तोऽथ या अक्षन्नापस्ताभिः पर्जन्यो या कनीनका तयाऽऽदित्यो यत्कृष्णं, तेनाग्निर्यच्छुक्लं तेनेन्द्रो ऽधरयैनं वर्तन्या पृथिव्यन्वायत्ता द्यौरुत्तरया । नास्यान्नं क्षीयते य एवं वेद ॥ २॥ उसका यह सात अक्षितियां नाश न होने वाली शक्तियां स्तवनकरती हैं। उनमें से जो यह नेत्र में लाल रेखाएँ हैं उन्ही के द्वारा रुद्र इस मध्य प्राण के अनुगत 13 है और नेत्रों में जो जल है उसके द्वारा मेघ अनुगत है। जो दर्शनाक्ति है उसके द्वारा आदित्य अनुगत है और जो कालिमा है उसके द्वारा अग्रि अनुगत हैं। जो शुक्लता है उसके द्वारा इन्द्र अनुगत है। नीचे की पलक द्वारा पृथिवी इसके अनुगत है एवं ऊपर की पलक द्वारा द्युलोक इसके अनुगत है। जो इस प्रकार जानता है, उसका अन्न क्षीण नहीं होता ॥२॥ तदेष श्लोको भवति । अर्वाग्बिलश्चमस ऊर्ध्वबुध्नस्तस्मिन्यशो निहितं विश्वरूपम् । तस्याऽऽसत ऋषयः सप्त तीरे वागष्टमी ब्रह्मणा संविदानेति । अर्वाग्बिलश्चमस ऊर्ध्वबुध्न इतीदं तच्छिरः एष ह्यर्वाग्बिलश्चमस ऊर्ध्वबुध्रः । तस्मिन्यशो निहितं विश्वरूपमिति प्राणा वै यशो निहितं विश्वरूपं प्राणानेतदाह । तस्याऽऽसत ऋषयः सप्त तीर इति प्राणा वा ऋषयः प्राणाणेतदाह । वागष्टमी ब्रह्मणा संविदानेति वाग्घ्यष्टमी ब्रह्मणा संवित्ते ॥ ३॥ इस विषय मे यह मन्त्र हैं। चमस नीचे की ओर छिद्र-वाला और मूल ऊपर और उठा हुआ है, उसमें विश्वरूप यश निहित है, उसके किनारे पर सात ऋषिगण और वेद के द्वारा संवाद करनेवाली आठवी वाणी रहती है। जो नीचे की ओर छिद्र वाला और ऊपर की ओर उठा हुआ चमस है, वह सिर है क्योंकि यही नीचे की ओर - छिद्रवाला – मुख वाला और मूल उपर की और उठा हुआ-सिर का पिंजर, है। उसमे विश्वरूप यश निहित है प्राण ही विश्वरूप यश हैं, प्राणों के विषय में ही मन्त्र ऐसा कहता है। उसके किनारे पर सात ऋषि रहते हैं, इन्द्रियां ही ऋषि हैं, इन्द्रियों के विषय में ही मन्त्र ऐसा कहता है और आठवीं वाणी है जो वेद के द्वारा यथार्थ अनुभव करवाती है। ॥३॥ इमावेव गोतमभरद्वाजावयमेव गोतमोऽयं भरद्वाज इमावेव विश्वामित्रजमदग्नी अयमेव विश्वामित्रोऽयं जमदग्निरिमावेव वसिष्ठकश्यपावयमेव वसिष्ठोऽयं कश्यपो वागेवात्रिर्वाचा ह्यन्नमद्यतेऽत्तिर्ह वै नामैतद्यदत्रिरिति । सर्वस्यात्ता भवति सर्वमस्यान्नं भवति य एवं वेद ॥ ४॥ यह दोनों कान ही गौतम और भरद्वाज हैं। यह दायाँ कान ही गौतम है और दूसरा बायाँ कान भारद्वाज है। यह दोनों नेत्र ही विश्वामित्र और जमदग्नि हैं, यह दायाँ नेत्र ही विश्वामित्र है और यह दूसरा बायाँ नेत्र जमदग्नि है। यह दोनों घ्राण (नासारन्ध) ही वसिष्ठ और कश्यप हैं, यह दायाँ घ्राण ही वशिष्ठ है और यह दूसरा बायाँ घ्राण कश्यप है। तथा वाणी ही अत्रि है, क्योंकि वाणी से ही अन्न भक्षण किया जाता है। जिसे अत्रि कहते हैं, उसका निश्चय 'अत्ति' नाम वाला ही है। जो इस प्रकार जानता है, वह सबका अत्ता (भोक्ता) होता है और हर वस्तु इसका अन्न होती है। ॥४॥ ॥ इति द्वितीयं ब्राह्मणम् ॥ ॥ द्वितीय ब्राह्मण समाप्त ॥ ॥ श्री हरि ॥ ॥बृहदारण्यकोपनिषद ॥ अथ द्वितीयोऽध्यायः - तृतीयं ब्राह्मणम् तृतीय ब्राह्मण मूर्तामूर्त ब्राह्मण द्वे वाव ब्रह्मणो रूपे मूर्तं चैवामूर्त च मर्त्य चामृतं च स्थितं च यच्च सच्च त्यच्च ॥ १॥ ब्रह्म के दो रूप हैं - मूर्त और अमूर्त, मर्त्य और अमृत, स्थित और चर तथा सत (व्यक्त) और असत (अव्यक्त) । ॥१॥ तदेतन्मूर्तं यदन्यद्वायोश्चान्तरिक्षाच्चैतन्मर्त्यमेतत्स्थितं एतत्सत् । तस्यैतस्य मूर्तस्यैतस्य मर्त्यस्यैतस्य स्थितस्यैतस्य सत एष रसो य एष तपति सतो ह्येष रसः ॥ २॥ जो वायु और अन्तरिक्ष से भिन्न है, वह मूर्त है। वह मर्त्य है, वह स्थित है और वह यह सत-व्यक्त है। इस मूर्त का, इस सत्य का. इस स्थित का, इस सत का यह सार है, जोकि तपता है अर्थात सूर्य क्योंकि यह सत (व्यक्त) का ही सार है। ॥२॥ अथामूर्त वायुश्चान्तरिक्षं चैतदमृतमेतद्यदेतत्त्यत् तस्यैतस्यामूर्तस्यै तस्यामृतस्यैतस्य यत एतस्य त्यस्यैष रसो य एष एतस्मिन्मण्डले पुरुषस्तस्य ह्येष रस । इत्यधिदैवतम् ॥ ३॥ तथा वायु और अन्तरिक्ष अमूर्त हैं; यह अमृत हैं; यह चर हैं और यह ही असत हैं। इस अमूर्त का, इस अमृत का, इस चर का, इस असत का यह सार है जो की इस सूर्य मंडल मे पुरुष है, यही इस असत का सार है। यह अधिदैवत दर्शन है। ॥३॥ अथाध्यात्ममिदमेव मूर्तं यदन्यत्प्राणाच्च यश्चायमन्तरात्मन्नाकाश एतन्मर्त्यमेतत्स्थितमेतत्सत् तस्यैतस्य मूर्तस्यै तस्य मर्त्यस्यैतस्य स्थितस्यैतस्य सत एष रसो यच्चक्षुः सतो ह्येष रसः ॥ ४॥ अब अध्यात्म मूर्तामूर्त का वर्णन किया जाता है। जो प्राण तथा जो शरीर के अन्दर विद्यमान आकाश है, उसके भिन्न जो भी कुछ है वह मूर्त है, वह मर्त्य है, वह स्थित है और वही सत है। यह जो नेत्र है वही इस मूर्त का, इस मर्त्य का इस स्थित का एवं इस सत का सार है। ॥४॥ अथामूर्त प्राणश्च यश्चायमन्तरात्मन्नाकाश एतदमृतमेतद्यद् एतत्त्यं तस्यैतस्यामूर्तस्यैतस्यामृतस्यैतस्य यत एतस्य त्यस्यैष रसो योऽयं दक्षिणेऽक्षन्पुरुषस्त्यस्य ह्येष रसः ॥५॥ अब अमृत का वर्णन करते हैं। प्राण और इस शरीर के अन्दर जो आकाश है, वह अमूर्त हैं। यह अमृत है, यह चर है और यही असत है। उस इस अमूर्त का, इस अमृत का, इस चर का, इस असत का, यह रस है। जो यह दक्षिण नेत्र के अंतर्गत पुरुष है, यह असत का रस है। ॥५॥ तस्य हैतस्य पुरुषस्य रूपम्। यथा माहारजनं वासो यथा पाण्ड्वाविकं यथेन्द्रगोपो यथाऽग्यर्चिर्यथा पुण्डरीकं यथा सकृद्विद्युत्तः । सकृद्विद्युत्तेव ह वा अस्य श्रीर्भवति य एवं वेदा थात आदेशो नेति नेति न ह्येतस्मादिति नेत्यन्यत् परमस्त्यथ नामधेयः सत्यस्य सत्यमिति प्राणा वै सत्यं तेषामेष सत्यम् ॥ ६॥ इस पुरुष का रंग ऐसा है जैसा केसर मे रंग हुआ वस्त्र, जैसा सफ़ेद ऊनी वस्त्र, जैसा इन्द्रगोप, जैसी अग्नि की ज्वाला, जैसे श्वेत कमल और जैसी बिजली की चमक होती है। जो ऐसा जानता है, उसकी श्री बिजली की चमक के समान, सर्वत्र एक साथ फैलने वाली होती है। अब इसके पश्च्यात' नेति-नेति' यह ब्रह्म का आदेश है। 'नेति-नेति' इससे बढ़कर कोई उत्कृष्ट आदेश नहीं है। सत्य का सत्य यह उसका नाम है। प्राण ही सत्य हैं, उनका यह सत्य है। ॥६॥ ॥ इति तृतीयं ब्राह्मणम् ॥ ॥ तृतीय ब्राह्मण समाप्त ॥ ॥ श्री हरि ॥ ॥बृहदारण्यकोपनिषद ॥ अथ द्वितीयोऽध्यायः - चतुर्थं ब्राह्मणम् चतुर्थ ब्राह्मण मैत्रेयी ब्राह्मण मैत्रेयीति होवाच याज्ञवल्क्य उद्यास्यन्वा अरेऽहमस्मात्स्थानादस्मि । हन्त तेऽनया कात्यायन्याऽन्तं करवाणीति ॥१॥ याज्ञवल्क ने कहाः हे मैत्रेयी! मैं इस स्थान (गृहस्थ आश्रम) से ऊपर (सन्यास आश्रम) मे जाना चाहता हूँ अतः मैं चाहता हूँ इस कात्यायनी (दूसरी पत्नी) के साथ तेरा बँटवारा कर दूँ। ॥१॥ सा होवाच मैत्रेयी यन्नु म इयं भगोः सर्वा पृथिवी वित्तेन पूर्णा स्यात् कथं तेनामृता स्यामिति। नेति होवाच याज्ञवल्क्यो यथैवोपकरणवतां जीवितं तथैव ते जीवितः स्यादमृतत्वस्य तु नाऽऽशाऽस्ति वित्तेनेति ॥ २॥ मैत्रेयी ने कहा: - 'भगवन्! यदि यह धन से सम्पन्न सारी पृथिवी मेरी हो जाय तो क्या मैं उस से किसी प्रकार अमर हो सकती हूँ? याज्ञवल्क ने कहा:- 'नहीं' भोग-सामग्रियों से सम्पन्न मनुष्यों का जैसा जीवन होता है, वैसा ही तेरा भी जीवन हो जागा । धन से अमृतत्व की तो आशा है ही नहीं'। ॥२॥ सा होवाच मैत्रेयी येनाहं नामृता स्यां किमहं तेन कुर्याम् । यदेव भगवान्वेद तदेव मे ब्रूहीति ॥ ३॥ मैत्रेयी ने कहा:- जिससे मैं अमर नहीं हो सकती उन भोगों को लेकर मैं क्या करूँगी ? श्रीमान जो कुछ अमृत्व-अमरता प्राप्त करने का साधन जानते हो, वही मुझे बताएं। ॥३॥ स होवाच याज्ञवल्क्यः प्रिया बतारे नः सती प्रियं भाषस एह्यास्स्व व्याख्यास्यामि ते । व्याचक्षाणस्य तु मे निदिध्यासस्वेति ॥ ४॥ याज्ञवल्क ने कहाः धन्य है हे मैत्रेयी! तू पहले भी मेरी प्रिया रही है और इस समय भी मुझे प्रिय लगने वाली ही बात कह रही है। अच्छा आ, बैठ जा, मैं उसकी (अमरत्व की) विस्तार से व्याख्या करूँगा, तू व्याख्यान किये हुए मेरे वाक्यों के अर्थ का चिंतन करना आर्थर उस पर ध्यान देना। ॥४॥ स होवाच न वा अरे पत्युः कामाय पतिः प्रियो भवत्यात्मनस्तु कामाय पतिः प्रियो भवति । न वा अरे जायायै कामाय जाया प्रिया भवत्यात्मनस्तु कामाय जाया प्रिया भवति । न वा अरे पुत्राणां कामाय पुत्राः प्रिया भवन्त्यात्मनस्तु कामाय पुत्राः प्रिया भवन्ति । न वा अरे वित्तस्यकामाय वित्तं प्रियं भवत्यात्मनस्तु कामाय वित्तं प्रियं भवति । न वा अरे ब्रह्मणः कामाय ब्रह्म प्रियं भवत्यात्मनस्तु कामाय ब्रह्म प्रियं भवति । न वा अरे क्षत्रस्य कामाय क्षत्रं प्रियं भवत्यात्मनस्तु कामाय क्षत्रं प्रियं भवति । न वा अरे लोकानां कामाय लोकाः प्रिया भवन्त्यात्मनस्तु कामाय लोकाः प्रिया भवन्ति । न वा अरे देवानां कामाय देवाः प्रिया भवन्त्यात्मनस्तु कामाय देवाः प्रिया भवन्ति । न वा अरे भूतानां कामाय भूतानि प्रियाणि भवन्त्यात्मनस्तु कामाय भूतानि प्रियाणि भवन्ति । न वा अरे सर्वस्य कामाय सर्वं प्रियं भवत्यात्मनस्तु कामाय सर्वं प्रियं भवत्यात्मा वा अरे द्रष्टव्यः श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्यो । मैत्रेय्यात्मनो वा अरे दर्शनेन श्रवणेन मत्या विज्ञानेनेद सर्वं विदितम् ॥ ५॥ तब याज्ञवल्क ने कहा: हे मैत्रेयी! यह निश्चय है की पति के प्रयोजन के लिए पति प्रिय नहीं होता, अपने ही प्रयोजन के लिए पति प्रिय होता है। स्त्री के प्रयोजन के लिए स्त्री प्रिय नहीं होती, अपने ही प्रयोजन के लिए स्त्री प्रिय होती है। पुत्रों के प्रयोजन के लिये पुत्र प्रिय नहीं होते, अपने ही प्रयोजन के लिये पुत्र प्रिय होते हैं। धन के प्रयोजन के लिये धन प्रिय नहीं होता, अपने ही प्रयोजन के लिये धन प्रिय होता है। ब्राह्मण के प्रयोजन के लिये ब्रह्मण प्रिय नहीं होता, अपने ही प्रयोजन के लिये ब्राह्मण प्रिय होता हैं। क्षत्रिय के प्रयोजन के लिये क्षत्रिय प्रिय नहीं होता, अपने ही प्रयोजन के लिए क्षत्रिय प्रिय होता है। लोकों के प्रयोजन के लिये लोक प्रिय नहीं होते, अपने ही प्रयोजन के लिये लोक प्रिय होते हैं। देवताओं के प्रयोजन के लिये देवता प्रिय नहीं होते, अपने ही प्रयोजन के लिये देवता प्रिय होते है। प्राणियों के प्रयोजन के लिये प्राणी प्रिय नहीं होते, अपने ही प्रयोजन के लिये प्राणी प्रिय होते है। तथा सबके प्रयोजन के लिये सब प्रिय नहीं होते, अपने ही प्रयोजन के लिये सब प्रिय होते है। हे मैत्रेयी! यह आत्मा ही दर्शनीय, श्रवणीय, मननीय और ध्यान किये जाने योग्य है। इस आत्मा के ही दर्शन, श्रवण, मनन और जानने से यह सब कुछ जाना जाता है। ॥५॥ ब्रह्म तं परादाद्योऽन्यत्राऽऽत्मनो ब्रह्म वेद क्षत्रं तं परादाद्योऽन्यत्राऽऽत्मनः क्षत्रं वेद लोकास्तं परादुर्योऽन्यत्रात्मनो लोकान्वेद देवास्तं परादुर्योऽन्यत्रात्मनो देवान्वेद भूतानि तं परादुर्योऽन्यत्रात्मनो भूतानि वेद सर्वं तं परादाद् योऽन्यत्रात्मनः सर्वं वेदेदं ब्रह्मेदं क्षत्रमिमे लोका इमे देवा इमानि भूतानीद सर्वं यदयमात्मा ॥ ६॥ ब्राहाण जाति उसे परास्त कर देती है, जो ब्रह्म को आत्मा से भिन्न जानता है। क्षत्रिय जाति उसे परास्त कर देती है, जो क्षत्रिय जाति को आत्मा से भिन्न देखता है। लोक उसे परास्त कर देते है, जो लोकों को आत्मा से भिन्न देखता है। देवगण उसे परास्त कर देते हैं, जो देवताओं को आत्मा से भिन्न देखता है। भूतगण उसे परास्त कर देते है, जो भूतों को आत्मा से भिन्न देखता है। सभी प्राणधारी उसे परास्त कर देते हैं, जो सभी प्राणधारियों को आत्मा से भिन्न देखता है। यह ब्रह्म, यह क्षत्र, यह लोक, यह देवगण, यह भूतगण और यह सब जो कुछ भी है, सब आत्मा ही हैं। ॥६॥ स यथा दुन्दुभेर्हन्यमानस्य न बाह्याञ्छब्दाञ्छक्नुयाद् ग्रहणाय दुन्दुभेस्तु ग्रहणेन दुन्दुभ्याघातस्य वा शब्दो गृहीतः ॥ ७॥ यह इस तरह है कि जिस प्रकार बजती हुई दुन्दुभि के बाह्य शब्दों को कोई पकड नहीं सकता, किंतु दुन्दुभि के आघात को पकड़ लेने से उसका शब्द भी पकड़ लिया जाता है । ॥७॥ स यथा शङ्खस्य ध्मायमानस्य न बाह्याञ्छब्दाञ्छक्नुयाद् ग्रहणाय शङ्खस्य तु ग्रहणेन श‌ङ्खध्मस्य वा शब्दो गृहीतः ॥ ८॥ यह ऐसा है, जैसे कोई बजाये जाते हुए शंख के बाह्म शब्दों को ग्रहण करने में समर्थ नहीं होता, कितु शंख को अथवा शंख के बजाने वाले को पकड़ लेने से उसका शब्द भी पकड़ लिया जाता है। ॥८॥ स यथा वीणायै वाद्यमानायै न बाह्याञ्छब्दाञ्छक्नुयाद् ग्रहणाय वीणायै तु ग्रहणेन वीणावादस्य वा शब्दो गृहीतः ॥ ९॥ यह ऐसा है, जैसे कोई बजायी जाती हुई वीणा के बाह्य शब्दों को ग्रहण प्राण काने में समर्थ नहीं होता; किंतु वीणा अथवा वीणा को बजाने वाले को पकड़ लेने पर उस शब्द को भी पकड़ लिया जाता है। ॥९॥ स यथाऽऽ धाग्नेरभ्याहितात्पृथग्धूमा विनिश्चरन्त्येवं वा अरेऽस्य महतो भूतस्य निःश्वसितमेतद् यदृग्वेदो यजुर्वेदः सामवेदोऽथर्वाङ्गिरस इतिहासः पुराणं विद्या उपनिषदः श्लोकाः सूत्राण्यनुव्याख्यानानि व्याख्यानान्य्सामवेदसथर्वाङ्गिरससितिहासस्पुराणं विद्यासुपनिषदस्श्लोकास्सूत्राणि अनुव्याख्यानानि व्याख्याननि अस्यैवैतानि निःश्वसितानि ॥१०॥ वह ऐसा है, जिस प्रकार गीले ईंधन से प्रदीप्त अग्नि से अलग धुंए के बादल निकलते हैं। हे मैत्रेयी! इसी प्रकार यह जो ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद अथर्ववेद, इतिहास, पुराण, विद्या, उपनिषद, श्लोक, सूत्र, मन्त्रविवरण और अर्थवाद हैं, वह सब इस परमात्मा के ही निःश्वास हैं। ॥१०॥ स यथा सर्वासामपा समुद्र एकायनमेव सर्वेषा स्पर्शानां त्वगेकायनमेव सर्वेषां गन्धानां नासिकैकायनं एव सर्वेषा रसानां जिौकायनमेव सर्वेषा रूपाणां चक्षुरेकायनमेवः सर्वेषाः शब्दाना श्रोत्रमेकायनमेव सर्वेषाः सङ्कल्पानां मन एकायनं एव सर्वासां विद्याना हृदयमेकायनमेव सर्वेषां कर्मणा हस्तावेकायनमेवः सर्वेषामानन्दानामुपस्थ एकायनं एव सर्वेषां विसर्गाणां पायुरेकायनमेव सर्वेषामध्वनां पादावेकायनमेव सर्वेषां वदानां वागेकायनम् ॥११॥ यह ऐसा है, जैसे समस्त जलों का समुद्र एक अयन (आश्रय स्थान) है, इसी प्रकार समस्त स्पर्शों का त्वचा एक अयन है, इसी प्रकार समस्त गन्धों की दोनों नासिकाएँ एक अयन है, इसी प्रकार समस्त रसों की जिह्वा एक अयन है, इसी प्रकार समस्त रूपों का चक्षु एक अयन है, इसी प्रकार समस्त शब्दों का श्रोत एक अयन है, डसी प्रकार समस्त संकल्पों का मन एक अयन है, इसी प्रकार समस्त विद्याओं का हृदय एक अयन है, इसी प्रकार समस्त कर्मों का हस्त एक अयन है, इसी प्रकार समस्त आनंदों का उपस्थ एक अयन है और इसी प्रकार समस्त विसर्गों का पायु एक अयन है, इसी प्रकार समस्त मार्गों का चरण एक अयन है और इसी प्रकार समस्त वेदों का वाणी एक अयन है। ॥११॥ स यथा सैन्धवखिल्य उदके प्रास्त उदकमेवानुविलीयेत न हास्योद्ब्रहणायेव न हास्योद्ब्रहणायैव स्याद् यतो यतस्त्वाददीत लवणमेवैवं वा अर इदं महद् भूतमनन्तमपारं विज्ञानघन एवैतेभ्यो भूतेभ्यः समुत्थाय एतेभ्यस्भूतेभ्यस्समुत्थाय तान्येवानुविनश्यति न प्रेत्य सञ्ज्ञाऽस्तीत्यरे ब्रवीमीति होवाच याज्ञवल्क्यः ॥१२॥ यह ऐसा है, जैसे जल में डाला हुआ नमक का टुकड़ा जल में ही घुल मिल जाता है, उसे किसी भी प्रकार जल से प्रथक नहीं निकाला जा सकता। चाहे जहाँ से भी जल लिया जाए वह नमकीन ही जान पड़ता है, हे मैत्रेयी! उसी प्रकार यह परमात्मत्तत्त्व अनन्त; अपार और विज्ञानघन ही हैं। यह इन भूतों से प्रकट होकर, इन्ही के साथ नाश को प्राप्त हो जाता है। देह-इन्द्रिय भाव से मुक्त होने पर इसकी कोई विशेष संज्ञा नहीं रहती। हे मैत्रेयी! ऐसा मैं तुझसे कहता हूँ - ऐसा याज्ञवल्क ने कहा। ॥१२॥ सा होवाच मैत्रेय्यत्रैव मा भगवानमूमुहद् न प्रेत्य सञ्ज्ञाऽस्तीति । स होवाच न वा अरेऽहं मोहं ब्रवीम्यलं वा अर इदं विज्ञानाय ॥ १३॥ मैत्रेयी ने कहा: 'मृत्यु के उपरांत कोई संज्ञा नहीं रहती ऐसा कहकर ही श्रीमान ने मुझे मोह में डाल दिया है।' याज्ञवल्क्यने कहा, 'हे मैत्रेयी! मैं मोह का उपदेश नहीं कर रहा हूँ, हे मैत्रेयी! यह तो उस परमात्मा का विज्ञान कराने के लिये पर्याप्त है। ॥१३॥ यत्र हि द्वैतमिव भवति तदितर इतरं जिघ्रति तदितर इतरं पश्यति तदितर इतर शृणोति तदितर इतरमभिवदति तदितर इतरं मनुते तदितर इतरं विजानाति । यत्र वा अस्य सर्वमात्मैवाभूत् तत्केन कं जिघेत् तत्केन के पश्येत् तत्केन कः शृणुयात् तत्केन कमभिवदेत् तत्केन कं मन्वीत तत्केन कं विजानीयात् । येनेद सर्वं विजानाति तं केन विजानीयाद् विज्ञातारमरे केन विजानीयादिति ॥१४॥ जहाँ अविद्यावस्था में द्वैत सा होता है, वहीं अन्य अन्य को सूंघता है, वही अन्य अन्य को देखता है, अन्य अन्य को सुनता है, अन्य अन्य का अभिवादन करता है, अन्य अन्य का मनन करता है तथा अन्य अन्य को जानता है। किंतु जहाँ इसके लिये सब आत्मा ही हो गया है वहाँ किसके द्वारा किसे सूंघे, किसके द्वारा किसे देखे, किसके द्वारा किसे सुने, किसके द्वारा किसका अभिवादन करे, किसके द्वारा किसका मनन करे और किसके द्वारा किसे जाने? जिसके द्वारा इस सबको जानता है, उसे किसके द्वारा जाने ? हे मैत्रेयी! जानने वाले को किसके द्वारा जाने ? ॥१४॥ ॥ इति चतुर्थं ब्राह्मणम् ॥ ॥ चतुर्थ ब्राह्मण समाप्त ॥ ॥ श्री हरि ॥ ॥ बृहदारण्यकोपनिषद ॥ अथ द्वितीयोऽध्यायः - पञ्चमं ब्राह्मणम् पांचवां ब्राह्मण मधु ब्राह्मण इयं पृथिवी सर्वेषां भूतानां मध्वस्यै पृथिव्यै सर्वाणि भूतानि मधु यश्चायमस्यां पृथिव्यां तेजोमयोऽमृतमयः पुरुषो यश्चायमध्यात्मः शारीरस्तेजोमयोऽमृतमयः पुरुषः अमृतमयस्पुरुषसयमेव स योऽयमात्मेदममृतमिदं ब्रह्मेद सर्वम् ॥ १॥ यह पृथिवी समस्त जीवों भूतों का मधु है और सब भूत इस पृथिवी के मधु हैं। इस पृथिवी में जो यह तेजोमय अमृतमय पुरुष है और जो यह अध्यात्म में शरीर तेजोमय अमृतमय पुरुष है, यही निःसंदेह वह आत्मा है, यह अमृत है, यह ब्रह्म है, यह सर्व है। ॥१॥ इमा आपः सर्वेषां भूतानां मध्वसामपा सर्वाणि भूतानि मधु यश्चायमास्वप्सु तेजोमयोऽमृतमयः पुरुषः यश्चायमध्यात्म रैतसस्तेजोमयोऽमृतमयः पुरुषोऽयमेव स योऽयमात्मेदममृतं इदं ब्रह्मेद सर्वम् ॥ २॥ ये जल समस्त जीवों का मधु हैं और समस्त भूत इन जलों के मधु हैं। इन जलों में जो यह तेजोमय अमृतमय पुरुष है और जो यह अध्यात्म रैतस (वीर्य) में तेजोमय अमृतमय पुरुष है, यही वह आत्मा है। यह अमृत है, यह ब्रह्म है, यह सर्व है ॥२॥ अयमग्निः सर्वेषां भूतानां मध्वस्याग्नेः सर्वाणि भूतानि मधु यश्चायमस्मिन्नग्नौ तेजोमयोऽमृतमयः पुरुषो यश्चायमध्यात्मं वाङ्गयस्तेजोमयोऽमृतमयः पुरुषोऽयमेव स योऽयमात्मेदममृतं ि इदं ब्रह्मेद सर्वम् ॥ ३॥ यह अग्नि समस्त जीवों का मधु है और समस्त जीव इस अग्नि के मधु हैं। इस अग्नि में जो यह तेजोमय अमृतमय पुरुष है और जो यह अध्यात्म मे वांग्मय (वाणी का अधिष्ठाता) तेजोमय अमृतमय पुरुष है, यही वह आत्मा है, यह अमृत है, यह ब्रह्म है, यह सर्व है। ॥ ३॥ अयं वायुः सर्वेषां भूतानां मध्वस्य वायोः सर्वाणि भूतानि मधु यश्चायमस्मिन्वायौ तेजोमयोऽमृतमयः पुरुषो यश्चायमध्यात्मं प्राणस्तेजोमयोऽमृतमयः पुरुषोऽयमेव स योऽयमात्मेदममृतम् । इदं ब्रह्मेद सर्वम् ॥४॥ यह वायु समस्त जीवों का मधु है और समस्त जीव इस वायु के मधु हैं। इस वायु में जो यह तेजोमय अमृतमय पुरुष है और जो यह अध्यात्म प्राणरूप (प्राण का अधिष्ठाता) तेजोमय अमृतमय पुरुष है, यही वह आत्मा है, यह अमृत है, यह ब्रह्म है, यह सर्व है। ॥४॥ अयमादित्यः सर्वेषां भूतानां मध्वस्याऽऽदित्यस्य सर्वाणि भूतानि मधु यश्चायमस्मिन्नादित्ये तेजोमयोऽमृतमयः पुरुषो यश्चायमध्यात्मं चाक्षुषस्तेजोमयोऽमृतमयः पुरुषोऽयमेव स योऽयमात्मेदममृतमिदं ब्रह्मेद सर्वम् ॥५॥ यह आदित्य समस्त जीवों का मधु है तथा समस्त जीव इस आदित्य के मधु हैं। यह जो इस आदित्य में तेजोमय अमृतमय पुरुष है और जो यह अध्यात्म चाक्षुष (नेत्रों का अधिष्ठाता) तेजोमय अमृतमय पुरुष है, यही वह आत्मा है। यह अमृत है, यह ब्रह्म है, यह सर्व है। ॥ ५ ॥ इमा दिशः सर्वेषां भूतानां मध्वासां दिशा सर्वाणि भूतानि मधु यश्चायमासु दिक्षु तेजोमयोऽमृतमयः पुरुषो यश्चायमध्यात्म श्रौत्रः प्रातिश्रुत्क स्तेजोमयोऽमृतमयः पुरुषोऽयमेव स योऽयमात्मेदममृतमिदं ब्रह्मेद सर्वम् ॥ ६॥ ये दिशाएँ समस्त जीवों का मधु हैं तथा समस्त जीव इन दिशाओं के मधु हैं। यह जो इन दिशाओं में तेजोमय अमृतमय पुरुष है और जो यह अध्यात्म श्रोत्र सम्बन्धी तेजोमय अमृतमय पुरुष (श्रोत का अधिष्ठाता) है, यही आत्मा है। यह अमृत है, यह ब्रह्म है, यह सर्व है। ॥६॥ अयं चन्द्रः सर्वेषां भूतानां मध्वस्य चन्द्रस्य सर्वाणि भूतानि मधु यश्चायमस्मिंश्चन्द्रे तेजोमयोऽमृतमयः पुरुषो यश्चायमध्यात्मं मानसस्तेजोमयोऽमृतमयः पुरुषोऽयमेव स योऽयमात्मेदममृतमिदं ब्रह्मेद सर्वम् ॥ ७॥ यह चन्द्रमा समस्त जीवों का मधु है और समस्त जीव इस चन्द्रमा के मधु है। यह जो इस चन्द्रमा में तेजोमय अमृतमय पुरुष है और जो यह अध्यात्म मन सम्बन्धी (मन का अधिष्ठाता) तेजोमय अमृतमय पुरुष है, यही आत्मा है, यह अमृत है, यह ब्रह्म है, यह सर्व है। ॥७॥ इयं विद्युत्सर्वेषां भूतानं मध्वस्यै विद्युतः सर्वाणि भूतानि मधु यश्चायमस्यां विद्युति तेजोमयोऽमृतमयः पुरुषो यश्चायमध्यात्मं तैजसस्तेजोमयोऽमृतमयः पुरुषोऽयमेव स ं योऽयमात्मेदममृतं इदं ब्रह्मेद सर्वम् ॥८॥ यह विद्युत् समस्त जीवों का मधु है और समस्त जीव इस विद्युत् के मधु हैं। यह जो इस विद्युत् में तेजोमय अमृतमय पुरुष है और जो यह अध्यात्म तैजस (तेज का अधिष्ठाता) अमृतमय पुरुष है, यही आत्मा है, यह अमृत है, यह ब्रह्म है, यह सर्व है। ॥८॥ अय स्तनयित्नुः सर्वेषां भूतानां मध्वस्य स्तनयित्नोः सर्वाणि भूतानि मधु यश्चायमस्मिन्स्तनयित्नौ तेजोमयोऽमृतमयः पुरुषो यश्चायमध्यात्म शाब्दः सौवरस्तेजोमयोऽमृतमयः पुरुषो ऽयमेव स योऽयमात्मेदममृतमिदं ब्रह्मेद सर्वम् ॥९॥ यह मेघ समस्त जीवों का मधु है तथा समस्त जीव इस मेघ के मधु हैं । यह जो इस मेघ में तेजोमय अमृतमय पुरुष है और जो यह अध्यात्म शब्द एवं स्वरसम्बन्धी (शब्द और अमृत का अधिष्ठाता) तेजोमय अमृतमय पुरुष है, यही वह यही आत्मा है, यह अमृत है, यह ब्रह्म है, यह सर्व है। ॥ ९ ॥ अयमाकाशः सर्वेषां भूतानां मध्वस्याऽऽकाशस्य सर्वाणि भूतानि मधु यश्चायमस्मिन्नाकाशे तेजोमयोऽमृतमयः पुरुषो यश्चायमध्यात्म हृद्याकाशस्तेजोमयोऽमृतमयः पुरुषः ऽयमेव स योऽयमात्मेदममृतमिदं ब्रह्मेद सर्वम् ॥१०॥ यह आकाश समस्त जीवों का मधु है तथा समस्त जीव इस आकाश के मधु हैं। यह जो इस आकाश में तेजोमय अमृतमय पुरुष है और जो यह अध्यात्म हृदयाकाश रूप (हृदय में आकाश का अधिष्ठाता) तेजोमय अमृतमय पुरुष है, यही आत्मा है यह अमृत है, यह ब्रह्म है, यह सर्व है। ॥१०॥ अयं धर्मः सर्वेषां भूतानां मध्वस्य धर्मस्य सर्वाणि भूतानि मधु यश्चायमस्मिन्धर्मे तेजोमयोऽमृतमयः पुरुषो यश्चायमध्यात्मं धार्मस्तेजोमयोऽमृतमयः पुरुषोऽयमेव स योऽयमात्मेदममृतं इदं ब्रह्मेद सर्वम् ॥११॥ यह धर्म समस्त जीवों का मधु है तथा समस्त जीव इस धर्म के मधु हैं । इस धर्म में जो यह तेजोमय अमृतमय पुरुष है और जो यह अध्यात्म धर्मसम्बन्धी (धर्म का अधिष्ठाता) तेजोमय अमृतमय पुरुष है, यही वह है जो कि 'यह आत्मा है। यह अमृत है, यह ब्रह्म है, यह सर्व है ॥११॥ इद सत्य सर्वेषां भूतानां मध्वस्य सत्यस्य सर्वाणि भूतानि मधु यश्चायमस्मिन्सत्ये तेजोमयोऽमृतमयः पुरुषो यश्चायमध्यात्मः सात्यस्तेजोमयोऽमृतमयः पुरुषोऽयमेव स योऽयमात्मेदममृतमिदं ब्रह्मेद सर्वम् ॥ १२॥ यह सत्य समस्त जीवों का मधु है और समस्त जीव इस सत्य के मधु हैं। यह जो इस सत्य में तेजोमय अमृतमय पुरुष है और जो यह अध्यात्म सत्यसम्बन्धी (आध्यात्म में सत्य का अधिष्ठाता) तेजोमय अमृतमय पुरुष है, यही वह आत्मा है, यह अमृत है, यह ब्रह्म है, यह सर्व है ॥ १२ ॥ इदं मानुषः सर्वेषां भूतानां मध्वस्य मानुषस्य सर्वाणि भूतानि मधु यश्चायमस्मिन्मानुषे तेजोमयोऽमृतमयः पुरुषो यश्चायमध्यात्मं मानुषस्तेजोमयोऽमृतमयः पुरुषोऽयमेव स योऽयमात्मेदममृतमिदं ब्रह्मेद सर्वम् ॥१३॥ यह मनुष्य जाति समस्त जीवों का मधु है और समस्त जीव इस मनुष्य जाति के मधु हैं। यह जो मनुष्य जाति में तेजोमय अमृतमय पुरुष है और जो यह अध्यात्म मानुष (विराट देह) तेजोमय अमृतमय पुरुष है, यही वह आत्मा है, यह अमृत है, यह ब्रह्म है, यह सर्व है ॥ १३॥ अयमात्मा सर्वेषां भूतानां मध्वस्याऽऽत्मनः सर्वाणि भूतानि मधु यश्चायमस्मिन्नात्मनि तेजोमयोऽमृतमयः पुरुषो यश्चायमात्मा तेजोमयोऽमृतमयः पुरुषोऽयमेव स योऽयमात्मेदममृतमिदं ब्रह्मेदः सर्वम् ॥१४॥ यह आत्मा समस्त जीवों का मधु है तथा समस्त जीव इस आत्मा के मधु हैं। यह जो इस आत्मा में तेजोमय अमृतमय पुरुष है और जो यह आत्मा तेजोमय अमृतमय पुरुष है, यही वह आत्मा है, यह अमृत है, यह ब्रह्म है, यह सर्व है । ॥१४॥ स वा अयमात्मा सर्वेषां भूतानामधिपतिः सर्वेषां भूताना राजा । तद्यथा रथनाभौ च रथनेमौ चाराः सर्वे समर्पिता एवमेवास्मिन्नात्मनि सर्वाणि भूतानि सर्वे देवाः सर्वे लोकाः सर्वे प्राणाः सर्व एत आत्मानः समर्पिताः ॥ १५॥ यह आत्मा समस्त जीवों का अधिपति एवं समस्त जीवों का राजा है। जिस प्रकार रथ की नाभि और रथ की नेमि में सारे अरे समर्पित रहते हैं, इसी प्रकार इस आत्मा में समस्त जीव, समस्त देव, समस्त लोक, समस्त प्राण और ये सभी आत्मा समर्पित हैं। ॥१५॥ इदं वै तन्मधु दध्य‌ङाथर्वणोऽश्विभ्यामुवाच । उवाच तदेतदृषिः पश्यन्नवोचत् । तद्वां नरा सनये दस उग्रं आविष्कृणोमि तन्यतुर्न वृष्टिम्। दध्यङ् ह यन्मध्वाथर्वणो वां अश्वस्य शीर्णा प्र यदीमुवाचेति ॥ १६॥ इस मधु को दध्य‌ङाथर्वण (अथर्वा के पुत्र) ऋषि ने अश्विनीकुमारों से कहा था। इस मधु को देखते हुए ऋषि मन्त्र ने कहा- 'मेघ जिस प्रकार वृष्टि करता है, उसी प्रकार हे नराकार अश्विनीकुमारो ! मैं लाभ के लिये किये हुए तुम दोनों का वह उग्र तेजस्वी कर्म प्रकट किये देता हूँ, जिस मधु का दध्यङङाथर्वण ऋषि ने तुम्हारे प्रति अश्व के सिर से वर्णन किया था ॥ १६ ॥ इदं वै तन्मधु दध्यङ्‌ङाथर्वणोऽश्विभ्यामुवाच । तदेतदृषिः पश्यन्नवोचत् । आथर्वणायाश्विनौ दधीचेऽव्यः शिरः प्रत्यैरयतम् । स वां मधु प्रवोचदृतायन् त्वाष्ट्रं यद् दस्रावपि कक्ष्यं वामिति ॥ १७॥ इस मधु का दध्यङङाथर्वणने अश्विनीकुमारों को उपदेश किया। इसे देखते हुए ऋषि (मन्त्रद्रष्टा) ने कहा है- हे अश्विनीकुमारो! तुम दोनों आथर्वण दध्य के लिये घोड़े का सिर लाये। उसने सत्यपालन करते हुए तुम्हें सूर्य सम्बन्धी मधु का उपदेश किया तथा हे दस्र (शत्रुहिंसक)! जो आत्मज्ञान सम्बन्धी गुप्त मधु था वह भी तुमसे कहा ॥१७॥ इदं वै तन्मधु दध्यङ्‌ङाथर्वणोऽश्विभ्यामुवाच । तदेतदृषिः पश्यन्नवोचत् पुरश्चक्रे द्विपदः पुरश्चक्रे चतुष्पदः । पुरः स पक्षी भूत्वा पुरः पुरुष आविशदिति । स वा अयं पुरुषः सर्वासु पूर्षु पुरिशयो नैनेन किंचनानावृतं नैनेन किंचनासंवृतम् ॥ १८॥ इस मधु का दध्यङ्‌ङाथर्वण ने अश्विनीकुमारों को उपदेश किया। इसे देखते हुए ऋषिने कहा-परमात्मा ने दो पैरों वाले शरीर बनाये और चार पैरों वाले शरीर बनाये। पहले वह पुरुष पक्षी होकर शरीरों में प्रविष्ट हो गया। वह यह पुरुष समस्त पुरों (शरीरों) में पुरिशय है अर्थात सभी शरीरों में विद्यमान है इसलिए पुरुष है। ऐसा कुछ भी नहीं है, जो पुरुष से ढका न हो तथा ऐसा भी कुछ नहीं है, जिसमें पुरुष का प्रवेश न हुआ हो, जो पुरुष से व्याप्त न हो ॥ १८ ॥ इदं वै तन्मधु दध्य‌ङाथर्वणोऽश्विभ्यामुवाच । तदेतदृषिः पश्यन्नवोचत् । रूपरूपं प्रतिरूपो बभूव तदस्य रूपं प्रतिचक्षणाय । इन्द्रो मायाभिः पुरुरूप ईयते युक्ता ह्यस्य हरयः शता दशेतिययं वै हरयोऽयं वै दश च सहस्रणि बहूनि चानन्तानि च । तदेतद्ब्रह्मापूर्वमनपरमनन्तरमबाह्यमयमात्मा ब्रह्म सर्वानुभूरित्यनुशासनम् ॥१९॥ इस मधु का दध्यङ्‌ङाथर्वण ने अश्विनीकुमारों को उपदेश किया । यह देखते हुए ऋषिने कहा- हर एक रूप के वह प्रतिरूप हो गया। इसका वह रूप हमारे देखने के लिये है। ईश्वर माया से अनेक रूप प्रतीत होता है, शरीर रूप रथ में जोड़े हुए इसके इन्द्रिय रूप घोड़े शत और दश हैं। यह परमेश्वर ही हरि (इन्द्रियरूप अश्व) है, यही दश, सहस्र, अनेक और अनन्त है। यह ब्रह्म कारणरहित, कार्यरहित, विजातीय द्रव्य से रहित और अबाह्य है। यह आत्मा ही सबका अनुभव करनेवाला ब्रह्म है। यही समस्त वेदान्तों का उपदेश है। ॥१९॥ ॥ इति पञ्चमं ब्राह्मणम् ॥ ॥ पांचवा ब्राह्मण समाप्त ॥ ॥ श्री हरि ॥ ॥बृहदारण्यकोपनिषद ॥ अथ द्वितीयोऽध्यायः - षष्ठं ब्राह्मणम् छठा ब्राह्मण वंश ब्राह्मण अथ वशः पौतिमाष्यो गौपवनाद् गौपवनः पौतिमाष्यात् पौतिमाष्यो गौपवनाद् गौपवनः कौशिकात् कौशिकः कौण्डिन्यात् कौण्डिन्यः शाण्डिल्याच्छाण्डिल्यः कौशिकाच्च गौतमाच्च गौतमः ॥१॥ अब मधु काण्ड का वंश बतलाया जाता है- पौतिमाष्य ने गौपवन से, गौपवन ने पौतिमाष्य से, पौतिमाष्य ने गौपवन से, गौपवन ने कौशिक से, कौशिक ने कौण्डिन्य से, कौण्डिन्य ने शाण्डिल्य से, शाण्डिल्य ने कौशिक से और गौतम से, गौतम ने ॥१॥ आग्निवेश्यादग्निवेश्यः शाण्डिल्याच्चानभिम्लाताच्चानभिम्लात आनभिम्लातादनभिम्लात अनभिम्लातादनभिम्लातो गौतमाद् गौतमः सैतवप्राचीनयोग्याभ्या, सैतवप्राचीनयोग्यौ पाराशर्यात् पाराशर्यो भारद्वाजाद् भारद्वाजो भारद्वाजाच्च गौतमाच्च गौतमो भारद्वाजाद् भारद्वाजः पाराशर्यात् पाराशर्यो वैजवापायनाद् वैजवापायनः कौशिकायनेः कौशिकायनिः ॥ २॥ आग्निवेश्य से, आग्निवेश्य ने शाण्डिल्य से और आनभिम्लात से आनभिम्लात ने आनभिम्लात से, आनभिम्लात ने आनभिम्लात से, आनभिम्लात ने गौतम से, गौतम ने सैतव और प्राचीनयोग्य से, सैतव और प्राचीनयोग्य ने पाराशर्य से, पाराशर्य ने भारद्वाज से, भारद्वाज ने भारद्वाज से और गौतम से, गौतम ने भारद्वाज से, भारद्वाज ने पाराशर्य से, पाराशर्य ने बैजवापायन से, बैजवापायन ने कौशिकायनि से, कौशिकायनि ने ॥२॥ घृतकौशिकाद् घृतकौशिकः पाराशर्यायणात् पारशर्यायणः पाराशर्यात् पाराशर्यो जातूकर्ण्यज् जातूकर्ण्य आसुरायणाच्च यास्काच्च्ऽ ऽ सुरायणस्त्रैवणेस्तैवणिरौपजन्धनेरौपजन्धनिरासुरासुरि र्भारद्वाजाद् भारद्वाज आत्रेयादत्रेयो माण्टेर्माण्टिर्गौतमाद् गौतमो गौतमाद् गौतमो वात्स्याद् वात्स्यः शाण्डिल्याच्छाण्डिल्यः कैशोर्यात्काप्यात् कैशोर्यः काप्यः कुमारहारितात् कुमारहारितो गालवाद् गालवो विदर्भीकौण्डिन्याद् विदर्भीकौण्डिन्यो वत्सनपातो बाभ्रवाद् वत्सनपाद्वाभ्रवः पथः सौभरात् पन्थाः सौभरोऽयास्यादाङ्गिरसादयास्य आङ्गिरस आभूतेस्त्वाष्ट्रादाभूतिस्त्वाष्ट्रो विश्वरूपात्त्वाष्ट्राद् विश्वरूपस्त्वाष्टोऽश्विभ्यामश्विनौ दधीच आथर्वणाद् दध्यङ्‌ङाथर्वणोऽथर्वणो दैवादथर्वा दैवो मृत्योः प्राध्वसनान् मृत्युः प्राध्वसनः प्रध्वसनात् प्रध्वसन एकर्षेः एकर्षिर्विप्रचित्तेर्विप्रचित्तिव्र्व्यष्टव्र्व्यष्टिः सनारोः सनारुः सनातनात् सनातनः सनगात् सनगः परमेष्ठिनः परमेष्ठी ब्रह्मणो ब्रह्म स्वयम्भु ब्रह्मणे नमः ॥ ३॥ घृतकौशिक से, घृतकौशिक ने पाराशर्यायण से, पाराशर्यायण ने पाराशर्य से, पाराशर्य ने जातूकर्ण्य से, जातूकर्ण्य ने आसुरायण से और यास्क से, आसुरायण ने त्रैवणि से, त्रैवणि ने औपजन्धनि से, औपजन्धनि ने आसुरि से, आसुरि ने भारद्वाज से, भारद्वाज ने आत्रेय से, आत्रेय ने माण्टि से, माण्टि ने गौतम से, गौतम ने गौतम से, गौतम ने वात्स्य से, वात्स्य ने शाण्डिल्य से, शाण्डिल्य ने कैशोर्य काप्य से, कैशोर्य काप्य ने कुमार हारित से, कुमार हारित ने गालव से, गालव ने विदर्भीकौण्डिन्य से, विदर्भी कौण्डिन्य ने वत्सनपात् बाभ्रव से, वत्सनपात् बाभ्रव ने पन्था सौभर से, पन्था सौभर ने अयास्य आङ्गिरस से, अयास्य आङ्गिरस ने आभूति त्वाष्ट्र से, आभूति त्वाष्ट्र ने विश्वरूप त्वाष्ट्र से, विश्वरूप त्वाष्ट्र ने अश्विनीकुमारों से, अश्विनीकुमारों ने दध्यङ्‌ङाथर्वण से, दध्यङ्‌ङाथर्वणने अथर्वा दैव से, अथर्वा देव ने मृत्यु-प्राध्वंसन से, मृत्यु-प्राध्वंसन ने प्रध्वंसन से, प्रध्वंसन ने एकर्षि से, एकर्षि ने विप्रचित्ति से, विप्रचित्ति ने व्यष्टि से, व्यष्टि ने सनारु से, सनारु ने सनातन से, सनातन ने सनग से, सनग ने परमेष्ठी से और परमेष्ठी ने ब्रह्मा से इसे प्राप्त किया। ब्रह्मा स्वयम्भु है, ब्रह्मा को नमस्कार है। ॥३॥ ॥ इति षष्ठं ब्राह्मणम् ॥ ॥छठा ब्राह्मण समाप्त ॥ ॥ इति बृहदारण्यकोपनिषदि द्वितीयोऽध्यायः ॥ ॥ बृहदारण्य उपनिषद का दूसरा अध्याय समाप्त ॥

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