ऋग्वेद प्रथम मण्डल सूक्त १६५

ऋग्वेद - प्रथम मंडल सूक्त १६५ ऋषि - १, २, ४, ६, ८, १०-१२ इन्द्र; ३, ५, ७, ९ मरुतः १३-१५ अगस्त्यों मैत्रा वरुणि । देवता - मरुत्वानिन्द्रः छंद - त्रिष्टुप कया शुभा सवयसः सनीळाः समान्या मरुतः सं मिमिक्षुः । कया मती कुत एतास एतेऽर्चन्ति शुष्मं वृषणो वसूया ॥१॥ एक ही स्थान में रहने वाले, समवयस्क मरुद्गण, किस शुभ तत्त्व से सिंचन करते हैं ? कहाँ से आकर, किस मति से प्रेरित होकर, ये बलशाली मरुद्गण ऐश्वर्य की कामना से बल की उपासना करते हैं॥१॥ कस्य ब्रह्माणि जुजुषुर्युवानः को अध्वरे मरुत आ ववर्त । श्येनाँ इव ध्रजतो अन्तरिक्ष केन महा मनसा रीरमाम ॥२॥ सदा युवा रहने वाले ये मरुद्गण किसके स्तोत्रों (हव्य) को स्वीकार करते हैं ? इन मरुतों को कौन यज्ञ की ओर प्रेरित कर सकता है ? अन्तरिक्ष में बाज़ पक्षी के समान विचरण करने वाले इन मरुतों को किन उदार-विशाल हृदय की भावनाओं से प्रसन्न करें ? ॥२॥ कुतस्त्वमिन्द्र माहिनः सन्नेको यासि सत्पते किं त इत्था । सं पृच्छसे समराणः शुभानैर्वोचेस्तन्नो हरिवो यत्ते अस्मे ॥३॥ हे महान् इन्द्रदेव ! आप अकेले कहाँ जाते हैं? आप ऐसे (महान् एवं पूज्य) क्यों हैं? हे अश्वों से युक्त शोभनीय इन्द्रदेव ! अपने सान्निध्य में रहने वालों की आप सदैव कुशलक्षेम पूछते रहते हैं। अतः हमारे हित की जो भी बात आप कहना चाहें, वह कहें ॥३॥ ब्रह्माणि मे मतयः शं सुतासः शुष्म इयर्ति प्रभृतो मे अद्रिः । आ शासते प्रति हर्यन्त्युक्थेमा हरी वहतस्ता नो अच्छ ॥४॥ (इन्द्रदेव की अभिव्यक्ति) मननशील स्तुतियाँ एवं सोम मेरे लिए सुखकारी हों। मेरा बलशाली वैज्र शत्रुओं की ओर जाता है। स्तुतियाँ मेरी प्रशंसा करती हुई मेरी तरफ आती हैं। दोनों अश्व मुझे लक्ष्य की ओर ले जाते हैं ॥४॥ अतो वयमन्तमेभिर्युजानाः स्वक्षत्रेभिस्तन्वः शुम्भमानाः । महोभिरेताँ उप युज्महे न्विन्द्र स्वधामनु हि नो बभूथ ॥५॥ हम अपने (इन्द्रियों रूपी) अति बलशाली अश्वों से युक्त होकर, महान् तेजस्विता से स्वयं को सज्जित करके, उनका उपयोग शत्रुओं के विनाश के लिए करते हैं। अतः हे इन्द्रदेव ! आप अपनी धारण- क्षमताओं को हमारे अनुकूल बनायें ॥५॥ क्व स्या वो मरुतः स्वधासीद्यन्मामेकं समधत्ताहिहत्ये । अहं ह्युग्रस्तविषस्तुविष्मान्विश्वस्य शत्रोरनमं वधस्तैः ॥६॥ हे मरुद्गणो ! तुम्हारी वह स्वाभाविक शक्ति कहाँ थी, जिसे तुमने वृत्रवध के अवसर पर अकेले मुझ (इन्द्र) में स्थापित किया था। (वैसे तो मैं (इन्द्र) स्वयं ही शक्तिशाली, बलवान्, शूरवीर हूँ। मैंने अपने शस्त्रास्त्रों से भयंकर से भयंकर शत्रुओं को भी झुकने के लिए मजबूर किया है॥६॥ भूरि चकर्थ युज्येभिरस्मे समानेभिर्वृषभ पौंस्येभिः । भूरीणि हि कृणवामा शविष्ठेन्द्र क्रत्वा मरुतो यद्वशाम ॥७॥ हे शक्तिशाली इन्द्रदेव ! आपने हमारे (मरुतों के साथ मिलकर अपनी सामर्थ्य के अनुरूप अनेकों वीरतापूर्ण कार्य किये हैं। हे शक्ति सम्पन्न इन्द्रदेव ! हम (मरुतों) ने भी अति वीरतापूर्ण कार्य किये हैं। हम (मरुद्गण) अपने पुरुषार्थ से जो भी चाहते हैं, प्राप्त कर लेते हैं॥७॥ वधीं वृत्रं मरुत इन्द्रियेण स्वेन भामेन तविषो बभूवान् । अहमेता मनवे विश्वश्चन्द्राः सुगा अपश्चकर वज्रबाहुः ॥८॥ है मरुतो ! अपनी सामर्थ्य शक्ति से ही मैंने (इन्द्रदेव ने) वृत्रासुर का संहार किया और अपने ही पराक्रम से शक्ति सम्पन्न बना। वज्र को हाथों में धारण करके मैंने (इन्द्रदेव ने) ही मनुष्यों तथा सभी प्राणियों के कल्याण के लिए, आनन्ददायी जल प्रवाहों को सहजता से प्रवाहित किया ॥८॥ अनुत्तमा ते मघवन्नकिर्नु न त्वावाँ अस्ति देवता विदानः । न जायमानो नशते न जातो यानि करिष्या कृणुहि प्रवृद्ध ॥९॥ हे ऐश्वर्यशाली इन्द्रदेव! आपसे बढ़कर और कोई धनवान नहीं है। आपके समान कोई ज्ञानी भी नहीं है। हे महान् इन्द्रदेव ! आपके द्वारा किये गये कार्यों की समानती न कोई कर सका है और न ही आगे कर सकेगा ॥९॥ एकस्य चिन्मे विभ्वस्त्वोजो या नु दधृष्वान्कृणवै मनीषा । अहं ह्युग्रो मरुतो विदानो यानि च्यवमिन्द्र इदीश एषाम् ॥१०॥ मैं (इन्द्र) जिन कार्यों को करने की कामना करता हैं, उन्हें एकाग्र मन से करता है, इसलिए मेरी अकेले की कीर्ति पताका चारों ओर फहरा रही है। हे मरुद्गणो ! चूँकि मेरे अन्दर वीरोचित शौर्य और विद्वत्ता है, इसलिए जिनकी तरफ भी जाता हैं, उनका स्वामी बनकर शक्तियों का उपभोग करता हूँ ॥१०॥ अमन्दन्मा मरुतः स्तोमो अत्र यन्मे नरः श्रुत्यं ब्रह्म चक्र । इन्द्राय वृष्णे सुमखाय मह्यं सख्ये सखायस्तन्वे तनूभिः ॥११॥ हे नेतृत्वकर्ता, मित्र मरुतो ! आपने जो प्रशंसित स्तोत्र मेरे (इन्द्र के) निमित्त रचित किये हैं, उनसे मुझे अभूतपूर्व आनन्द की प्राप्ति हुई है। ये स्तोत्र, वैभवशाली शक्तिसम्पन्न उत्तम याज्ञिक तथा शक्ति सम्पन्न मेरी सामर्थ्य को और भी पुष्टं करने वाले हैं॥११॥ एवेदेते प्रति मा रोचमाना अनेद्यः श्रव एषो दधानाः । संचक्ष्या मरुतश्चन्द्रवर्णा अच्छान्त मे छदयाथा च नूनम् ॥१२॥ हे मरुतो ! इसी प्रकार मुझे (इन्द्र को) स्नेह प्रदान करते हुए, प्रशंसनीय धन-धान्य को धारण करते हुए, आनन्द प्रदायक स्वरूप से युक्त होकर चतुर्दिक मेरा यशोगान करें ॥१२॥ को न्वत्र मरुतो मामहे वः प्र यातन सर्वांरच्छा सखायः । मन्मानि चित्रा अपिवातयन्त एषां भूत नवेदा म ऋतानाम् ॥१३॥ हे मरुद्गणो ! यहाँ कौन आपकी पूजा अर्चना करते हैं, यह भलीप्रकार जानकर मित्र के समान जो आपके हितैषी है, उनके समीप जायें। उनके द्वारा किये जाने वाले उद्देश्यपूर्ण स्तोत्रों के अभिप्राय को जानकर उसे पूरा करें ॥१३॥ आ यद्रुवस्याद्धवसे न कारुरस्माञ्चक्रे मान्यस्य मेधा । ओ षु वर्त्त मरुतो विप्रमच्छेमा ब्रह्माणि जरिता वो अर्चत् ॥१४॥ हे मरुतो ! सम्माननीय स्तोता की मति हमें प्राप्त हो, जिससे हम स्तोत्रों के द्वारा आपकी (भली भाँति) स्तुति कर सकें । चूँकि स्तोता आपकी स्तोत्रों के द्वारा स्तुति करते हैं, अतः आप उन ज्ञान-सम्पन्नों की ओर उन्मुख हों ॥१४॥ एष वः स्तोमो मरुत इयं गीर्मान्दार्यस्य मान्यस्य कारोः । एषा यासीष्ट तन्वे वयां विद्यामेषं वृजनं जीरदानुम् ॥१५॥ हे मरुतो ! यह वाजी (यह स्तोत्र) आपके लिए है, अतः आप आनन्ददायी, सम्माननीय स्तोता को परिपुष्ट करने के निमित्त पधारें । हम भी अन्न, बल तथा यशस्वी धन प्राप्त करें ॥१५॥

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