ऋग्वेद प्रथम मण्डल सूक्त ८३

ऋग्वेद - प्रथम मंडल सूक्त ८३ ऋषि – गौतमो राहुगणः: देवता- इन्द्र । छंद जगती - अश्वावति प्रथमो गोषु गच्छति सुप्रावीरिन्द्र मर्त्यस्तवोतिभिः । तमित्पृणक्षि वसुना भवीयसा सिन्धुमापो यथाभितो विचेतसः ॥१॥ हे इन्द्रदेव ! आपकी सामर्थों से रक्षित हुआ आपका उपासक अश्वों और गौओं से युक्त धनों को पाकर अग्रणी होता है। जैसे जल सब ओर से समुद्र को प्राप्त होता है, वैसे ही आपके सम्पूर्ण धन उस उपासक को पूर्ण करके उसे भली प्रकार सन्तुष्ट करते हैं॥१॥ आपो न देवीरुप यन्ति होत्रियमवः पश्यन्ति विततं यथा रजः । प्राचैर्देवासः प्र णयन्ति देवयुं ब्रह्मप्रियं जोषयन्ते वरा इव ॥२॥ होता (के चमस पात्र) को जिस प्रकार जल धाराएँ प्राप्त होती हैं, उसी प्रकार देवगण अन्तरिक्ष से यज्ञ को देखकर अपने प्रिय स्तोताओं के निकट पहुँचकर उनकी मंत्र युक्त प्रिय स्तुतियों को ग्रहण करते हैं। वे उन स्तोताओं को पूर्व की ओर श्रेष्ठ मार्गों से ले जाते हैं॥२॥ अधि द्वयोरदधा उक्थ्यं वचो यतस्रुचा मिथुना या सपर्यतः । असंयत्तो व्रते ते क्षेति पुष्यति भद्रा शक्तिर्यजमानाय सुन्वते ॥३॥ हे इन्द्रदेव ! परस्पर संयुक्त दो अन्नपात्र आपके निमित्त समर्पित हैं। आपने उन पात्रों को स्तुति वचनों के साथ स्वीकार किया हैं। जो स्तोता आपके नियमों के अनुसार रहता है, उसकी आप रक्षा करते हैं और पुष्टि प्रदान करते हैं। सोमयाग करने वाले यजमान को आप कल्याणकारी शक्ति देते हैं॥३॥ आदङ्गिराः प्रथमं दधिरे वय इद्धाग्नयः शम्या ये सुकृत्यया । सर्वं पणेः समविन्दन्त भोजनमश्वावन्तं गोमन्तमा पशुं नरः ॥४॥ हे इन्द्रदेव ! अंगिराओं ने अपने उत्तम कर्मों से अग्नि को प्रज्वलित करके सर्वप्रथम हविष्यान्न प्रदान किया हैं। अनन्तर उन श्रेष्ठ पुरुषों ने सभी अश्वों, गौओं से युक्त पशु रूप धनों और भोज्य पदार्थों को प्राप्त किया ॥४॥ यज्ञैरथर्वा प्रथमः पथस्तते ततः सूर्यो व्रतपा वेन आजनि । आ गा आजदुशना काव्यः सचा यमस्य जातममृतं यजामहे ॥५॥ सर्वप्रथम 'अथर्वा 'ने 'यज्ञ' के सम्पूर्ण मार्गों को विस्तृत किया। अनन्तर नियमों के दृढ़ पालक सूर्यदेव का प्राकट्य हुआ। फिर उशना' ने समस्त गौओं को बाहर निकाला। हम सब इस जगत् के नियामक अविनाशी देव इन्द्र की पूजा करते हैं॥५॥ बर्हिर्वा यत्स्वपत्याय वृज्यतेऽर्को वा श्लोकमाघोषते दिवि । ग्रावा यत्र वदति कारुरुक्थ्यस्तस्येदिन्द्रो अभिपित्वेषु रण्यति ॥६॥ जिसके घर में उत्तम यज्ञादि कर्मों के निमित्त कुश काटे जाते हैं। सूर्योदय के पश्चात् आकाश में जहाँ स्तोत्र पाठ गुंजरित होते हैं। जहाँ उक्ति वचनों सहित सोम कूटने के पाषाणों का शब्द गूंजती हैं, इन्द्रदेव उनके यहाँ ही हविद्रव (सोमरस) का पान कर आनन्द पाते हैं॥६॥

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