ऋग्वेद तृतीय मण्डलं सूक्त ६

ऋग्वेद - तृतीय मंडल सूक्त ६ ऋषि - गाथिनो विश्वामित्रः । देवता - अग्निः । छंद - त्रिष्टुप प्र कारवो मनना वच्यमाना देवद्रीचीं नयत देवयन्तः । दक्षिणावाड्वाजिनी प्राच्येति हविर्भरन्त्यग्नये घृताची ॥१॥ हे स्तोताओ ! आप मंत्र युक्त स्तोत्रों के साथ ही देवयजन में प्रयुक्त होने वाली सुवा को ले आयें। अन्न से पूर्ण सुवा को दक्षिण दिशा से लाकर पूर्व दिशा में हवि और घृत से परिपूर्ण कर अग्नि की ओर लाया जाता है ॥१॥ आ रोदसी अपृणा जायमान उत प्र रिक्था अध नु प्रयज्यो । दिवश्चिदग्ने महिना पृथिव्या वच्यन्तां ते वह्नयः सप्तजिह्वाः ॥२॥ हे अग्निदेव ! जन्म के साथ ही आप द्युलोक एवं पृथ्वी को पूर्ण करते हैं। हे यजन योग्य अग्निदेव! अपनी महिमा से ही आप द्यावा-पृथिवी और अन्तरिक्ष से भी श्रेष्ठ हो गये हैं। आपकी अंश रूप सप्त ज्वालाओं से युक्त किरणें स्तुत्य हों ॥२॥ द्यौश्च त्वा पृथिवी यज्ञियासो नि होतारं सादयन्ते दमाय । यदी विशो मानुषीर्देवयन्तीः प्रयस्वतीरीळते शुक्रमर्चिः ॥३॥ हे होता अग्निदेव ! जिस समय देवत्व की अभिलाषा द्वारा हविष्यान्न से युक्त होकर प्रजाजन तेजस्वी ज्वालाओं की स्तुति करते हैं, उस समय द्युलोक, पृथिवी और यजनीय देवगण यज्ञादि की सफलता के लिए आपकी स्थापना करते हैं॥३॥ महान्त्सधस्थे ध्रुव आ निषत्तोऽन्तर्द्धावा माहिने हर्यमाणः । आस्क्रे सपत्नी अजरे अमृक्ते सबर्दुघे उरुगायस्य धेनू ॥४॥ याजकों के प्रिय महान् अग्निदेव, तेजस्वितापूर्वक द्यावा-पृथिवीं के बीच अपने महिमामय स्थान पर अविचल रूप में स्थित हैं। सपत्नी की भाँति परस्पर जुड़ी हुई अजर-अमृत उत्पादक द्यावा-पृथिवी श्रेष्ठ अग्निदेव की दुधारूगौओं के समान हैं ॥४॥ व्रता ते अग्ने महतो महानि तव क्रत्वा रोदसी आ ततन्थ । त्वं दूतो अभवो जायमानस्त्वं नेता वृषभ चर्षणीनाम् ॥५॥ हे अग्निदेव ! आप सर्वश्रेष्ठ हैं। आपके कर्म महान् हैं। आपने यज्ञादि कर्मों से द्यावा-पृथिवी को विस्तारित किया है। आप देवों के दूत रूप में प्रतिष्ठित हैं। हे बलशाली अग्निदेव ! आप जन्म से ही याजकों के नेता हैं॥५॥ ऋतस्य वा केशिना योग्याभिघृतस्नुवा रोहिता धुरि धिष्व । अथा वह देवान्देव विश्वान्स्वध्वरा कृणुहि जातवेदः ॥६॥ हे दीप्तिमान् अग्निदेव ! प्रशस्त केश वाले, लगाम वाले, तेजोमय रोहित वर्ण वाले अपने अश्वों को यज्ञ की धुरी से जोड़ें । तदनन्तर सम्पूर्ण देवों को बुला लायें। हे सर्वभूत ज्ञाता अग्निदेव ! उन देवों को हमारे उत्तम यज्ञ से युक्त करें ॥६॥ दिवश्चिदा ते रुचयन्त रोका उषो विभातीरनु भासि पूर्वीः । अपो यदग्न उशधग्वनेषु होतुर्मन्द्रस्य पनयन्त देवाः ॥७॥ हे अग्निदेव ! जब आप वनों में जल का शोषण करते हैं, उस समय आपकी दीप्ति सूर्य से भी अधिक तेज़ होती है। आप कान्तिमती पुरातन उषा के पीछे प्रतिभाषित होते हैं। विद्वान् स्तोतागण प्रमुदित मन से होतारूप आपकी स्तुति करते हैं॥७॥ उरौ वा ये अन्तरिक्षे मदन्ति दिवो वा ये रोचने सन्ति देवाः । ऊमा वा ये सुहवासो यजत्रा आयेमिरे रथ्यो अग्ने अश्वाः ॥८॥ जो देवगण अन्तरिक्ष में हर्षपूर्वक रहते हैं, जो दीप्तिमान् द्युलोक में रहते हैं और जो 'ऊम' संज्ञक यजनीय पितर हैं, वे सभी यहाँ सम्मानपूर्वक आवाहित होते हैं। हे अग्निदेव! आप अश्वों से युक्त रथ से उन्हें लाएँ ॥८ ॥ ऐभिरग्ने सरथं याह्यर्वा‌नानारथं वा विभवो ह्यश्वाः । पत्नीवतस्त्रिंशतं त्रींश्च देवाननुष्वधमा वह मादयस्व ॥९॥ हे अग्निदेव ! आप उन सभी देवों के साथ एक ही रथ पर अथवा विविध रथों से हमारे पास आयें। आपके अश्व, वहन करने में समर्थ हैं, तैतीस देवों को उनकी पत्नियों सहित सोमपान के लिए लाएँ और सोमपान से उन्हें प्रमुदित करें ॥९॥ स होता यस्य रोदसी चिदुर्वी यज्ञंयज्ञमभि वृधे गृणीतः । प्राची अध्वरेव तस्थतुः सुमेके ऋतावरी ऋतजातस्य सत्ये ॥१०॥ अत्यन्त विस्तृत द्यावा-पृथिवी प्रत्येक यज्ञ में जिसकी वृद्धि के लिए स्तुतियाँ करती हैं, वे ही देवों के आवाहनकर्ता अग्निदेव हैं। सुन्दर रूपवती, परिपूर्ण जलवती, सत्यवती द्यावा-पृथिवी यज्ञ के समान ऋत से उत्पन्न उस अग्नि के अनुकूल होकर स्थित है ॥१०॥ इळामग्ने पुरुदंसं सनिं गोः शश्वत्तमं हवमानाय साध । स्यान्नः सूनुस्तनयो विजावाग्ने सा ते सुमतिर्भूत्वस्मे ॥११॥ हे अग्निदेव ! आप हम स्तोताओं के लिए सर्वदा श्रेष्ठ रहने वाली, अनेक कर्मों में प्रयुक्त होने वाली, गौओं को पुष्ट करने वाली भूमि प्रदान करें । हमारे पुत्र-पौत्रादि से वंश वृद्धि होती रहे। हे अग्निदेव ! आपकी उत्तम बुद्धि का अनुग्रह हमें प्राप्त हो ॥११॥

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