ऋग्वेद पंचम मण्डलं सूक्त ४४

ऋग्वेद-पंचम मंडल सूक्त ४४ ऋषिः काश्यपोऽवत्सारः देवता - विश्वेदेवा, ११ रुद्र। छंद जगती, १४-१५ त्रिष्टुप ॐ तं प्रत्नथा पूर्वथा विश्वथेमथा ज्येष्ठतातिं बर्हिषदं स्वर्विदम् । प्रतीचीनं वृजनं दोहसे गिराशुं जयन्तमनु यासु वर्धसे ॥१॥ पुरातन समय के याजकों, हमारे पुरखों तथा इस काल के सभी प्राणियों की भाँति हमें भी इन्द्रदेव की स्तुतियाँ करके अपने मनोरथ पूर्ण करें। वे इन्द्रदेव देवताओं में ज्येष्ठ सर्वज्ञाता, हम सबके सामने कुशासन, बली, गतिमान् और विजयशील हैं। उन्हें स्तुतियों द्वारा प्रसन्न करें ॥१॥ श्रिये सुदृशीरुपरस्य याः स्वर्विरोचमानः ककुभामचोदते । सुगोपा असि न दभाय सुक्रतो परो मायाभिर्ऋत आस नाम ते ॥२॥ हे इन्द्रदेव ! आप स्वर्गलोक में अपनी आभा से प्रकाशित होते हैं। आप अवृष्टिकारक मेघों के मध्य स्थित सुन्दर जलराशि को बहाते हैं और सम्पूर्ण दिशाओं को शोभा से युक्त करते हैं। आप वृष्टि आदि उत्तम कर्मों द्वारा प्रजाओं के रक्षक हैं। आप प्राणियों की हिंसा न करने वाले और प्रपंचों को दूर करने वाले हैं; इसीलिए आपका नाम सत्यलोक में चिरकाल से विद्यमान है ॥२॥ अत्यं हविः सचते सच्च धातु चारिष्टगातुः स होता सहोभरिः । प्रसर्साणो अनु बर्हिर्वृषा शिशुर्मध्ये युवाजरो विसुहा हितः ॥३॥ वे अग्निदेव अबाध गति वाले, अरणि मंथन से बलपूर्वक उत्पन्न होने वाले और यज्ञ-सम्पादक हैं। वे स्थिर और अस्थिर सत्यरूप हवियों को प्राप्त करते हैं। प्रारम्भ में वे अग्निदेव कुश पर बैठकर शिशु रूप होते हैं, तदनन्तर समिधाओं के मध्य विराजित होकर अत्यन्त तरुण और अजर अवस्था को प्राप्त होते हैं ॥३॥ प्र व एते सुयुजो यामन्निष्टये नीचीरमुष्मै यम्य ऋतावृधः । सुयन्तुभिः सर्वशासैरभीशुभिः क्रिविर्नामानि प्रवणे मुषायति ॥४॥ सूर्यदेव की ये किरणें यज्ञ को बढ़ाने वाली, याज्ञिक को धन-ऐश्वर्य देने वाली, यज्ञ में गमन करने की कामना करती हुई अवतीर्ण होती हैं। सूर्यदेव से उत्पन्न ये रश्मियाँ उत्तम वेग से अवतीर्ण होने वाली, सब पर शासन करने वाली और अन्तरिक्ष मार्ग से जल राशि का शोषण करने वाली हैं ॥४॥ संजर्भुराणस्तरुभिः सुतेगृभं वयाकिनं चित्तगर्भासु सुस्वरुः । धारवाकेष्वृजुगाथ शोभसे वर्धस्व पत्नीरभि जीवो अध्वरे ॥५॥ हे अग्निदेव ! आप अत्यन्त सरल पथ से गमन करने वाले हैं। समिधाओं से प्रदीप्त होकर आप आयुवर्द्धक अभिघुत सोमरस का पान करने वाले हैं। विद्वान् साधकों की हृदय गुहा में स्थापित होकर अत्यन्त शोभायमान होते हैं। यज्ञ में चैतन्य होकर आप पत्नीरूप ज्वालाओं को प्रवर्धित करें ॥५॥ यादृगेव ददृशे तादृगुच्यते सं छायया दधिरे सिध्रयाप्स्वा । महीमस्मभ्यमुरुषामुरु ज्रयो बृहत्सुवीरमनपच्युतं सहः ॥६॥ ये देवगण जिस प्रकार दृष्टिगत होते हैं, वैसे ही वर्णित भी होते हैं। इन देवों ने अपने सिद्ध तेजों से जल के आवरण में समायी पृथ्वी को धारण किया । ये देवगण हमें महान् विजय, उत्तम वीर पुत्र, अक्षय धन और विराट् बल प्रदान करें ॥६॥ वेत्यग्रुर्जनिवान्वा अति स्पृधः समर्यता मनसा सूर्यः कविः । घंसं रक्षन्तं परि विश्वतो गयमस्माकं शर्म वनवत्स्वावसुः ॥७॥ सर्व उत्पादक, श्रेष्ठ क्रान्तदर्शी सूर्यदेव अपने उत्कंटित मन के कारण सभी स्पर्धावान् ग्रह-नक्षत्रों से अग्रणी रहते हैं। सम्पूर्ण विश्व की चारों ओर से रक्षा करने वाले तेजस्वी सूर्यदेव की हम सम्यक् रूप से स्तुतियाँ करें । सूर्यदेव हमें दीप्तिमान् एवं श्रेष्ठ ऐश्वर्य और अतिशय सुख प्रदान करें ॥७॥ ज्यायांसमस्य यतुनस्य केतुन ऋषिस्वरं चरति यासु नाम ते । यादृश्मिन्धायि तमपस्यया विदद्य उ स्वयं वहते सो अरं करत् ॥८॥ श्रेष्ठ यज्ञ सम्पादक हे अग्निदेव ! ऋषियों की स्तुतिपरक वाणीं आपके निकट ही गमन करती है। इन स्तुतियों से आपका नाम (यश) संवर्द्धित होता है। वे ऋषिगण जिसकी कामना करते हैं; उसे अपने पराक्रम से प्राप्त कर लेते हैं। जिस कार्यभार को स्वयं वहन करते हैं, उसे सिद्ध भी कर लेते हैं ॥८॥ समुद्रमासामव तस्थे अग्रिमा न रिष्यति सवनं यस्मिन्नायता । अत्रा न हार्दि क्रवणस्य रेजते यत्रा मतिर्विद्यते पूतबन्धनी ॥९॥ इन स्तोत्रों में सर्वश्रेष्ठ स्तोत्र (प्रकाश के) समुद्र के समान, सूर्यदेव तक पहुँचकर प्रतिष्ठित हों। जिन यज्ञों में इन स्तोत्रों का विस्तार होता है, वे कभी नष्ट नहीं होते हैं। जहाँ पवित्र भावों से बँधी हुई बुद्धि रहती है, वहाँ याज्ञिकों के हृदयगत मनोरथ कभी विफल नहीं होते ॥९॥ स हि क्षत्रस्य मनसस्य चित्तिभिरेवावदस्य यजतस्य सधेः । अवत्सारस्य स्पृणवाम रण्वभिः शविष्ठं वाजं विदुषा चिदर्ध्यम् ॥१०॥ वे सवितादेव हम सबके द्वारा अत्यन्त रमणीय स्तोत्रों से स्तुति किये जाने योग्य हैं। सम्पूर्ण विद्वानों द्वारा भी अतिशय पूज्य हैं। हम क्षत्र, मनस, अवद, यजत, सधि और अवत्सार नामक ऋषिगण सूर्यदेव की स्तुतियों द्वारा श्रेष्ठ बलों और अन्नों की कामना करते हैं ॥१०॥ श्येन आसामदितिः कक्ष्यो मदो विश्ववारस्य यजतस्य मायिनः । समन्यमन्यमर्थयन्त्येतवे विदुर्विषाणं परिपानमन्ति ते ॥११॥ यह सोमरस जनित हर्ष कक्षा (उदर) को परिपूर्ण करने वाला, श्येन के सदृश सर्वत्र गमनशील और अदिति की तरह व्यापक है। यह सोमरस विश्ववार, यजत और मायी ऋषियों द्वारा अभिषुत होता है। ये सभी इसका पान करके हर्षित और पुष्ट होने की कामना करते हैं ॥११॥ सदापृणो यजतो वि द्विषो वधीद्वाहुवृक्तः श्रुतवित्तर्यो वः सचा । उभा स वरा प्रत्येति भाति च यदीं गणं भजते सुप्रयावभिः ॥१२॥ जो देवगणों की उत्तम स्तुतियाँ करने वाले हैं, वे सदापृण, यजत, बाहुवृक्त, श्रुतवित् और तर्य ऋषिगण सब मिलकर अपने शत्रुओं का संहार करें। वे ऋषिगण दोनों लोकों-इस लोक और परलोक के मनोरथों को प्राप्त करते हुए तेजस्विता से दीप्तिमान् हों; क्योंकि वे विश्वेदेवों की विशेष स्तुतियाँ करते हैं ॥१२॥ सुतम्भरो यजमानस्य सत्पतिर्विश्वासामूधः स धियामुदञ्चनः । भरद्धेनू रसवच्छिश्रिये पयोऽनुब्रुवाणो अध्येति न स्वपन् ॥१३॥ यजमान अवत्सार के यज्ञ में सुतम्भर ऋषि, सत्यधर्म (यज्ञादि) कार्यों के पालक हैं। वे सम्पूर्ण यज्ञादि कार्यों में स्तुतियों के स्रोत स्वरूप हैं । इस यज्ञ में गौएँ रसरूष पेय पदार्थों को प्रदान करती हैं। सभी स्तोतागण इस यज्ञ के सारभूत फलों को प्राप्त करते हैं, अन्य सोने वाले व्यक्ति नहीं ॥१३॥ यो जागार तमृचः कामयन्ते यो जागार तमु सामानि यन्ति । यो जागार तमयं सोम आह तवाहमस्मि सख्ये न्योकाः ॥१४॥ जो जाग्रत् हैं, उन्हीं से रुचाएँ अपेक्षा रखती हैं। जाग्रतों को ही सामगान का लाभ मिलता हैं। जाग्रतों से ही सोम कहता है कि " मैं तुम्हारे मित्र भाव में ही रहता हूँ" ॥१४॥ अग्निर्जागार तमृचः कामयन्तेऽग्निर्जागार तमु सामानि यन्ति । अग्निर्जागार तमयं सोम आह तवाहमस्मि सख्ये न्योकाः ॥१५॥ अग्निदेव जाग्रत् रहते हैं, इसीलिए वह ऋचाओं द्वारा चाहे जाते हैं । अग्निदेव चैतन्यवान् हैं, अतः साम उसका गान करते हैं। चैतन्य (प्रज्वलित) अग्नि से ही सोम कहता है-" मैं सदा आपके मित्रभाव में आश्रय स्थान प्राप्त करूँ ॥१५॥

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