ऋग्वेद प्रथम मण्डल सूक्त ११२

ऋग्वेद - प्रथम मंडल सूक्त ११२ ऋषि - कुत्स अंगिरसः: देवता- १, द्यावापृथ्वी, अग्नि, आश्विनौ, २-२५ आश्विनौ। छंद - जगती, २४-२५ त्रिष्टुप ईळे द्यावापृथिवी पूर्वचित्तयेऽग्निं घर्म सुरुचं यामन्निष्टये । याभिर्भर कारमंशाय जिन्वथस्ताभिरू षु ऊतिभिरश्विना गतम् ॥१॥ द्युलोक, भूलोक तथा भली प्रकार प्रज्जवलित-तापयुक्त अग्नि की हम सर्वप्रथम प्रार्थना करते हैं। हे अश्विनी देवो! जिनसे कर्मशील (पुरुषार्थी) व्यक्ति को समर क्षेत्र में अपना भाग ग्रहण करने के लिए आपका मार्गदर्शन मिलता है, उन संरक्षण-साधनों के साथ आप दोनों हमारे यहाँ पधारें ॥१॥ युवोर्दानाय सुभरा असश्चतो रथमा तस्थुर्वचसं न मन्तवे । याभिर्धियोऽवथः कर्मन्निष्टये ताभिरू षु ऊतिभिरश्विना गतम् ॥२॥ हे अश्विनीदेवो ! भरण-पोषण की इच्छा रखने वाले व्यक्ति जिस प्रकार इधर-उधर न भटक कर ज्ञानी जनों के पास जाते हैं, उसी प्रकार आपके रथ के समीप दान ग्रहण करने के लिए साधक स्थित रहते हैं। जिन संरक्षण शक्तियों से आप लक्ष्य प्राप्ति के लिए उनकी बुद्धियों और कर्मों को प्रेरित करते हैं, उन्हीं शक्तियों के साथ आप दोनों भली प्रकार यहाँ पधारें ॥२॥ युवं तासां दिव्यस्य प्रशासने विशां क्षयथो अमृतस्य मज्मना । याभिर्धेनुमस्वं पिन्वथो नरा ताभिरू षु ऊतिभिरश्विना गतम् ॥३॥ हे नेतृत्व गुणयुक्त अश्विनीकुमारो ! आप दोनों दिव्यलोक में उत्पन्न हुए सोमरस के पीने से अमर और बलशाली बने हैं तथा उसी बल से इन सभी प्रजाजनों पर शासन करते हैं। आपने जिन चिकित्सा प्रणालियों से बन्ध्या (प्रजनन क्षमता से रहित) गौओं को प्रजनन योग्य हष्ट-पुष्ट और दुधारू बनाया, उन संरक्षण साधनों सहित आप निश्चित ही हमारे यहाँ पधारें ॥३॥ याभिः परिज्मा तनयस्य मज्मना द्विमाता तूर्षु तरणिर्विभूषति । याभिस्त्रिमन्तुरभवद्विचक्षणस्ताभिरू षु ऊतिभिरश्विना गतम् ॥४॥ सर्वत्र विचरणशील वायुदेव और अग्निदेव जिस बल से दो माताओं ( अरणियों) से उत्पन्न होकर अति गतिशील होकर विशेष शोभायमान होते हैं तथा कक्षीवान् ऋषि जिन तीन साधन रूपी यज्ञों से विशिष्ट ज्ञानवान् बने, हे अश्विनीकुमारो ! आप दोनों उन संरक्षण साधनों के साथ हमारे यहाँ पधारें ॥४॥ याभी रेभं निवृतं सितमद्भय उद्वन्दनमैरयतं स्वदृशे । याभिः कण्वं प्र सिषासन्तमावतं ताभिरू षु ऊतिभिरश्विना गतम् ॥५॥ हे अश्विनीकुमारो ! जिस सामर्थ्य से आप दोनों ने, जल में सम्पूर्ण स्थिति में डूबे और बन्धन युक्त रेभ तथा वन्दन को बाहर निकालकर प्रकाश के दर्शन योग्य बनाया। जिस प्रकार साधनारत कण्व को संरक्षण साधनों द्वारा उचित रीति से समर्थ बनाया, उन्हीं संरक्षण युक्त साधनों के साथ आप हमारे यहाँ पधारें ॥५॥ याभिरन्तकं जसमानमारणे भुज्युं याभिरव्यथिभिर्जिजिन्वथुः । याभिः कर्कन्धुं वय्यं च जिन्वथस्ताभिरू षु ऊतिभिरश्विना गतम् ॥६॥ हे अश्विनीदेवो ! जिस सामर्थ्य से आप दोनों ने कूप गर्त में पड़े और कष्ट पीड़ित राजर्षि अन्तक को बाहर निकाला, जिस कड़ी मेहनत से तुम्न पुत्र भुज्यु को सुरक्षित किया और कन्धु तथा वय्य की जिन संरक्षण साधनों से युक्त होकर रक्षा की, उन संरक्षण साधनों से युक्त होकर आप हमारे यहाँ पधारें ॥६॥ याभिः शुचन्तिं धनसां सुषंसदं तप्तं घर्ममोम्यावन्तमत्रये । याभिः पृश्निगुं पुरुकुत्समावतं ताभिरू षु ऊतिभिरश्विना गतम् ॥७॥ हे अश्विनीकुमारो ! जिस सामर्थ्य से आप दोनों ने धन वितरण कर्ता शुचन्ति को श्रेष्ठ निवास योग्य स्थान दिया। अत्रि ऋषि के लिए तप्त बन्दी गृह को शान्त किया तथा पृश्निगु और पुरुकुत्स को सुरक्षित किया। उन संरक्षण सामथ्र्यों से युक्त होकर आप हमारे यहाँ पधारें ॥७॥ याभिः शचीभिर्वृषणा परावृजं प्रान्धं श्रोणं चक्षस एतवे कृथः । याभिर्वर्तिकां ग्रसिताममुञ्चतं ताभिरू षु ऊतिभिरश्विना गतम् ॥८॥ हे अश्विनीकुमारो ! जिस सामर्थ्य से आपने पंगु परावृक् ऋषि को, नेत्र हीन ऋज्राश्व को और पैरों से लँगड़े श्रोण को, दृष्टि युक्त करके पाँवो से चलने-फिरने योग्य बनाया। भेड़िये द्वारा मुख में पकड़ी हुई, दाँतों से घायल चिड़िया को अपनी सामर्थ्य से मुक्त करके आरोग्य प्रदान किया, उन आरोग्य प्रद चिकित्सा साधनों के साथ आप हमारे यहाँ पधारें ॥८॥ याभिः सिन्धुं मधुमन्तमसश्चतं वसिष्ठं याभिरजरावजिन्वतम् । याभिः कुत्सं श्रुतर्यं नर्यमावतं ताभिरू षु ऊतिभिरश्विना गतम् ॥९॥ हे चिरयुवा अश्विनीकुमारों! आप दोनों ने जिस सामर्थ्य से मधुर जलरूप रसवाली नदियों को प्रवाहित किया, जिससे वसिष्ठ, कुत्स, श्रुतर्य और नर्य को शत्रुओं से सुरक्षित किया, उन्हीं संरक्षण साधनों के साथ हमारे यहाँ उपस्थित हों ॥९॥ याभिर्विश्पलां धनसामथर्यं सहस्रमीळ्ह आजावजिन्वतम् । याभिर्वशमव्यं प्रेणिमावतं ताभिरू षु ऊतिभिरश्विना गतम् ॥१०॥ हे अश्विनीकुमारो ! जिस सामर्थ्य से आप दोनों ने हजारों योद्धाओं द्वारा लड़े जा रहे समर-क्षेत्र में अथर्व वंश में उत्पन्न धनदात्री विश्पला का सहयोग किया तथा प्रेरणाप्रद, अश्वराज के पुत्र वश ऋषि को संरक्षित किया, उन्हीं संरक्षण सामथ्र्यों के साथ आप हमारे यहाँ अवश्य पधारें ॥१०॥ याभिः सुदानू औशिजाय वणिजे दीर्घश्रवसे मधु कोशो अक्षरत् । कक्षीवन्तं स्तोतारं याभिरावतं ताभिरू षु ऊतिभिरश्विना गतम् ॥११॥ हे श्रेष्ठ दान दाता अश्विनीकुमारो! जिस सामर्थ्य से आपने उशिक् पुत्र दीर्घश्रवा नामक व्यापारी के लिए मधु के भण्डार प्रदान किये तथा स्तोत्र कर्ता कक्षीवान्' को सुरक्षित किया। उन्हीं संरक्षण शक्तियों के साथ आप दोनों हमारे यहाँ पधारें ॥११॥ याभी रसां क्षोदसोद्रः पिपिन्वथुरनश्वं याभी रथमावतं जिषे । याभिस्त्रिशोक उस्रिया उदाजत ताभिरू षु ऊतिभिरश्विना गतम् ॥१२॥ हे अश्विनीकुमारो ! जिस सामर्थ्य से आप दोनों ने नदी के तटों को जलों से भरपूर किया, जिससे अश्वों से रहित रथ को तेजगति से चलाकर शत्रु को पराजित करके विजय उपलब्ध की तथा कण्वपुत्र 'त्रिशोक' के लिए दुधारू गौओं को प्रदान किया, उन्हीं संरक्षण सामथ्र्यों के साथ आप हमारे यहाँ पदार्पण करें ॥१२॥ याभिः सूर्य परियाथः परावति मन्धातारं क्षेत्रपत्येष्वावतम् । याभिर्विप्रं प्र भरद्वाजमावतं ताभिरू षु ऊतिभिरश्विना गतम् ॥१३॥ हे अश्विनीकुमारो ! जिस सामर्थ्य से आप दोनों दूर स्थित सूर्यदेव के चारों ओर परिक्रमा करते हैं। आप दोनों ने जिस प्रकार मान्धाता को क्षेत्रपति के कर्तव्यों का निर्वाह करने की सामर्थ्य प्रदान की तथा ज्ञान-सम्पन्न भरद्वाज को, जिन श्रेष्ठ सुरक्षा-साधनों द्वारा बचाया, उन्हीं सामर्थ्ययुक्त साधनों के साथ हमारे यहाँ पधारें ॥१३॥ याभिर्महामतिथिग्वं कशोजुवं दिवोदासं शम्बरहत्य आवतम् । याभिः पूर्भिद्ये त्रसदस्युमावतं ताभिरू षु ऊतिभिरश्विना गतम् ॥१४॥ हे अश्विनीकुमारो ! जिन सामथ्र्यो से शम्बर का वध करने वाले संग्राम में अतिथिग्व, कशोजुव और महान् दिवोदास को आप दोनों ने संरक्षण प्रदान किया था। शत्रु नगरों को ध्वस्त करने वाले संग्राम में त्रसदस्यु (दस्युओं को संत्रस्त करने वाले राजा) को संरक्षित किया था, उन्हीं संरक्षण सामथ्र्यों के साथ आप हमारे यहाँ उपस्थित हों ॥१४॥ याभिर्वग्रं विपिपानमुपस्तुतं कलिं याभिर्वित्तजानिं दुवस्यथः । याभिर्व्यश्वमुत पृथिमावतं ताभिरू षु ऊतिभिरश्विना गतम् ॥१५॥ हे अश्विनीकुमारो ! जिन सामथ्र्यों से सोमरस पान करने वाले, निकटस्थ लोगों द्वारा प्रशंसनीय वम्र ऋषि को आप दोनों ने संरक्षित किया जिनसे धर्मपत्नी सहित कलि ऋषि को संरक्षित किया तथा अश्व रहित पृथि को संरक्षित किया था, उन सभी सुरक्षा-साधनों से आप यहाँ आएँ ॥१५॥ याभिर्नरा शयवे याभिरत्रये याभिः पुरा मनवे गातुमीषथुः । ्र याभिः शारीराजतं स्यूमरश्मये ताभिरू षु ऊतिभिरश्विना गतम् ॥१६॥ नेतृत्व क्षमता सम्पन्न हे अश्विनीकुमारो ! जिन सामथ्र्यों से शयु का सहयोग देने के लिए, जिनसे अत्रि ऋषि को कारागृह से मुक्त करने के लिए, जिनसे मनु को पुरातन समय में दुःख से निवृत्त होने का रास्ता आप दोनों ने बताया था तथा शत्रु सेना पर बाणों का प्रहार करके स्यूम-रश्मि की रक्षा की, उन्हीं समस्त संरक्षण-सामथ्र्यों से युक्त आप हमारे यहाँ पधारें ॥१६॥ याभिः पठर्वा जठरस्य मज्मनाग्निर्नादीदेच्चित इद्धो अज्मन्ना । याभिः शर्यातमवथो महाधने ताभिरू षु ऊतिभिरश्विना गतम् ॥१७॥ हे अश्विनीकुमारो ! आपकी जिन सामथ्र्यों का सहयोग पाकर समिधाओं से प्रदीप्त तेजस्विता युक्त अग्नि के समान ही पर्वा राजा' युद्ध में अपनी शारीरिक शक्ति से अति तेजस्वी बना था, विशाल सम्पदा अर्जित करने वाले संग्राम में आप दोनों ने 'शर्यात' को जिनसे संरक्षित किया था, उन्हीं संरक्षण-सामथ्र्यों के साथ आप यहाँ पधारें ॥१७॥ याभिरङ्गिरो मनसा निरण्यथोऽग्रं गच्छथो विवरे गोअर्णसः । याभिर्मनुं शूरमिषा समावतं ताभिरू षु ऊतिभिरश्विना गतम् ॥१८॥ है अश्विनीकुमारो ! आङ्गिरसों द्वारा श्रद्धा पूर्वक आप दोनों की स्तुति किये जाने पर जिस सामर्थ्य से आपने उन्हें सन्तुष्ट किया, चुराये गये गौ - समूह को प्राप्त करने के लिए गुफा के दरवाजे में आप दोनों ही आगे जाते हैं तथा जिस सामर्थ्य से शूरवीर मनु को संग्राम में प्रचुर अन्न सामग्री द्वारा सुरक्षित किया, उन्हीं सम्पूर्ण सामथ्र्यों के साथ आप दोनों हमारे यहाँ आएँ ॥१८॥ याभिः पत्नीर्विमदाय न्यूहथुरा घ वा याभिररुणीरशिक्षतम् । याभिः सुदास ऊहथुः सुदेव्यं ताभिरू षु ऊतिभिरश्विना गतम् ॥१९॥ है अश्विनीकुमारो ! जिन सामथ्र्यों से आप दोनों ने विमद की धर्म पलियों को उनके निवास स्थान पर पहुँचाया। लालवर्ण की घोड़ियों को भली प्रकार प्रशिक्षित किया (अथवा लाल रंग की उषा कालीन किरणों को मनुष्यों के लिए प्रेरित किया) तथा पिजवन-पुत्र सुदास को दिव्य सम्पदा प्रदान की, उन्हीं प्रेरणाप्रद शक्तियों के साथ हमारे यहाँ पधारें ॥१९॥ याभिः शंताती भवथो ददाशुषे भुज्युं याभिरवथो याभिरध्रिगुम् । ओम्यावतीं सुभरामृतस्तुभं ताभिरू षु ऊतिभिरश्विना गतम् ॥२०॥ हे अश्विनीदेवों ! जिन सामथ्र्यों से आप दानी मनुष्यों के लिए सुखद बने, भुज्यु और अधिगु को आपने संरक्षित किया तथा ऋतस्तुभ को श्रेष्ठ पौष्टिक और आनन्दप्रद अन्न सामग्री प्रदान की, उन्हीं सुखदायक सामथ्र्यो के साथ आप दोनों हमारे यहाँ पदार्पण करें ॥२०॥ याभिः कृशानुमसने दुवस्यथो जवे याभिर्यूनो अर्वन्तमावतम् । मधु प्रियं भरथो यत्सरड्भ्यस्ताभिरू षु ऊतिभिरश्विना गतम् ॥२१॥ हे अश्विनीकुमारो ! आप दोनों ने जिन सामथ्र्यों से 'कृशानु' का संग्राम में सहयोग किया, नवयुवा 'पुरुकुत्स' के गतिशील अश्व को संरक्षित किया तथा मधुमक्खियों के लिए मधुर शहद उत्पन्न किया, उन्हीं संरक्षण साधनों के द्वारा आप हमारे यहाँ आएँ ॥२१॥ याभिर्नरं गोषुयुधं नृषाह्ये क्षेत्रस्य साता तनयस्य जिन्वथः । याभी रथाँ अवथो याभिरर्वतस्ताभिरू षु ऊतिभिरश्विना गतम् ॥२२॥ हे अश्विनीकुमारो ! जिन सामथ्र्यों से आप गौओं के संरक्षणार्थ संघर्षशील योद्धाओं को और कृषि उत्पादनों की वितरण वेला में कृषकों को पारस्परिक कलह से संरक्षित करते हैं तथा वीरों के रथों और अश्वों की सुरक्षा करते हैं, उन्हीं सामथ्र्यों सहित आप दोनों उत्तम रीति से यहाँ आएँ ॥ २२॥ याभिः कुत्समार्जुनेयं शतक्रतू प्र तुर्वीतिं प्र च दभीतिमावतम् । याभिर्ध्वसन्तिं पुरुषन्तिमावतं ताभिरू षु ऊतिभिरश्विना गतम् ॥२३॥ सैकड़ों यज्ञादि श्रेष्ठ कर्म सम्पन्न करने वाले हे अश्विनीकुमारो ! आप दोनों ने जिन सामथ्र्यों से अर्जुन के पुत्र कुत्स, तुर्वीति एवं दधीति को तथा ध्वसन्ति और पुरुषन्ति ऋषियों को संरक्षण प्रदान किया, उन्हीं सुरक्षा-व्यवस्थाओं के साथ आप श्रेष्ठ विधि से यहाँ पदार्पण करें ॥२३॥ अप्नस्वतीमश्विना वाचमस्मे कृतं नो दस्रा वृषणा मनीषाम् । अद्यूत्येऽवसे नि ह्वये वां वृधे च नो भवतं वाजसातौ ॥२४॥ हे दर्शनयोग्य शक्तिसम्पन्न अश्विनीकुमारो! आप दोनों हमारी वाणी और बुद्धि को सकर्मों में नियोजित करें। हम याजकगण सन्मार्ग से उपलब्ध होने वाले अन्न हेतु आप दोनों का आवाहन करते हैं। आप दोनों ही यज्ञ में हमारी वृद्धि के कारण बने ॥२४॥ युभिरक्तुभिः परि पातमस्मानरिष्टेभिरश्विना सौभगेभिः । तन्नो मित्रो वरुणो मामहन्तामदितिः सिन्धुः पृथिवी उत द्यौः ॥२५॥ हे अश्विनीकुमारो ! दिन-रात्रि अनश्वर श्रेष्ठ धनों से हमें सभी प्रकार से संरक्षित करें। मित्र, वरुण, अदिति, सिंधु और द्युलोक आपके द्वारा प्रदत्त धनों के संरक्षण में सहायक हों ॥ २५॥

Recommendations