ऋग्वेद चतुर्थ मण्डलं सूक्त १

ऋग्वेद - चतुर्थ मंडल सूक्त १ ऋषि - वामदेवो गौतमः देवता–अग्नि, २-५ अग्नि वरुणौ । छंद त्रिष्टुप, १ अष्टिः, २ अतिजगती ३ धृति त्वां ह्यग्ने सदमित्समन्यवो देवासो देवमरतिं न्येरिर इति क्रत्वा न्येरिरे। अमर्त्य यजत मर्येष्वा देवमादेवं जनत प्रचेतसं विश्वमादेवं जनत प्रचेतसम् ॥१॥ हे वरुणदेव ! आप अविनाशी तथा तेजस् सम्पन्न हैं । उत्साहयुक्त समस्त देव अपने पराक्रम द्वारा आपको प्राप्त करते हैं। अनश्वर, प्रकाशमान तथा अत्यन्त विद्वान् हे अग्निदेव ! देवताओं ने मानवों के लिए कल्याणकारी यज्ञ के निमित्त आपको पैदा किया। आप समस्त कर्मों को जानने वाले हैं। देवताओं ने समस्त यज्ञों में उपस्थित रहने के लिए आपको उत्पन्न किया ॥१॥ स भ्रातरं वरुणमग्न आ ववृत्स्व देवाँ अच्छा सुमती यज्ञवनसं ज्येष्ठं यज्ञवनसम् । ऋतावानमादित्यं चर्षणीधृतं राजानं चर्षणीधृतम् ॥२॥ हे अग्निदेव ! वरुणदेव आपके बन्धु हैं। आहुतियों के योग्य, यज्ञ का सेवन करने वाले, जल को धारण करने वाले, यज्ञों में वन्दनीय, सद्बुद्धि वाले वरुणदेव अत्यन्त ओज से परिपूर्ण हैं। ऐसे वरुणदेव को आप याजकों की ओर प्रेरित करें ॥२॥ सखे सखायमभ्या ववृत्स्वाशुं न चक्रं रथ्येव रंह्यास्मभ्यं दस्म रंह्या । अग्ने मृळीकं वरुणे सचा विदो मरुत्सु विश्वभानुषु । तोकाय तुजे शुशुचान शं कृध्यस्मभ्यं दस्म शं कृधि ॥३॥ हे श्रेष्ठ सखा अग्निदेव ! जैसे द्रुतगामी अश्व शीघ्र गमन करने वाले रथ को ले जाते हैं, उसी प्रकार आप अपने सखा वरुणदेव को हमारी ओर ले आएँ । हे अग्निदेव! आप वरुणदेव तथा तेजस्-सम्पन्न मरुद्गण के साथ सोमरस ग्रहण करें। हे तेजस्वी अग्निदेव ! आप हमारी सन्तानों को सुख प्रदान करें। हे दर्शनीय अग्निदेव ! आप हमें सुखी बनाएँ ॥३॥ त्वं नो अग्ने वरुणस्य विद्वान्देवस्य हेळोऽव यासिसीष्ठाः । यजिष्ठो वह्नितमः शोशुचानो विश्वा द्वेषांसि प्र मुमुग्ध्यस्मत् ॥४॥ हे अग्निदेव ! आप सर्वज्ञ, कान्तिमान्, पूजनीय और भली प्रकार आहुतियों को देवों तक पहुँचाने वाले हैं। आप हमारे लिए वरुण देवता को प्रसन्न करें और हमारे सब प्रकार के दुर्भाग्यों को नष्ट करें ॥४॥ स त्वं नो अग्नेऽवमो भवोती नेदिष्ठो अस्या उषसो व्युष्टौ । अव यक्ष्व नो वरुणं रराणो वीहि मृळीकं सुहवो न एधि ॥५॥ हे अग्निदेव ! इस उषाकाल में अपनी रक्षक शक्ति सहित हमारे अत्यधिक निकट आकर, आप हमारी रक्षा करें तथा हमारी आहुतियों को वरुणदेव तक पहुँचाकर उन्हें तृप्त करें। सर्वदा आवाहन करने योग्य आप (अग्निदेव) स्वयं हमारी सुखदायी हवि को ग्रहण करें ॥५॥ अस्य श्रेष्ठा सुभगस्य संदृग्देवस्य चित्रतमा मर्येषु । शुचि घृतं न तप्तमध्यायाः स्पार्हा देवस्य मंहनेव धेनोः ॥६॥ जिस प्रकार गोपाल (गाय पालने वाले) के पास गो-दुग्ध तथा घृत, पवित्र और तेजस् युक्त होते हैं तथा गो दान करने वाले का दान प्रशंसनीय होता है, उसी प्रकार श्रेष्ठ धनवान् अग्निदेव का प्रार्थनीय तेज मानवों के बीच अत्यन्त पूजनीय तथा स्पृहणीय होता है ॥६॥ त्रिरस्य ता परमा सन्ति सत्या स्पार्हा देवस्य जनिमान्यग्नेः । अनन्ते अन्तः परिवीत आगाच्छुचिः शुक्रो अर्यो रोरुचानः ॥७॥ महान् गुण-सम्पन्न अग्निदेव के तीन श्रेष्ठ रूप (अग्नि, वायु और सूर्य के नाम से) जाने जाते हैं। वे अग्निदेव अनन्त अन्तरिक्ष में संव्याप्त, सबको पवित्र करने वाले आलोक से युक्त तथा अत्यन्त तेजस्वी हैं। वे हमारे निकट ज्ञ स्थल पर पधारें ॥७॥ स दूतो विश्वेदभि वष्टि सद्मा होता हिरण्यरथो रंसुजिह्वः । रोहिदश्वो वपुष्यो विभावा सदा रण्वः पितुमतीव संसत् ॥८॥ वे अग्निदेव देवताओं का आवाहन करने वाले, सन्देशवाहक, स्वर्णिम रथ वाले तथा श्रेष्ठ ज्वालाओं वाले हैं। वे समस्त श्रेष्ठ गृहों में गमन करने की कामना करते हैं। रोहित वर्ण के घोड़ों वाले, सुन्दर, कान्तिमान् अग्निदेव धन-धान्य से सम्पन्न गृह की भाँति सुखकारी हैं ॥८॥ स चेतयन्मनुषो यज्ञबन्धुः प्र तं मह्या रशनया नयन्ति । स क्षेत्यस्य दुर्यासु साधन्देवो मर्तस्य सधनित्वमाप ॥९॥ अध्वर्युगण रशना (अणि मंथन की रस्सी) द्वारा अग्निदेव को प्रकट करते हैं। यज्ञ में सबके हितैषी बन्धु अग्निदेव सभी लोगों को ज्ञान- सम्पन्न बनाते हैं। वे याजक के घर में उसके अभीष्ट को सम्पादित करते हुए विद्यमान रहते हैं। वे प्रकाशमान अग्निदेव अपने उपासक याजको के साथ निवास करते हैं ॥९॥ स तू नो अग्निर्नयतु प्रजानन्नच्छा रत्नं देवभक्तं यदस्य । धिया यद्विश्वे अमृता अकृण्वन्द्यौष्पिता जनिता सत्यमुक्षन् ॥१०॥ जिस उत्कृष्ट ऐश्वर्य को सभी श्रेष्ठजन भजते हैं, सर्वज्ञाता अग्निदेव के उस महान् ऐश्वर्य को हम प्राप्त करें। समस्त अविनाशी देवताओं ने यज्ञ के निमित्त अग्निदेव को पैदा किया। द्युलोक उनके पालन करने वाले हैं। याजकगण उस अनश्वर अग्नि को घृत आदि की आहुतियों से सिंचित करते हैं ॥१०॥ स जायत प्रथमः पस्त्यासु महो बुग्ने रजसो अस्य योनौ । अपादशीर्षा गुहमानो अन्तायोयुवानो वृषभस्य नीळे ॥११॥ वे अग्निदेव (यज्ञादि कर्म सम्पन्न करने वाले) मनुष्यों के गृह में प्रथम अग्रणी होकर रहते हैं, तत्पश्चात् विशाल अन्तरिक्ष में, पुनः धरती पर पैदा हुए। वे अग्निदेव बिना सिर और पैर वाले हैं। वे सभी के अन्दर विद्यमान रहते हैं। वे जल बरसाने वाले बादलों के साथ विद्युत् रूप में अपने को मिला देते हैं ॥११॥ प्र शर्ध आर्त प्रथमं विपन्याँ ऋतस्य योना वृषभस्य नीळे । स्पार्हो युवा वपुष्यो विभावा सप्त प्रियासोऽजनयन्त वृष्णे ॥१२॥ अपनी आकांक्षाओं की पूर्ति के लिए सात होताओं ने स्पृहणीय, नित्य युवा तथा सुन्दर शरीर वाले तेजोयुक्त अग्निदेव को प्रकट किया। हे अग्निदेव ! आपने जल के उत्पत्ति स्थान तथा जल बरसाने वाले मेघों के स्थान आकाश में विद्यमान रहकर, प्रार्थनाओं द्वारा सर्वश्रेष्ठ शक्तियों को ग्रहण किया ॥१२॥ अस्माकमत्र पितरो मनुष्या अभि प्र सेदुर्ऋतमाशुषाणाः । अश्मव्रजाः सुदुघा वत्रे अन्तरुदुस्रा आजन्नुषसो हुवानाः ॥१३॥ हमारे पितरों ने इस लोक में यज्ञन करते हुए अग्निदेव को ग्रहण किया था। उन्होंने उषा की प्रार्थना करते हुए पर्वतों के मध्य अन्धकारपूर्ण गुफाओं में छिपी हुई दुधारू गौओं (पोषक रसधाराओं या प्रकाश किरणों) को मुक्त किया ॥१३॥ ते मर्मृजत ददृवांसो अद्रिं तदेषामन्ये अभितो वि वोचन् । पश्वयन्त्रासो अभि कारमर्चन्विदन्त ज्योतिश्चकृपन्त धीभिः ॥१४॥ उन पितरों ने पहाड़ों को नष्ट करके अग्निदेव को पवित्र बनाया। उनके इस कृत्य का अन्य लोगों ने सम्पूर्ण जगत् में वर्णन किया । उनको पशुओं की सुरक्षा का उपाय मालूम था। वाञ्छित फल प्रदान करने वाले अग्निदेव की उन्होंने प्रार्थना की तथा ज्योति-लाभ प्राप्त किया। अपने विवेक के द्वारा उन्होंने स्वयं को शक्ति से सम्पन्न बनाया ॥१४॥ ते गव्यता मनसा दृध्रमुब्धं गा येमानं परि षन्तमद्रिम् । दृव्हं नरो वचसा दैव्येन व्रजं गोमन्तमुशिजो वि वब्रुः ॥१५॥ उन अंगिरस् गोत्रीय पितरों ने गो (पोषक धारा या प्रकाश किरण) प्राप्त करने की आकांक्षा से, अवरुद्ध द्वार वाले, भली-भाँति बन्द, सुदृढ़ गौओं से भरे हुए गोष्ठ (गोशाला) रूप पर्वत को अपने अग्नि विषयक वैदिक स्तोत्र की सामर्थ्य से खोल दिया ॥१५॥ ते मन्वत प्रथमं नाम धेनोस्त्रिः सप्त मातुः परमाणि विन्दन् । तज्जानतीरभ्यनूषत व्रा आविर्भुवदरुणीर्यशसा गोः ॥१६॥ वाणी के शब्द स्तुत्य हैं, यह सर्वप्रथम समझकर अङ्गिरा आदि ऋषियों ने (गायत्री आदि) इक्कीस छन्दों में होने वाले स्तोत्रों को जाना । तत्पश्चात् उस वाणी से उषा की स्तुति की, जिस तेज से अरुण किरणें (सूर्य किरणे) प्रकट हुईं ॥१६॥ नेशत्तमो दुधितं रोचत द्यौरुद्देव्या उषसो भानुरर्त । आ सूर्यो बृहतस्तिष्ठदज्राँ ऋजु मर्तेषु वृजिना च पश्यन् ॥१७॥ रात्रि द्वारा पैदा किया हुआ तुम, उषा देवी की प्रेरणा से विनष्ट हो गया। उसके बाद आकाश आलोकित हो गया और उषादेवी की प्रभा प्रकट हो गयीं। तत्पश्चात् मनुष्यों के अच्छे और बुरे कर्मों का निरीक्षण करते हुए सूर्य देव विशाल पर्वत के ऊपर आरूढ़ (प्रकट) हुए ॥१७॥ आदित्पश्चा बुबुधाना व्यख्यन्नादिद्रत्नं धारयन्त युभक्तम् । विश्वे विश्वासु दुर्यासु देवा मित्र धिये वरुण सत्यमस्तु ॥१८॥ सूर्योदय होने के बाद समस्त ऋषियों ने धरती पर अग्निदेव को प्रज्वलित किया तथा तेजोयुक्त आभूषणों को ग्रहण किया। उसके बाद समस्त पूजनीय देवगण सभी घरों में पधारे । बाधाओं का निवारण करने वाले तथा मित्ररूप हे अग्निदेव ! जो आपकी साधना करते हैं, उनकी समस्त कामनाएं पूर्ण हों ॥१८॥ अच्छा वोचेय शुशुचानमग्निं होतारं विश्वभरसं यजिष्ठम् । शुच्यूधो अतृणन्न गवामन्धो न पूतं परिषिक्तमंशोः ॥१९॥ हे अग्निदेव ! आप अत्यन्त प्रकाशवान्, देवताओं का आवाहन करने वाले तथा विश्व का पोषण करने वाले हैं। आप सर्वश्रेष्ठ तथा वन्दनीय हैं, अतः हम आपकी प्रार्थना करते हैं। याजक लोगों ने आपको आहुति प्रदान करने के लिए गौओं के स्तन से पवित्र दुग्ध नहीं दुहा हैं तथा सोम को अभिषुत नहीं किया है, फिर भी आप उनकी प्रार्थना को स्वीकार करें ॥१९॥ विश्वेषामदितिर्यज्ञियानां विश्वेषामतिथिर्मानुषाणाम् । अग्निर्देवानामव आवृणानः सुमृळीको भवतु जातवेदाः ॥२०॥ वे अग्निदेव अदिति के समान समस्त यज्ञीय देवताओं को पैदा करने वाले हैं तथा समस्त मानवों के वंदनीय अतिथि हैं। मनुष्यों की प्रार्थनाओं को ग्रहण करने वाले अग्निदेव स्तोताओं के लिए सुख, समृद्धि तथा प्रसन्नता प्रदान करने वाले हों ॥२०॥

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