ऋग्वेद प्रथम मण्डल सूक्त ५५

ऋग्वेद - प्रथम मंडल सूक्त ५५ ऋषि - सव्य अंगीरस देवता- इन्द्र। छंद जगती दिवश्चिदस्य वरिमा वि पप्रथ इन्द्रं न मह्ना पृथिवी चन प्रति । भीमस्तुविष्माञ्चर्षणिभ्य आतपः शिशीते वज्रं तेजसे न वंसगः ॥१॥ इन्द्रदेव की श्रेष्ठता पृथ्वी से द्युलोक तक विस्तृत है। अपने बल से उन्हें पराजित करने वाला कोई नहीं है। शत्रुओं के प्रति अत्यन्त विकराल, बलवान् शत्रुओं को संतप्त करने वाले इन्द्रदेव अपने वज्र का प्रहार करने के लिये उसे उसी प्रकार तीक्ष्ण करते हैं, जैसे बैल लड़ने के लिये अपने सींगों को तेज करता है ॥१॥ सो अर्णवो न नद्यः समुद्रियः प्रति गृभ्णाति विश्रिता वरीमभिः । इन्द्रः सोमस्य पीतये वृषायते सनात्स युध्म ओजसा पनस्यते ॥२॥ वे इन्द्रदेव अपनी उत्कृष्टता से अन्तरिक्ष में व्याप्त जल - प्रवाहों को, समुद्र द्वारा नदियों को धारण करने के समान धारण करते हैं । वे इन्द्रदेव सोम पीने की तीव्र अभिलाषा रखते हैं। चिरकाल से वे युद्धों में अपनी सामर्थ्य के बल पर प्रशंसा को प्राप्त होते रहे हैं॥२॥ त्वं तमिन्द्र पर्वतं न भोजसे महो नृम्णस्य धर्मणामिरज्यसि । प्र वीर्येण देवताति चेकिते विश्वस्मा उग्रः कर्मणे पुरोहितः ॥३॥ हे इन्द्रदेव ! आप महान् बलों के धारणकर्ता हैं। अपने बल से पर्वत के समान दृढ़, शत्रुओं (मेघों) को विदीर्ण कर, प्रजाओं के भोग के लिये जल देकर उन पर शासन करते हैं। आप सभी कर्मों में अग्रणी और बलों के कारण देवों में श्रेष्ठ माने जाते हैं॥३॥ स इद्वने नमस्युभिर्वचस्यते चारु जनेषु प्रब्रुवाण इन्द्रियम् । वृषा छन्दुर्भवति हर्यतो वृषा क्षेमेण धेनां मघवा यदिन्वति ॥४॥ मनुष्यों में अपनी सामर्थ्य को प्रकट करते हुए सुन्दर रूप वाले वे धनवान् और बलवान् इन्द्रदेव, विनयशीलों की स्तुतियों को सुनकर प्रसन्न होते हैं तथा धनादि की कामना करने वालों को अभीष्ट पदार्थ प्रदान करते हैं ॥४॥ स इन्महानि समिथानि मज्मना कृणोति युध्म ओजसा जनेभ्यः । अधा चन श्रद्धति त्विषीमत इन्द्राय वज्रं निघनिघ्नते वधम् ॥५॥ वे वीर इन्द्रदेव मनुष्यों के हित के लिए अपने महान् बल से बड़े-बड़े युद्धों को जीतते हैं। अपने घातक वज्र से शत्रुओं का विनाश करते हैं, जिससे मनुष्य तेजस्वी इन्द्रदेव के आगे श्रद्धा से झुकते हैं॥५॥ स हि श्रवस्युः सदनानि कृत्रिमा क्ष्मया वृधान ओजसा विनाशयन् । ज्योतींषि कृण्वन्नवृकाणि यज्यवेऽव सुक्रतुः सर्तवा अपः सृजत् ॥६॥ वे यश की इच्छा वाले, उत्तमकर्मा इन्द्रदेव अपने तेजस्वी बलों से शत्रुओं के घरों को नष्ट करते हुए वृद्धि को प्राप्त हुए, सूर्यादि नक्षत्रों के प्रकाश को रोकने वाले आवरणों को दूर किया और याजक के लिए जलों के प्रवाह को खोल दिया ॥६॥ दानाय मनः सोमपावन्नस्तु तेऽर्वाञ्चा हरी वन्दनश्रुदा कृधि । यमिष्ठासः सारथयो य इन्द्र ते न त्वा केता आ दभ्नुवन्ति भूर्णयः ॥७॥ हे इन्द्रदेव ! आप अपने दोनों हाथों में अक्षय धन को धारण करते हैं । आपके शरीर में प्रचण्ड बल स्थापित है। स्तुति करने वालों ने आप के शरीरों को बढ़ाया है। मनुष्यों से घिरे कुएँ के समान आपके शरीर प्रसिद्ध कर्मों से घिरे हुए हैं॥८॥ अप्रक्षितं वसु बिभर्षि हस्तयोरषाळ्हं सहस्तन्वि श्रुतो दधे । आवृतासोऽवतासो न कर्तृभिस्तनूषु ते क्रतव इन्द्र भूरयः ॥८॥ सोमपान करने वाले हे इन्द्रदेव! आपका मन दान के लिये प्रवृत्त हो । आप हमारी स्तुतियाँ सुनते हैं। अपने अश्वों को हमारे यज्ञ की और अभिमुख करें। हे इन्द्रदेव! आपके ये सारथी नियंत्रण में पूर्ण कुशल हैं, जिससे ये प्रबल अवरोधों से भी विचलित नहीं होते ॥७॥

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