ऋग्वेद तृतीय मण्डलं सूक्त ४५

ऋग्वेद - तृतीय मंडल सूक्त ४५ ऋषि - गाथिनो विश्वामित्रः । देवता - इन्द्रः । छंद - बृहती आ मन्द्रैरिन्द्र हरिभिर्याहि मयूररोमभिः । मा त्वा के चिन्नि यमन्विं न पाशिनोऽति धन्वेव ताँ इहि ॥१॥ जैसे यात्री रेगिस्तान को शीघ्र ही (बिना रुके) पार कर जाते हैं, उसी प्रकार है इन्द्रदेव ! आनन्ददायक मोर पंखों के समान शैम युक्त घोड़ों (सात रंग युक्त सुन्दर किरणों के साथ मार्ग की रुकावटों को हटाते हुये आप आएँ । जाल फैलाने वाले आपको पथ में रुकावट पैदा न कर सके ॥१॥ वृत्रखादो वलंरुजः पुरां दर्मो अपामजः । स्थाता रथस्य हर्योरभिस्वर इन्द्रो दृव्हा चिदारुजः ॥२॥ वे इन्द्रदेव वृत्रासुर का हनन करने वाले, राक्षसों के बल को विदीर्ण करने वाले, उनके नगरों को ध्वंस करने वाले, जल वृष्टि करने वाले घोड़ों से सज्जित रथ में विराजमान होकर शत्रुओं को पराजित करने वाले हैं॥२॥ गम्भीराँ उदधींरिव क्रतुं पुष्यसि गा इव । प्र सुगोपा यवसं धेनवो यथा हृदं कुल्या इवाशत ॥३॥ हे इन्द्रदेव ! गम्भीर समुद्र को जल धाराओं में पुष्ट करने के समान आप याज्ञिक को इष्ट फल देकर पुष्ट करते हैं। जिस प्रकार उत्तम गोपालक अपनी गौओ को श्रेष्ठ पौष्टिक आहार देकर पुष्ट करता है, जैसे गौएँ घास खाती हैं, नदियाँ समुद्र में मिलती है, उसी प्रकार सोम को धाराएँ आपको पुष्ट करती हैं॥३॥ आ नस्तुजं रयिं भरांशं न प्रतिजानते । वृक्षं पक्कं फलमङ्गङ्कीव धूनुहीन्द्र सम्पारणं वसु ॥४॥ ॐ इन्द्रदेव जिस प्रकार पिता अपने ज्ञान सम्पन्न पुत्र को धन का भाग देता है, उसी प्रकार आप मुझे शत्रुओं को पराभूत करने वाला ऐश्वर्य प्रदान करें। जिस प्रकार मनुष्य अंकुश (लग्गी) द्वारा पके फल वाले वृक्ष को हिलाकर फल पाता हैं, उसी प्रकार आप हमें अभीप्सित धन प्रदान करें ॥४॥ स्वयुरिन्द्र स्वराळसि स्मद्दिष्टिः स्वयशस्तरः । स वावृधान ओजसा पुरुष्टुत भवा नः सुश्रवस्तमः ॥५॥ हे इन्द्रदेव ! आप धनवान् हैं। आप स्वयम तेज से युक्त हैं, सर्व नियन्ता और प्रभूत यश वाले हैं। हे बहुतों द्वारा स्तुत इन्द्रदेव ! आप बल से विकसित होकर हमारे निमित्त विपुल अन्न वाले हों ॥५॥

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