ऋग्वेद प्रथम मण्डल सूक्त २०

ऋग्वेद - प्रथम मंडल सूक्त २० ऋषि - मेधातिथिः काण्व देवता - अग्निर्मरुतश्च । छंद- गायत्री अयं देवाय जन्मने स्तोमो विप्रेभिरासया । अकारि रत्नधातमः ॥१॥ ऋभुदेवों के निमित्त ज्ञानियों ने अपने मुख से इन रमणीय स्तोत्रों की रचना की तथा उनका पाठ किया ॥१॥ य इन्द्राय वचोयुजा ततक्षुर्मनसा हरी । शमीभिर्यज्ञमाशत ॥२॥ जिन ऋभुदेवों ने अतिकुशलतापूर्वक इन्द्रदेव के लिए वचन मात्र से नियोजित होकर चलने वाले अश्वों की रचना की, वे शमी आदि (यज्ञ पात्र अथवा पाप शमन करने वाले देवों) के साथ यज्ञ में सुशोभित होते हैं॥२॥ तक्षन्नासत्याभ्यां परिज्मानं सुखं रथम् । तक्षन्धेनुं सबर्दुघाम् ॥३॥ उन ऋभुदेवों ने अश्विनीकुमारों के लिए अति सुखप्रद, सर्वत्र गमनशील रथ का निर्माण किया और गौओं को उत्तम दूध देने वालीं बनाया ॥३॥ युवाना पितरा पुनः सत्यमन्त्रा ऋजूयवः । ऋभवो विष्ट्यक्रत ॥४॥ अमोघ मन्त्र सामर्थ्य से युक्त, सर्वत्र व्याप्त रहने वाले ऋभुदेवों ने माता-पिता में स्नेहभाव संचरित कर उन्हें पुनः जवान बनाया ॥४॥ सं वो मदासो अग्मतेन्द्रेण च मरुत्वता । आदित्येभिश्च राजभिः ॥५॥ हे ऋभुदेवो ! यह हर्षप्रद सोमरस इन्द्रदेव, मरुतों और दीप्तिमान् आदित्यों के साथ आपको अर्पित किया जाता है॥५॥ उत त्यं चमसं नवं त्वष्टुर्देवस्य निष्कृतम् । अकर्त चतुरः पुनः ॥६॥ त्वष्टादेव के द्वारा एक ही चमस तैयार किया गया था, ऋभुदेवों ने उसे चार प्रकार का बनाकर प्रयुक्त किया ॥६॥ ते नो रत्नानि धत्तन त्रिरा साप्तानि सुन्वते । एकमेकं सुशस्तिभिः ॥७॥ वे उत्तम स्तुतियों से प्रशंसित होने वाले ऋभुदेव ! सोमयाग करने वाले प्रत्येक याजक को तीनों कोटि के सप्तरलों अर्थात् इक्कीस प्रकार के रलों (विशिष्ट यज्ञ कर्मों) को प्रदान करें। (यज्ञ के तीन विभाग हैं- हविर्यज्ञ, पाकयज्ञ एवं सोमयज्ञ । तीनों के सात-सात प्रकार हैं। इस प्रकार यज्ञ के इक्कीस प्रकार कहे गये हैं) ॥७॥ अधारयन्त वह्नयोऽभजन्त सुकृत्यया । भागं देवेषु यज्ञियम् ॥८॥ तेजस्वी ऋभुदेवों ने अपने उत्तम कर्मों से देवों के स्थान पर अधिष्ठित होकर यज्ञ के भाग को धारण कर उसका सेवन किया ॥८॥

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