ऋग्वेद चतुर्थ मण्डलं सूक्त ४९

ऋग्वेद-चतुर्थ मंडल सूक्त ४९ ऋषि - वामदेवो गौतमः देवता - इन्द्र बृहस्पति। छंद-गायत्री इदं वामास्ये हविः प्रियमिन्द्राबृहस्पती । उक्थं मदश्च शस्यते ॥१॥ हे इन्द्र और बृहस्पतिदेवो! यह स्नेह युक्त आहुतियाँ हम आपके मुख (यज्ञाग्नि) में समर्पित करते हैं। आप दोनों को हम स्तोत्र तथा हर्षप्रदायक सोमरस प्रदान करते हैं ॥१॥ अयं वां परि षिच्यते सोम इन्द्राबृहस्पती । चारुर्मदाय पीतये ॥२॥ हे इन्द्र और बृहस्पतिदेवो! आपके हर्ष के लिए तथा सोमरस पान के लिए यह मनोहर सोमरस अभिषुत किया जाता है ॥२॥ आ न इन्द्राबृहस्पती गृहमिन्द्रश्च गच्छतम् । सोमपा सोमपीतये ॥३॥ हे सोमपान करने वाले इन्द्र तथा बृहस्पतिदेवो ! सोमरस पान के निमित्त आप तथा इन्द्रदेव हमारे घर में पधारें ॥३॥ अस्मे इन्द्राबृहस्पती रयिं धत्तं शतग्विनम् । अश्वावन्तं सहस्रिणम् ॥४॥ हे इन्द्र और बृहस्पतिदेवो! आप हमें सैकड़ों गौओं तथा हजारों अश्वों से सम्पन्न ऐश्वर्य प्रदान करें ॥४॥ इन्द्राबृहस्पती वयं सुते गीर्भिर्हवामहे । अस्य सोमस्य पीतये ॥५॥ हे इन्द्र और बृहस्पतिदेवो! सोमरस के निचोड़े जाने पर हम सोमरस के निमित्त प्रार्थनाओं द्वारा आपको आवाहित करते हैं ॥५॥ सोममिन्द्राबृहस्पती पिबतं दाशुषो गृहे । मादयेथां तदोकसा ॥६॥ हे इन्द्र और बृहस्पतिदेवो! आप दोनों हवि प्रदाता यजमान के गृह में सोमपान करें तथा उसके गृह में वास करके हर्षित हों ॥६॥

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