ऋग्वेद पंचम मण्डलं सूक्त ५०

ऋग्वेद-पंचम मंडल सूक्त ५० ऋषिः स्वस्त्यात्रेयः देवता - विश्वेदेवा । छंद - अनुष्टुप, ५ पंक्ति विश्वो देवस्य नेतुर्मर्ती वुरीत सख्यम् । विश्वो राय इषुध्यति द्युम्नं वृणीत पुष्यसे ॥१॥ सभी मनुष्य सर्वप्रेरक सवितादेव की मित्रता का वरण करते हैं। वे मनुष्य अपने पोषण के लिए दीप्तिमान् धनों को प्राप्त करते हैं और ऐश्वर्यं के अधिपति होते हैं ॥१॥ ते ते देव नेतर्ये चेमाँ अनुशसे । ते राया ते ह्यापृचे सचेमहि सचथ्यैः ॥२॥ हे अग्रणी देव ! जो मनुष्य आपकी और अन्य देवों की उपासना करते हैं, वे सब आपके ही हैं। वे सब धनों से युक्त होकर पूर्णकाम हों ॥२॥ अतो न आ नृनतिथीनतः पत्नीर्दशस्यत । आरे विश्वं पथेष्ठां द्विषो युयोतु यूयुविः ॥३॥ हे ऋत्विजो ! आप हमारे इस यज्ञ में अतिथि के समान पूज्य देवों की सेवा करें। उन देवों की पत्नियों की भी सेवा करें। वे विघ्नविनाशक सवितादेव हमारे सम्पूर्ण पथों के विघ्नों और शत्रुओं को दूर करें ॥३॥ यत्र वह्निरभिहितो दुद्रवद्रोण्यः पशुः । नृमणा वीरपस्त्योऽर्णा धीरेव सनिता ॥४॥ जहाँ अग्नि स्थापित होने के अनन्तर यूप योग्य पशु, यूप के निकट स्तुत्य होता है; वहाँ यजमान सवितादेव के अनुग्रह से उत्साहपूर्ण मन और पुत्र-पौत्रादि एवं भार्यायुक्त गृह प्राप्त करता है ॥४॥ एष ते देव नेता रथस्पतिः शं रयिः । शं राये शं स्वस्तय इषःस्तुतो मनामहे देवस्तुतो मनामहे ॥५॥ हे सर्वनियामक सवितादेव! आपका यह रथ ऐश्वर्य प्रदाता, सुखदाता और पालन करने वाला है। हम स्तोता सुखकर ऐश्वर्य और सुखकर कल्याण के लिए आपकी स्तुति करते हैं। देवों की स्तुतियों के साथ आपकी भी बारम्बार स्तुति करते हैं ॥५॥

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