Tripadvibhutipaha Narayana Upanishad Chapter 2 (त्रिपाद्विभूतिपहानारायणोपनिषत) द्वितीय अध्याय

॥ श्री हरि ॥ ॥ त्रिपाद्विभूतिपहानारायणोपनिषत् ॥ ॥ द्वितीयोऽध्यायः॥ ॥ द्वितीय अध्याय॥ अथति होवाच च्छात्र गुरं भगवन्तम् । भगवन्वेकुण्ठस्य नारायणस्य च नित्यत्वमुक्त्वम् । स एव तुरीयमित्युक्तमेव | वेकुण्ठः साकारो नारायणः साकारश्च । तुरीयं तु निराकारम् । साकारः सावयवो निरवयवं निराकारम् | तस्मात्साकारमनित्यं निव्यं निराकारमिति श्रुतेः । यद्यत्सावयवं तत्तदनित्यमित्यनुमानाच्चेति प्रत्यक्षेण दृष्टत्वाच्च । अतस्तयोरनित्यत्वमेव वक्तुमुचितं भवति । कथमुक्तं नित्यत्वमिति | तुरीयमक्षरमिति श्रुतेः । तुरीयस्य नित्यत्वं प्रसिद्धम् । नित्यत्वानित्यत्वे परस्परविरुद्धधर्मो | तयोरेकस्िन्ब्रह्मण्यत्यन्तविरुद्धं भवति । तस्माद्रिकुण्ठस्य च नारायणस्य च नित्यत्वमेव वक्तुमुचितं भवति । तब प्रथमाध्याय के उपदेशको सुनकर शिष्यने अपने भगवत्स्वरूप गुरुदेव से कहा-'भगवन् ! वेकुण्ठ एवं श्रीमन्नारायण को भी आपने नित्य बतलाया हे। वे ही (वेकुण्ठ एवं श्रीनारायण) तुरीय तत्त्व हैं, यह भी कहा ही हे। श्रीवेकुण्ठधाम साकार है ओर श्रीमन्नारायण भी साकार हैं; किंतु तुरीयतत्त्व निराकार हे। साकारतत्त्व अवयवयुक्त होता है और निराकार अवयवरहित। अतः श्रुति यह कहती है कि साकार अनित्य होता है और निराकार नित्य होता है। जो-जो (पदार्थ) अवयववाले हैं, वे सब अनित्य हैं--अनुमान-प्रमाणसे यही सिद्ध होता है। तथा प्रत्यक्ष भी देखा जाता है। अतः उन दोनों (वैकुण्ठ एवं नारायण)-की अनित्यता बतलाना ही उचित है। आपने उनका नित्यत्व किस प्रकार बतलाया है? तुरीय तत्त्व अक्षर (अविनाशी) है- यह श्रुति कहती है; अतः तुरीय तत्त्व का नित्यत्व प्रसिद्ध है। नित्य एवं अनित्य-ये परस्परविरोधी धर्म हैं। इन दोनों विरोधी धर्मों का एक ही ब्रह्म में होना अत्यन्त विरोधी (असंगत) है। इसलिये श्री वैकुण्ठ धाम एवं श्रीमन्नारायण की भी अनित्यता ही बतलाना उचित है।' (शिष्य यह शङ्का करता है।)॥१॥ सत्यमेव भवतीति देशिकं परिहरति । साकारस्तु द्विविधः । सोपाधिको निरुपाधिकश्च । तत्र सोपाधिकः साकारः कथमिति । आविद्यकमखिलकार्यकरणजामविद्यापाद् एव नान्यत्र | तस्मातसमस्ताविद्योपाधिः साकारः सावयव एव । सावयवत्वादवश्यमनित्यं भवत्येव । सोपाधिकसाकारो वर्णितः । तर्हि निरुपाधिक साकारः कथमिति । निरुपाधिकसाकारस्तिविधः । ब्रह्मविद्यासाकारश्चानन्दसाकारुभयात्मकसाकारश्चेति । ब्रह्मविद्यासाकारश्रानन्दसाकार उशभयात्कसाकारश्चेति | त्रिविधसाकारोऽपि पुनरद्विविधौ भवति । नित्यसाकारो मुक्तसाका शरेति । नित्यसाकारस्त्वाद्यन्तशून्यः शाश्वतः । उपासनया ये मुक्तिं गतास्तेषां साकारो मुक्तसाकारः । तस्याखण्डज्ञानेनाविर्भावो भवति । सोऽपि शाश्वतः । मुक्तसाकारस््वैच्छिक इति । अन्ये वदन्ति शाश्वतत्वं कथमिति । गुरु शङ्काका निवारण करते हुए कहते हैं- तुम जो कहते हो, वह ठीक ही है; किंतु साकार तत्त्व दो प्रकार का होता है-उपाधि सहित तथा उपाधिरहित । इनमें उपाधि सहित साकार किस प्रकार का है? अविद्यासे उत्पन्न समस्त कार्य एवं कारण अविद्यापाद में ही हैं और कहीं नहीं। इसलिये समस्त अविद्योपाधि से युक्त साकार तत्त्व अवयव युक्त ही है। अवयव युक्त होने से वह अवश्य अनित्य होंगे ही। इस प्रकार उपाधि युक्त साकार का वर्णन हो चुका।“ तब उपाधिहीन साकार किस प्रकार का है? निरुपाधिक साकार तीन प्रकार का है-ब्रह्मविद्या साकार, आनन्द साकार तथा उभयात्मक-ां ब्रह्मविद्यानन्दात्मक साकार। यह त्रिविध साकार भी फिर दो प्रकार का होता है-नित्यसाकार ओर मुक्तसाकार। नित्यसाकार तो आदि अन्त हीन सनातन शाश्वत है। जो उपासना द्वारा मुक्तिपद को प्राप्त हुए हैं, उनको साकार देह-मुक्त साकार है। उस मुक्त पुरुष के आकार का आविर्भाव अखण्ड ज्ञान से होता है। अर्थात् भगवत धाम में स्थित मुक्तात्माओं का शरीर ज्ञानघन है। वह मुक्तात्माओं का साकार शरीर भी शाश्वत होता है; परंतु वह मुक्तसाकार एेच्छिक इच्छाधीन होता है। दूसरे कहते हैं ऐसी स्थिति में उसका नित्यत्व कैसे होगा ? इस पर कहते हैँ-॥२-७॥ उद्विताखण्डपरिपूर्णनिरतिशयपरमानन्दशुद्धबुद्धमुक्तसत्यात्मकब्रह्म चैतन्यसाकारत्वात् निरुपाधिकसाकारस्य नित्यत्वं सिद्धमेव । तस्मादेव निरुपाधिकसाकारस्य निरवयवत्वास्स्वाधिकमपि दूरतो निरस्तमेव । निरवयवं ब्रह्मचेतन्यमिति सर्वोपनिषत्सु सर्वशास्तसिद्धान्तेषु श्रूयते । अथ च विद्यानन्दतुरीयाणामभेद एव श्रूयते । सर्वत्र विद्यादिसाकारभेदः कथमिति । सत्यमेवोक्तमिति देशिकः परिहरति । विद्याप्राधान्येन विद्यासाकारः आनन्दप्राधान्येनानन्दसाकारः उभयप्राधान्येनोभयात्मकसाकारक्षेति। प्राधान्येनात्र भद एव । स भदो वस्तुतस्त्वभेद एव । द्वित, अखण्ड, परिपूर्ण, निरतिशय परमानन्दरूप, शुद्ध, ज्ञानस्वरूप, मुक्त, सत्यस्वरूप ब्रह्म की चैतन्यरूप साकारता होने से उपाधिहीन साकार का नित्यत्व सिद्ध ही हे। इसीलिये निरुपाधिक साकार के निरवयव होने के कारण उससे कोई अधिक महान होगा, ऐसी शङ्का दूर से ही निवृत्त हो जाती है। सभी उपनिषदों में, समस्त शास्तसिद्धान्तों में (ब्रह्म निरवयव चैतन्य है' यही सुना जाता हे। और विद्या, आनन्द तथा तुरीय का सर्वत्र अभेद ही सुना जाता है।” तब, विद्या आदि साकार का भेद किस प्रकार है?" शिष्य की इस शङ्का का समाधान करते हुए गुरु कहते ह" तुमने सत्य कहा हे - विद्या की प्रधानता से विद्यासाकार, आनन्द की प्रधानता से आनन्दसाकार तथा (विद्या, आनन्द) दोनों की प्रधानतासे उभयात्मक साकार कहे जाते हैं। यहाँ प्रधानता को लेकर ही भेद हे, वह भेद वस्तुतः अभेद ही है ॥ ८-१०॥ भगवन्नरखण्डाद्रेतपरमानन्दलक्षणपरब्रह्मणः साकारनिराकारौ विरुद्धधर्मौ । विरुद्धोभयात्मकत्वं कथमिति । सत्यमेवेति गुरुः परिहरति । यथा सर्वगतस्य निराकारस्य महावायोश्च तदात्मकस्य त्वक्पतित्वेन प्रसिद्धस्य साकारस्य महावायुदेवस्य चाभद एव श्रूयते सर्वत्र | यथा पृथीव्यादीनां व्यापकशरीराणां देवविशेषणां च तद्विलक्षणतदभिन्नव्यापका परिच्छिन्ना निजमूर्त्याकारदेवताः श्रूयन्ते सर्वत्र तद्वत्परब्रह्मणः सर्वात्मकस्य साकारनिराकारभेदविरोधी नास्त्येव विविधविचित्रानन्तशक्तेः परब्रह्मणः स्वरूपज्ञानेनविरोधी न विद्यते । तदभावे सत्यनन्तविरोधी भवति । भगवन् ! अखण्ड अद्वित परमानन्दस्वरूप ब्रह्म के लिये साकार ओर निराकार-ये दो विरोधी धर्म प्रतीत होते हैं। दो विरोधी धर्म उनमें किस प्रकार रह सकते हँ? इस शंका का निवारण करते हुए गुरु कहते हैं। यह ठीक है। जैसे सर्वव्यापी निराकार महावायु का और उसी के स्वरूपभूत त्वकृ-इद्दरिय के अधिष्ठाता रूप में प्रसिद्ध साकार महावायुदेवता का अभेद ही सभी जगह सुना जाता हे, जैसे पृथिवी आदि व्यापक शरीर वाले देव विशेषो के उनके उस व्यापक रूप से विलक्षण किंतु उस (व्यापकरूप)-से अभिन्न, तथा अपरिच्छिन्न होते हुए भी अपनी मूर्ति के आकार के देवता सर्वत्र सुने जाते हैं-अर्थात्जे जेसे पृथिवी आदि के अधिष्ठाता देवता अपने पृथिवीरूपी भौतिक शरीर एवं देवशरीर दोनों से युक्त है, वैसे ही सर्वात्मक परब्रह्म में साकार एवं निराकार का भेद होनेपर भी विरोध नहीं है। विविध प्रकार की अनन्त विचित्र शक्तियों से सम्पन्न परब्रह्मके स्वरूप का ज्ञान हो जाने पर विरोध नहीं रह जाता अर्थात् जब जान लिया जाता है कि परब्रह्म मेँ विविध प्रकार की अनन्त विचित्र शक्तियाँ हैं, तब विरोधी धर्मों का विरोध असङ्गत नहीं लगता। इस ज्ञान के अभाव में ही अनन्त विरोध प्रतीत होते हैं ॥ ११-१२ ॥ अथ च रामकृष्णाद्यवतारेष्वद्रेतपरमानन्दलरक्षणपरब्रह्मणः परमतत्वपरमविभवानुसन्धानं स्वीयत्वेन श्रूयते सर्वत्र । सर्वपरिपूर्णस्याद्वैतपरमानन्दलक्षणपरब्रह्मणस्तु किं वक्तव्यम् । अन्यथा सर्वपरिपूर्णस्य परब्रह्मणः परमार्थतः साकारं विना केवल निराकारत्वं यद्यभिमतं तर्हिं केवलनिराकारस्यगगनस्येव परब्रह्मणोऽपि जडत्वमापद्येत । तस्मात्परब्रह्मणः परमार्थतः साकारनिराकारौ स्वभावसिद्धौ । और जब श्रीराम-श्रीकृष्णादि अवतार स्वरूपो में द्वित परमानन्दस्वरूप परब्रह्म के परमतत्त्व एवं परमैश्वर्यं की स्मृति सर्वत्र स्वाभाविक रूप से ही विद्यमान सुनी जाती है, तब द्वित परमानन्दस्वरूप, सब प्रकार से परिपूर्ण परब्रह्म के विषय में क्या कहा जाय। अन्यथा यदि सर्वपरिपूर्णं परब्रह्म का साकाररहित केवल निराकार स्वरूप ही वास्तव में अभिप्रेत हो, तब तो केवल निराकार आकाश के समान परब्रह्म मेँ भी जडता आ जायगी। इसलिये परमार्थतः परब्रह्म के साकार एवं निराकार दोनों रूप स्वभावतः सिद्ध हैं ॥ १३ ॥ तथाविधस्याद्वैतपरमानन्दलक्षणस्यादिनारायणस्योन्मेषनिमेषाभ्यां मूलाविद्योदयस्थितिलया जायन्ते । कदाचिदात्मारामस्याखिलपरिपूर्णस्यादिनारायणस्य स्वेच्छानुसारेणोन्येषो भवति । अव्यक्तान्मूलाविभवि मूलाविद्याविर्भावश्व | तस्मादेव सच्छब्दवाच्यं ब्रह्माविद्या शबलं भवति। ततो महत् । महतोऽहद्कारः । अहङ्कारात्पञ्चतन्यात्राणि । पञ्चतन्मात्रेभ्यः पञ्चमहाभूतानि। पञ्चमहाभूतेभ्यो ब्रह्मीकपादव्याप्तमेकमविद्याण्डं जायते | इस प्रकार के उद्वित परमानन्दस्वरूप आदिनारायण के पलक उठाने और गिराने से मूल-अविद्या की उत्पत्ति, स्थिति एवं लय हुआ करते हैं। आत्माराम, अखिल परिपूर्ण आदिनारायण की अपनी इच्छा से जब कभी उनका उन्मेष होता है (पलक उठते हैं), तब उस (उन्मेष)-से परब्रह्मके निचले पाद में, जो सब (अभिव्यक्तियों)-का कारण है, मूलकारणरूप अव्यक्त (प्रकृति)-का आविर्भाव होता है। अव्यक्त से मूल (संस्कार)-का एवं मूल-अविद्या का आविर्भाव होता है। उसी (अव्यक्त)-से 'सत' शब्द से वाच्य अविद्या मिश्रित ब्रह्म (जीव) व्यक्त होता है। उस (अव्यक्त-प्रकृति)-से महत्तत्त्व, महत् से अहंकार, अहंकार से (शब्दादि) पाँचों तन्मात्राएँ, पाँचों तन्मात्राओं से (आकाशादि) पञ्चमहाभूत और पाँचों महाभूतों से ब्रह्म के एक पाद से व्याप्त एक अविद्यात्मक अण्ड उत्पन्न होता है ॥ १४॥ तत्र तत्वतो गुणातीतशुद्धसत्वमयो लीलागृहीतनिरतिशयानन्दलक्षणो मायोपाधिको नारायण आसीत् । स एव नित्यपरिपूर्णः पादविभूतिवेकुण्ठनारायणः । स चानन्तकोलिब्रह्माण्डानामुदयस्थितिलयाद्यखिलकार्यकारणजाल- परमकारणकारणभूतो महामायातीतस्तुरीयः परमेश्वरो जयति । तस्मास्स्थूलविराटस्वरूपो जायते ।ससर्वकारणमूलं विराट्स्वरूपो भवति । स चानन्तशीर्षा पुरुष अनन्ताक्षिपाणिपादो भवति । अनन्तश्रवणः सर्वमावृत्य तिष्ठति । सर्वव्यापको भवति | सगुणनिर्गुणस्वरूपो भवति । ज्ञानबलैश्रर्यशक्तितेजःस्वरूपो भवति। विविधविचित्रानन्तजगदाकारो भवति । निरतिशयनिरङ्कुशसर्वज्ञसर्वशक्तिसर्वनियन्तृत्वाद्यनन्तकल्याणगु णाकारो भवति । वाचामगोचरानन्तदिव्यतेजोराश्याकारोभवति । समस्ताविद्याण्डव्यापको भवति । स चानन्तमहामायाविलासानामधिष्ानविशेष- निरतिशयद्वैतपरमानन्दल निरतिशयाद्वेतपरमानन्दलक्षणपरतब्रह्मविलासविग्रहो भवति । उस (अविद्याण्ड)-में तत्वतः गुणातीत, शुद्ध सत्वमय तथा लीला (क्रीड़ा)-के लिये निरतिशय आनन्दरूप धारण किये मायोपाधियुक्त नारायण होते हैं। तात्पर्य यह कि अविद्याण्ड गुणातीत शुद्ध सत्ततमय नारायण का ही लीला के लिये धारण किया हुआ निरतिशय आनन्दरूप मायोपाधिक स्वरूप ही है। ये वही नित्य परिपूर्ण पादविभूतिस्वरूप वैकुण्ठवासी नारायण हैं। वे अनन्तकोटि ब्रह्माण्डों की उत्पत्ति, स्थिति, प्रलयादि समस्त कार्य एवं कारणसमूहों के (प्रकृतिरूप) परम कारण के भी कारणरूप महामायातीत तुरीयस्वरूप परमेश्वर विराजित हैं। उनसे स्थूल विराटस्वरूप उत्पन्न होता है। वही विरास्वरूप समस्त कारणोंका मूल है। वह (विराट) अनन्त मस्तकों तथा अनन्त नेत्रों, हाथों और पैरों से युक्त पुरुष है।्व वह अनन्त कानोंवाला सबको घेरकर (व्याप्त करके) स्थित है। वह सर्वव्यापक है। वह सगुण एवं निर्गुणस्वरूप है। वह ज्ञान, बल, ऐश्वर्य, शक्ति तथा तेज:स्वरूप है। नाना प्रकारके अनन्त विचित्र जगत्के आकार में वही स्थित हे। वही निरतिशय आनन्दमय अनन्त परमविभूति के समुदाय से सम्पन्न विश्वरूप परमात्मा है। वह निरतिशय निरङ्कुशता (परमस्वतन्तता) सर्वज्ञता, सर्वशक्तिमत्ता सर्वनियन्तृत्व आदि अनन्त कल्याणकारी गुणों का आकर है। वह अवर्णनीय अनन्त दिव्य तेजोराशि के रूप में स्थित है। वह अविद्या के पूरे अण्ड में व्यापक है। वह महामाया के अनन्त विलासं का अधिष्ठान विशेष एवं निरतिशय ऽद्रित परमानन्दस्वरूप परब्रह्म का विलास विग्रह है"॥१५॥ अस्यैकेकरोमकृपान्तरेष्वनन्तकोटिब्रह्माण्डानि स्थावराणि च जायन्ते। तेष्वण्डेषु सर्वष्वेकेकनारायणावतारो जायते | नारायणाद्धिरण्यगर्भजायते । नारायणादण्डविराटस्वरूपो जायते । नारायणादखिललोकसखष्ट्प्रजापतयो जायन्ते । नारायणादेकादशरुद्राश्च जायन्ते । नारायणादखिललोकाश्च जायन्ते । नारायणादिन्द्रो जायते । नारायणात्सर्वेदेवाश्च जायन्ते ।नारायणाहूवादशादित्याः सर्वे वसवः सर्वे ऋषयः सर्वाणि भूतानि सर्वाणि छन्दांसि नारायणादेव समुत्पद्यन्ते । नारायणात्प्रवर्तन्ते । नारायणे प्रलीयन्ते | अथ नित्योऽक्षरः परमः स्वराट् । ब्रह्मा नारायणः । शिवश्च नारायणः । शक्रश्च नारायणः | दिशश्च नारायणः । विदिशश्च नारायणः । कालश्च नारायणः । कर्माखिलं च नारायणः । मूर्तामूर्त नारायणः । कारणात्मकं सर्व कार्यात्मकं सकलं नारायणः । तदुभयविलक्षणो नारायणः । परंज्योतिः स्वप्रकाशमयो ब्रह्मानन्दमयो नित्यो निर्विकल्पो निरञ्जनो निराख्यातः शुद्धो देव एको नारायणो न द्वितीयोऽस्ति कश्चित् । नस समानाधिक इत्यसंशयं परमार्थतो य एवं वेद । सकलबन्धांस्छित्त्वा मृत्युं तीर्त्वा स मुक्तो भवति स मुक्तो "वति । य एवं विदित्वा सदा तमुपास्ते पुरुषः स नारायणो भवति स नारायणो भवतीत्युपनिषत् ॥ 'इस (विराट् -पुरुष)-के एक-एक रोमकृप-ढिद्र में अनन्तकोटि ब्रह्माण्ड और (उनके) स्थावर भी उत्पन्न होते हैं। उन सब अण्डों में से प्रत्येक में नारायण का एक एक अवतार होता है। उन्हीं नारायण से हिरण्यगर्भ (ब्रह्मा) उत्पन्न होते हैं। नारायण से ही उस अण्डका विराटस्वरूप उत्पन्न होता है, नारायण से ही सब लोकँ के स्रष्टा प्रजापति उत्पन्न होते हैं। नारायण से ही एकादश रुद्र भी उत्पन्न होते हैं। नारायण से ही अखिल लोक उत्पन्न होते हैं। नारायण से इन्द्र उत्पन्न होते हैं। नारायण से समस्त देवता उत्पन्न होते हैं। नारायण से बारह आदित्य उत्पन्न होते हैं। सब (आठों) वसुनामक देवता, सभी ऋषि, सम्पूर्ण प्राणी तथा समस्त छन्द नारायणसे ही उत्पन्न होते हैं। नारायण से ही प्रवृत्त होते (क्रियाशील बनते) हैं। नारायण में ही सब लीन हो जाते । हैं। अतः यह ही नित्य, अविनाशी, सर्वश्रेष्ठ एवं स्वयंप्रकाश हैं। नारायण ही ब्रह्मा हैं। नारायण ही शिव हैं। नारायण ही इन्द्र हैं। नारायण ही दिशाएँ हैं। नारायण ही विदिशारूप (कोण) हैं। नारायण ही काल हैं। नारायण ही समस्त कर्म हैं। नारायण ही मूर्त एवं अमूर्तरूप हैं। नारायण ही समस्त कारणरूप तथा सम्पूर्ण कार्यस्वरूप हैं। इन दोनों कारण तथा कार्य से विलक्षण भी नारायण ही हैं। परमज्योति, स्वयंप्रकाशमय, ब्रह्मानन्दमय, नित्य, निर्विकल्प, निरञ्जन, अवर्णनीय, शुद्ध एकमात्र देवता नारायण ही हैं; दूसरा कोई नहीं है। न वह किसी के समान हैं और न किसी से अधिक हैं, उनके सिवा कोई दूसरा है ही नहीं। संशयरहित होकर परमार्थतः जो इस प्रकार जानता है, वह सम्पूर्ण बन्धनोंको छेदन करके, मृत्युको पार करके मुक्त हो जाता है, मुक्त हो जाता है। जो इस प्रकार जानकर सर्वदा उन (श्रीनारायण)-की उपासना करता है, वह पुरुष नाराषणस्वरूप हो जाता है, वह नारायणस्वरूप हो जाता है ॥ ९६॥ ॥ इति द्वितीयोऽध्यायः ॥ द्वितीय अध्याय समाप्त ॥

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