Tejobindu Upanishad Chapter 5 (तेजोबिन्दु उपनिषद पंचम अध्यायः पाँचवाँ अध्याय)

॥ श्री हरि ॥ ॥ तेजोबिन्दु उपनिषद ॥ पंचम अध्यायः पाँचवाँ अध्याय निदाघो नाम वै मुनिः पप्रच्छ ऋभुं भगवन्तमात्मानात्मविवेकमनुब्रूहीति । निदाघ नाम के मुनि ने ऋभु से पूछा-हे भगवन्! आत्मा अनात्मा का विवेक कहिए। स होवाच ऋभुः । ऋभु बोले : सर्ववाचोऽवधिर्ब्रह्म सर्वचिन्तावधिर्गुरुः । सर्वकारणकार्यात्मा कार्यकारणवर्जितः ॥ १॥ ब्रह्म समस्त वाणियों की अवधि है, गुरु समस्त चिन्ताओं की अवधि है। आत्मा सब का कारण और कार्य है परन्तु स्वयं कारण से रहित है ॥१॥ सर्वसङ्कल्परहितः सर्वनादमयः शिवः । सर्ववर्जितचिन्मात्रः सर्वानन्दमयः परः ॥ २॥ वह समस्त संकल्पों से रहित, सर्वनादमय शिव है, सर्व से रहित चिन्मात्र है, सर्व आनन्दमय है, पर है ॥२॥ सर्वतेजःप्रकाशात्मा नादानन्दमयात्मकः । सर्वानुभवनिर्मुक्तः सर्वध्यानविवर्जितः ॥ ३॥ सर्व तेजरूप प्रकाशरूप है, नाद आनन्दमय आत्मा है, सब अनुभवों से मुक्त, सर्व ध्यान से रहित है ॥३॥ सर्वनादकलातीत एष आत्माहमव्ययः । आत्मानात्मविवेकादिभेदाभेदविवर्जितः ॥ ४॥ सब नाद कलाओं से रहित (अतीत) अव्यय और आत्मा अनात्मा विवेकादि भेद अभेद से रहित ऐसा यह आत्मा मैं हूँ ॥४॥ शान्ताशान्तादिहीनात्मा नादान्तज्र्योतिरूपकः । महावाक्यार्थतो दूरो ब्रह्मास्मीत्यतिदूरतः ॥ ५॥ शान्त अशान्त से रहित जो नाद का अंतज्र्योति रूप है, जो महावाक्य के अर्थ अथ से अति दूर है। 'ब्रह्मास्मि' से अति दूर है ॥५॥ तच्छब्दवर्ण्यस्त्वंशब्दहीनो वाक्यार्थवर्जितः । क्षराक्षरविहीनो यो नादान्तज्र्योतिरेव सः ॥ ६॥ तत् शब्द से रहित, त्वं शब्द से रहित तथा वाक्य के अर्थ से रहित है, जो घर-अक्षर से रहित है, वह ही नाद का अंतर्योति है ॥६॥ अखण्डैकरसो वाहमानन्दोऽस्मीति वर्जितः । सर्वातीतस्वभावात्मा नादान्तज्योतिरेव सः ॥ ७॥ अखण्ड एकरस अथवा मैं आनन्द हूँ, इससे रहित सबसे अतीत स्वभाव वाला वही नाद का अंतर्ज्याति है ॥७॥ आत्मेति शब्दहीनो य आत्मशब्दार्थवर्जितः । सच्चिदानन्दहीनो य एषैवात्मा सनातनः ॥ ८॥ आत्मशब्द से रहित तथा जो आत्मा के शब्दार्थ से रहित है तथा जो सच्चिदानन्द से रहित है ऐसा ही यह सनातन आत्मा है ॥८॥ स निर्देष्टुमशक्यो यो वेदवाक्यैरगम्यतः । यस्य किञ्चिद्वहिर्नास्ति किञ्चिदन्तः कियन्न च ॥ ९ ॥ इसका कथन करना अशक्य है जो वेद वाक्यों से अगम्य है, जिससे बाहर कुछ नहीं है, भीतर कुछ नहीं है और न कुछ अन्य है ॥९॥ यस्य लिङ्गं प्रपञ्चं वा ब्रह्मवात्मा न संशयः । नास्ति यस्य शरीरं वा जीवो वा भूतभौतिकः ॥ १०॥ जिसका कार्य और कारण ब्रह्म ही है ऐसा आत्मा ही है, इसमें संशय नहीं है। जिसका शरीर नहीं। अथवा जीव नहीं है तथा भूत-भौतिक नहीं है ॥१०॥ नामरूपादिकं नास्ति भोज्यं वा भोगभुक्च वा । सद्वाऽसद्वा स्थितिर्वापि यस्य नास्ति क्षराक्षरम् ॥ ११॥ जिसका नाम रूप भोज्य भोग अथवा भोक्ता नहीं है जो सत् असत् नहीं है अथवा जिसकी स्थिति भी नहीं है, जो क्षरातर नहीं है ॥११॥ गुणं वा विगुणं वापि सम आत्मा न संशयः । यस्य वाच्यं वाचकं वा श्रवणं मननं च वा ॥ १२ ॥ जो गुणी अथवा गुण रहित भी नहीं है, वह सम आत्मा ही है, इसमें संशय नहीं है। जिसका वाच्य-वाचक अथवा श्रवण व मनन नहीं है ॥१२॥ गुरुशिष्यादिभेदं वा देवलोकाः सुरासुराः । यत्र धर्ममधर्म वा शुद्धं वाशुद्धमण्वपि ॥ १३॥ अथवा जिसमें गुरु-शिष्यादि भेद, देवलोक सुर असुर अथवा धर्म- अधर्म अथवा शुद्ध-अशुद्ध किंचित भी नहीं है ॥१३॥ यत्र कालमकालं वा निश्चयः संशयो न हि । यत्र मन्त्रममन्त्रं वा विद्याविद्ये न विद्यते ॥ १४॥ जिसमें काल-अकाल निश्चय या संशय नहीं है, जिसमें मन्त्र-अमन्त्र अथवा विद्या-अविद्या नहीं है ॥१४॥ द्रष्टृदर्शनदृश्यं वा ईषन्मात्रं कलात्मकम् । अनात्मेति प्रसङ्गो वा ह्यनात्मेति मनोऽपि वा ॥ १५॥ जिसमें द्रष्टा दर्शन दृश्य किंचित सा नाम मात्र भी हो तो अनात्मत्व का प्रसंग आता है अथवा अनात्म मन ॥१५॥ अनात्मेति जगद्वापि नास्ति नास्ति निश्चिनु । सर्वसङ्कल्पशून्यत्वात्सर्वकार्यविवर्जनात् ॥ १६॥ अथवा अनात्म जगत् भी जहां नहीं है, कभी भी नहीं है, इस प्रकार का निश्चय करके। वह सर्व-संकल्पशून्य होने से सर्व कार्य राहत होने से ॥१६॥ केवलं ब्रह्ममात्रत्वान्नास्त्यनात्मेति निश्चिनु ।ा देहत्रयविहीनत्वात्कालत्रयविवर्जनात् ॥ १७॥ केवल ब्रह्ममात्र होने से अनात्मा नहीं है, ऐसा निश्चय कर, तीनों देह रहित होने से, तीनों काल रहित होने से ॥१७॥ जीवत्रयगुणाभावात्तापत्रयविवर्जनात् । लोकत्रयविहीनत्वात्सर्वमात्मेति शासनात् ॥ १८॥ जीव के तीनों गुणों के अभाव से, तीनों ताप से रहित होने से, तीनों लोक से रहित होने से, इस प्रकार के उपदेश से यह अनात्म नहीं है, ऐसा निश्चय कर ॥१८॥ चित्ताभाच्चिन्तनीयं देहाभावाज्जरा न च । पादाभावाद्गतिर्नास्ति हस्ताभावात्क्रिया न च ॥ १९ ॥ उसके चित्त के अभाव से चिंतन करने योग्य है और देह के अभाव से बुढ़ापा नहीं है, पैरों के अभाव से उसकी गति नहीं है, हाथ के अभाव से क्रिया नहीं है ॥१९॥ मृत्युर्नास्ति जनाभावाद्बुद्ध्यभावात्सुखादिकम् । धर्मों नास्ति शुचिर्नास्ति सत्यं नास्ति भयं न च ॥ २०॥ जीव के प्राण अभाव से मृत्यु नहीं है, बुद्धि के अभाव से सुखादिक नहीं है, धर्म नहीं है, पवित्र नहीं है, सत्य नहीं है, भय नहीं है ॥२०॥ अक्षरोच्चारणं नास्ति गुरुशिष्यादि नास्त्यपि । एकाभावे द्वितीयं न न द्वितीये न चैकता ॥ २१॥ उस आत्मा के लिए अक्षरों का उच्चारण नहीं है, गुरु शिष्यादि भी नहीं है, एक के अभाव से दूसरा नहीं है, दूसरे के प्रभाव से एकता नहीं है ॥२१॥ सत्यत्वमस्ति चेत्किञ्चिदसत्यं न च सम्भवेत् । असत्यत्वं यदि भवेत्सत्यत्वं न घटिष्यति ॥ २२॥ सत्यता है तो किंचित् असत्य संभव नहीं है और यदि असत्यता है भी तो सत्यता नहीं घटती ॥२२॥ शुभं यद्यशुभं विद्धि अशुभाच्छुभमिष्यते । भयं यद्यभवं विद्धि अभयाद्भयमापतेत् ॥ २३॥ यदि शुभ है तो अशुभ से शुभ कहा जाता है, यदि भय है तो अभय जान, अभय से भय प्राप्त होता है ॥२३॥ बन्धत्वमपि चेन्मोक्षो बन्धाभावे व मोक्षता । मरणं यदि चेज्जन्म जन्माभावे मृतिर्न च ॥ २४॥ बन्ध है तो मोक्ष है, बन्ध के अभाव में मोक्षता नहीं है। यदि मरण है तो जन्म है, जन्म के अभाव से मरण नहीं है ॥२४॥ त्वमित्यपि भवेच्चाहं त्वं नो चेदहमेव न । इदं यदि तदेवास्ति तदभादिदं न च ॥ २५॥ यदि तुम हो तो मैं हूँ, तुम नहीं तो मैं भी नहीं हूँ। यह है तो वह है, वह के अभाव से यह नहीं है ॥२५॥ अस्तीति चेन्नास्ति तदा नास्ति चेदस्ति किञ्चन । कार्यं चेत्कारणं किञ्चित्कार्याभावे न कारणम् ॥ २६॥ यदि है भी है तो नहीं है, नहीं है तो किंचित् है। कार्य है तो कुछ कारण भी है, कार्य के प्रभाव से कारण नहीं है ॥२६॥ द्वैतं यदि तदाऽद्वैतं द्वैताभावे द्वयं न च । दृश्यं यदि दृगप्यस्ति दृश्याभावे दृगेन न ॥ २७॥ द्वैत है तो अद्वैत है, द्वैत के अभाव से दोनों नहीं हैं। यदि दृश्य है तो द्रष्टा भी है, दृश्य के अभाव से द्रष्टा भी नहीं है ॥२७॥ अन्तर्यदि बहिः सत्यमन्ता भावे बहिर्न च । पूर्णत्वमस्ति चेत्किञ्चिदपूर्णत्वं प्रसज्यते ॥ २८॥ यदि भीतर है तो बाहर भी है, भीतर के प्रभाव से बाहर नहीं है। पूर्णता है तो कुछ अपूर्णता उत्पन्न करती है ॥२८॥ तस्मादेतत्क्वचिन्नास्ति त्वं चाहं वा इमे इदम् । नास्ति दृष्टान्तिकं सत्ये नास्ति दाष्टन्तिकं ह्यजे ॥ २९॥ इसलिए यह तुम, वह मैं, यह ऐसा कहीं नहीं है, सत्य में दृष्टान्त नहीं है, अज में दृष्टान्त नहीं है ॥२९॥ परम्ब्रह्माहमस्मीति स्मरणस्य मनो न हि । ब्रह्ममात्रं जगदिदं ब्रह्ममात्रं त्वमप्यहम् ॥ ३०॥ परब्रह्म मैं हूँ, इस प्रकार स्मरण करने वाला मन नहीं है। यह जगत् ब्रह्ममात्र है, मैं और तुम भी ब्रह्ममात्र हैं ॥३०॥ चिन्मात्रं केवलं चाहं नास्त्यनात्म्येति निश्चिनु । इदं प्रपञ्चं नास्त्येव नोत्पन्नं नो स्थितं क्वचित् ॥ ३१॥ मैं केवल चिन्मात्र हूँ, अनात्मा नहीं हूँ। इस प्रकार निश्चय कर। यह प्रपञ्च है ही नहीं, न कहीं उत्पन्न हुआ है न कहीं स्थित है ॥३१॥ चित्तं प्रपञ्चमित्याहुर्नास्ति नास्त्येव सर्वदा । न प्रपञ्चं न चित्तादि नाहङ्कारो न जीवकः ॥ ३२॥ चित्त को प्रपञ्च कहते हैं वह सर्वदा नहीं है, न प्रपञ्च है, न चित्तादि है, न अहंकार है न जीव है ॥३२॥ मायाकार्यादिकं नास्ति माया नास्ति भयं नहि । कर्ता नास्ति क्रिया नास्ति श्रवणं मननं नहि ॥ ३३॥ माया के कार्यादिक नहीं हैं, माया नहीं है और भय नहीं है, कर्ता नहीं है, क्रिया नहीं है, श्रवण मनन भी नहीं है ॥३३॥ समाधिद्वितयं नास्ति मातृमानादि नास्ति हि । अज्ञानं चापि नास्त्येव ह्यविवेकं कदाचन ॥ ३४॥ दो प्रकार की समाधि सम्प्रज्ञात और असम्प्रज्ञात नहीं है, प्रमाण आदि भी नहीं है। अज्ञान भी नहीं है, अविवेक भी नहीं है ॥३४॥ अनुबन्धचतुष्कं न सम्बन्धत्रयमेव न । न गङ्गा न गया सेतुर्न भूतं नान्यदस्ति हि ॥ ३५॥ चारों अनुबन्ध अर्थात अधिकारी, विषय, प्रयोजन, संबंध और तीन संबंध भी नहीं हैं। न गङ्गा, न गया, न सेतु सेतुबन्ध रामेश्वर है, न भूत है, न अन्य ही है ॥३५ ॥ न भूमिर्न जलं नाग्निर्न न वायुर्न च खं क्वचित् । न देवा न च दिक्पाला न वेदा न गुरुः क्वचित् ॥ ३६॥ न कहीं भूमि है, न जल है, न अग्नि है, न वायु है, न आकाश है, न देवता है, न दिक्पाल है, न बंद है: न गुरु है ॥ ३६॥ न दूरं नास्तिकं नालं न मध्यं न क्वचित्स्थितम् । नाद्वैतं द्वैतसत्यं वा ह्यसत्यं वा इदं न च ॥ ३७॥ न दूर है, न पास है, न कहीं अन्त है, न मध्य है, न कहीं स्थित है, न द्वैत है, न अद्वैत है, न सत्य है, न असत्य है, न यह है ॥३७॥ बन्धमोक्षादिकं नास्ति सद्वाऽसद्वा सुखादि वा । जातिर्नास्ति गतिर्नास्ति वर्णों नास्ति न लौकिकम् ॥ ३८॥ बन्ध और मोक्षादिक नहीं है, सत् या असत् या सुखादि या जाति नहीं है, गति नहीं है, वर्ण नहीं है, न लौकिक है ॥३८॥ सर्वं ब्रह्मेति नास्त्येव ब्रह्म इत्यपि नास्ति हि । चिदित्येवेति नास्त्येव चिदहम्भाषणं न हि ॥ ३९॥ सब ब्रह्म ही है। ब्रह्म नहीं है, इस प्रकार भी नहीं है, न चित् है और नहीं भी है, मैं चित् हूँ, जहां इस प्रकार भी नहीं कहा जाता ॥३६॥ अहं ब्रह्मास्मि नास्त्येव नित्यशुद्धोऽस्मि न क्वचित् । वाचा यदुच्यते किञ्चिन्मनसा मनुते क्वचित् ॥ ४०॥ मैं ब्रह्म हूँ, ऐसा नहीं है या मैं नित्य शुद्ध हूँ, यह नहीं है। वाणी से कहा हुआ या मन से माना हुआ कुछ भी नहीं है ॥४०॥ बुद्धया निश्चिनुते नास्ति चित्तेन ज्ञायते नहि । योगी योगादिकं नास्ति सदा सर्वं सदा न च ॥ ४१ ॥ बुद्धि से निश्चय किया हुआ वह नहीं है, चित्त से जाना हुआ नहीं है। योगी का योगादि नहीं है, सदा सब सदा नहीं है ॥४१॥ अहोरात्रादिकं नास्ति स्नानध्यानादिकं नहि । भ्रान्तिरभ्रान्तिर्नास्त्येव नास्त्यनात्मेति निश्चिनु ॥ ४२॥ वह दिन-रात्रि आदि नहीं है, स्नान ध्यान आदि भी नहीं है, भ्रान्ति नहीं है, अनात्मा नहीं है, ऐसा निश्चय कर ॥४२॥ वेदशास्त्रं पुराणं च कार्य कारणमीश्वरः । लोको भूतं जनस्त्वैक्यं सर्वं मिथ्या न संशयः ॥ ४३॥ वेद, शास्त्र, पुराण, कार्य, कारण, ईश्वर, लोक, भूत, प्रजा, एकता सब मिथ्या है, इसमें संशय नहीं है ॥४३॥ बन्धो मोक्षः सुखं दुःखं ध्यानं चित्तं सुरासुराः । गौणं मुख्यं परं चान्यत्सर्वं मिथ्या न संशयः ॥ ४४॥ बन्ध-मोक्ष, सुख-दुःख, ध्यान-चित्त, सुर असुर, गौण-मुख्य, पर और अन्य सब मिथ्या है, इसमें संशय नहीं है ॥४४॥ वाचा वदति यत्किञ्चित्सङ्कल्पैः कल्प्यते च यत् । मनसा चिन्त्यते यद्यत्सर्वं मिथ्या न संशयः ॥ ४५॥ वाणी जो कुछ कहती है, संकल्पों से जो कुछ कल्पित किया जाता है, मन से जो चिन्तन किया जाता है सब मिथ्या है इसमें संशय नहीं है ॥४५॥ बुद्धया निश्चीयते किञ्चिच्चित्ते निश्चीयते क्वचित् । शास्त्रैः प्रपञ्यते यद्यन्नेत्रेणैव निरीक्ष्यते ॥ ४६॥ जो कुछ बुद्धि से निश्चय किया जाता है, चित्त से जो कुछ निश्चय किया जाता है, शास्त्र से जो रचा जाता है। नेत्रों से जो देखा जाता है ॥४६॥ श्रोत्राभ्यां श्रूयते यद्यदन्यत्सद्भावमेव च । नेत्रं श्रोत्रं गात्रमेव मिथ्येति च सुनिश्चितम् ॥ ४७॥ कानों से जो सुना जाता है, जो अन्य सद्भाव है तथा नेत्र, श्रवण और शरीर यह सभी मिथ्या हैं। यह अच्छी प्रकार से निश्चय किया जाता है ॥४७॥ इदमित्येव निर्दिष्टमयमित्येव कल्प्यते । त्वमहं तदिदं सोऽहमन्यत्सद्भावमेव च ॥ ४८॥ यह इस प्रकार ही कहा गया है, यह इस प्रकार ही कल्पित किया गया है। तुम, मैं, वह, यह, वह और अन्य सद्भाव ॥४८॥ यद्यत्सम्भाव्यते लोके सर्वसङ्कल्पसम्भ्रमः । सर्वाध्यासं सर्वगोप्यं सर्वभोगप्रभेदकम् ॥ ४९॥ जो कुछ लोक में प्रतीत होता है, सब संकल्प और भ्रम है, सब आभास है, सब गोप्य है, सब भोगों का भेद है ॥४९॥ सर्वदोषप्रभेदाच्च नास्त्यनात्मेति निश्चिनु । मदीयं च त्वदीयं च ममेति च तवेति च ॥ ५०॥ सब दोषों के भेद से है, अनात्मा नहीं है, ऐसा निश्चय कर, मुझ और तुम में, मेरा और तेरा ॥५०॥ मह्यं तुभ्यं मयेत्यादि तत्सर्वं वितथं भवेत् । रक्षको विष्णुरित्यादि ब्रह्मा सृष्टेस्तु कारणम् ॥ ५१॥ मेरे लिए, तेरे लिये, मुझ से इत्यादि यह सब मिथ्या है, रक्षक विष्णु है इत्यादि ब्रह्मा सृष्टि का कारण है ॥५१॥ संहारे रुद्र इत्येवं सर्वं मिथ्येति निश्चिनु । स्नानं जपस्तपो होमः स्वाध्यायो देवपूजनम् ॥ ५२॥ और संहार रुद्र करता है, यह सब मिथ्या है। ऐसा निश्चय कर स्नान, जप, होम स्वाध्याय, देवपूजन ॥५२॥ मन्त्रं तन्त्रं च सत्सङ्गो गुणदोषविजृम्भणम् । अन्तःकरणसद्भाव अविद्याश्च सम्भवः ॥ ५३॥ मन्त्र, तन्त्र, सत्संग, गुण-दोष बताना, अन्तः करण का सद्भाव, अविद्या का सम्भव ॥५३॥ अनेककोटिब्रह्माण्डं सर्वं मिथ्येति निश्विनु । सर्वदेशिकवाक्योक्तिर्येन केनापि निश्चितम् ॥ ५४॥ तथा अनेक कोटि ब्रह्माण्ड सब मिथ्या है, ऐसा निश्चय कर । सर्व उपदेशकों की वाणी का कथन जिस किसी का निश्चय किया हुआ ॥५४॥ दृश्यते जगति यद्यद्यद्यज्जगति वीक्ष्यते । वर्तते जगति यद्यत्सर्वं मिथ्येति निश्चिनु ॥ ५५॥ जो कुछ जगत् में दिखाई देता है, जो कुछ जगत् में देखा जाता है, जो कुछ जगत् में व्यवहार होता है, सब मिथ्या है। ऐसा निश्चय करके ॥५५॥ येन केनाक्षरेणोक्तं येन केन विनिश्चितम् । येन केनापि गदितं येन केनापि मोदितम् ॥ ५६॥ जिस किसी अक्षर करके कहा हुआ, जिस किसी से निश्चय किया हुआ, जिस किसी से कहा हुआ, जिस किसी से विचारा हुआ ॥५६॥ येन केनापि यद्दत्तं येन केनापि यत्कृतम् । यत्र यत्र शुभं कर्म यत्र यत्र च दुष्कृतम् ॥ ५७॥ जिस किसी से जो दिया गया, जिस किसी से जो किया गया, जहां जहां शुभ कर्म है, जहां जहां अशुभ कर्म है॥५७॥ यद्यत्करोषि सत्येन सर्वं मिथ्येति निश्चिनु । त्वमेव परमात्मासि त्वमेव परमो गुरुः ॥ ५८ ॥ जो जो तुम करते हो सचमुच सब मिथ्या है, ऐसा निश्चय करके तुम ही परमात्मा हो, तुम ही परमगुरु हो ॥५८॥ त्वमेवाकाशरूपोऽसि साक्षिहीनोऽसि सर्वदा । त्वमेव सर्वभावोऽसि त्वं ब्रह्मासि न संशयः ॥ ५९॥ तुम ही आकाशरूप हो, तुम ही सदैव साक्षी रहित आकाश स्वरूप हो, तुम ही सर्वभाव हो, तुम ब्रह्म संशय नहीं हो ॥५९॥ कालहीनोऽसि कालोऽसि सदा ब्रह्मासि चिद्धनः । सर्वतः स्वस्वरूपोऽसि चैतन्यघनवानसि ॥ ६०॥ तुम कालरहित हो, काल हो, सदा चैतन्य परब्रह्म हो, सर्व प्रकार से तुम अपना ही स्वरूप है, तुम चैतन्यधन-स्वरूप हो ॥६०॥ सत्योऽसि सिद्धोऽसि सनातनोऽसि मुक्तोऽसि मोक्षोऽसि मुदामृतोऽसि । देवोऽसि शान्तोऽसि निरामयोऽसि ब्रह्मासि पूर्णोऽसि परात्परोऽसि ॥ ६१॥ तुम सत्य हो, तुम सिद्ध हो, तुम सनातन हो, तुम मुक्त हो, तुम मोक्ष हो, तुम आनन्द अमृत हो, तुम देव हो, तुम शान्त हो, तुम निरामय हो, तुम ब्रह्म हो, तुम पूर्ण हो, तुम पर से पर हो ॥ ६१॥ समोऽसि सच्चापि सनातनोऽसि सत्यादिवाक्यैः प्रतिबोधितोऽसि । सर्वाङ्गहीनोऽसि सदा स्थितोऽसि ब्रह्मेन्द्ररुद्रादिविभावितोऽसि ॥ ६२॥ तुम सम हो, तुम सत्य हो, तुम सनातन हो, सत्य आदि वाक्य से जाना जाते हो, तुम सब अङ्गों से रहित हो, तुम सदा स्थित हो, तुम ब्रह्मा, इन्द्र, रुद्र आदि विशेष भाव वाले हो ॥६२॥ सर्वप्रपञ्चभ्रमवर्जितोऽसि सर्वेषु भूतेषु च भासितोऽसि । सर्वत्र सङ्कल्पविवर्जितोऽसि सर्वागमान्तार्थविभावितोऽसि ॥ ६३॥ तुम सर्व प्रपञ्च भ्रम से रहित हो, तुम सब भूतों में प्रकाशमान हो, तुम सर्वज्ञ संकल्प से रहित हो, तुम सर्व वेदान्तों के अर्थ से प्रकाशित हो ॥६३॥ सर्वत्र सन्तोषसुखासनोऽसि सर्वत्र गत्यादिविवर्जितोऽसि । सर्वत्र लक्ष्यादिविवर्जितोऽसि ध्यातोऽसि विष्ण्वादिसुरैरजस्रम् ॥ ६४॥ हे स्वामी कार्तिकय ! सर्वत्र सन्तोष वाले तुम सुख से बैठा हुए, सर्वत्र गति आदि से तुम रहित हो, सर्वत्र लक्ष्यादि से तुम रहित हो, तुम्हारा ही सर्वदा विष्णु आदि देवताओं द्वारा ध्यान किया जाता है ॥६४॥ चिदाकारस्वरूपोऽसि चिन्मात्रोऽसि निरङ्‌कुशः । आत्मन्येव स्थितोऽसि त्वं सर्वशून्योऽसि निर्गुणः ॥ ६५॥ तुम चैतन्याकार स्वरूप, तुम अंकुश रहित हो, तुम चिन्मात्र हो, तुम आत्मा में ही स्थित हो, तुम निर्गुण सब से शून्य हो ॥६५॥ आनन्दोऽसि परोऽसि त्वमेक एवाद्वितीयकः । चिद्घनानन्दरूपोऽसि परिपूर्णस्वरूपकः ॥ ६६॥ तुम आनन्द हो, तुम पर हो, तुम एक ही अद्वितीय' स्वरूप हो, तुम चैतन्यधन आनन्दस्वरूप हो, तुम परिपूर्ण स्वरूप वाले हो ॥६६॥ सदसि त्वमसि ज्ञोऽसि सोऽसि जानासि वीक्षसि । सच्चिदानन्दरूपोऽसि वासुदेवोऽसि वै प्रभुः ॥ ६७॥ तुम सत्य हो, तुम तुम हो, तुम ज्ञाता हो, तुम वह हो, तुम जानता हो, तुम देखते हो, तुम सच्चिदानन्दरूप हो, तुम निश्चय प्रभु वासुदेव हो ॥६७॥ अमृतोऽसि विभुश्चासि चञ्चलो ह्यचलो ह्यसि । सर्वोऽसि सर्वहीनोऽसि शान्ताशान्तविवर्जितः ॥ ६८॥ तुम अमृत हो, तुम विभु हो, तुम चञ्चल हो और अचल हो, तुम सर्व हो, तुम सर्वरहित हो, तुम शान्त हो, तुम अशान्त से रहित हो ॥६८॥ सत्तामात्रप्रकाशोऽसि सत्तासामान्यको ह्यसि । नित्यसिद्धिस्वरूपोऽसि सर्वसिद्धिविवर्जितः ॥ ६९॥ तुम सत्तामात्र प्रकाश हो, तुम ही सामान्य सत्ता हो, तुम नित्य सिद्ध स्वरूप हो, तुम समस्त सिद्धियों से रहित हो ॥६९॥ ईषन्मात्रविशून्योऽसि अणुमात्रविवर्जितः । अस्तित्ववर्जितोऽसि त्वं नास्तित्वादिविवर्जितः ॥ ७०॥ तुम किंचिन्मात्र विशेष शून्य हो, तुम अणुमात्र से रहित हो, तुम उत्पत्ति से रहित हो, तुम उत्पत्ति नहीं होने आदि से रहित हो ॥७०॥ लक्ष्यलक्षणहीनोऽसि निर्विकारो निरामयः । सर्वनादान्तरोऽसि त्वं कलाकाष्ठाविवर्जितः ॥ ७१॥ तुम लक्ष्य और लक्षण से रहित हो, तुम निर्विकार निरामय हो, तुम सब नादों के भीतर हो, तुम कला काष्ठा से रहित हो ॥७१॥ ब्रह्मविष्ण्वीशहीनोऽसि स्वस्वरूपं प्रपश्यसि । स्वस्वरूपावशेषोऽसि स्वानन्दाब्धौ निमज्जसि ॥ ७२॥ तुम ब्रह्मा, विष्णु और ईश्वर से रहित हो, तुम अपने स्वरूप को देखते हो, तुम अपने स्वरूप का शेष हो, तुम अपने आनन्द-समुद्र में मग्न हो ॥७२॥ स्वात्मराज्ये स्वमेवासि स्वयम्भावविवर्जितः । शिष्टपूर्णस्वरूपोऽसि स्वस्मात्किञ्चिन्न पश्यसि ॥ ७३॥ अपने आत्मराज्य में तुम स्वयं ही हो, तुम स्वयं भाव से रहित हो, तुम श्रेष्ठ पूर्णस्वरूप हो, तुम स्वयं कुछ भी नहीं देखते ॥७३॥ स्वस्वरूपान्न चलसि स्वस्वरूपेण जृम्भसि । स्वस्वरूपादनन्योऽसि ह्यहमेवासि निश्चिनु ॥ ७४॥ हे स्वामी कार्तिकय ! तुम अपने स्वरूप से नहीं चलते, तुम अपने स्वरूप से फैले हुए हो, तुम अपने स्वरूप से अन्य नहीं हो, निश्चय करके मैं ही तुम हो ॥७४॥ इदं प्रपञ्चं यत्किञ्चिद्यद्यज्जगति विद्यते । दृश्यरूपं च दृग्रूपं सर्वं शशविषाणवत् ॥ ७५॥ जो कुछ यह प्रपञ्च है, जो जो जगत् में विद्यमान है, दृश्यरूप दृष्टिरूप है, सब शशे के सींग के समान है ॥७५॥ भूमिरापोऽनलो वायुः खं मनो बुद्धिरेव च । अहङ्कारश्च तेजश्च लोकं भुवनमण्डलम् ॥ ७६॥ भूमि, जल, अग्नि, वायु, मन और बुद्धि, अहंकार, तेज, लोक, भुवन, मण्डल ॥७६॥ नाशो जन्म च सत्यं च पुण्यपापजयादिकम् । रागः कामः क्रोधलोभौ ध्यानं ध्येयं गुणं परम् ॥ ७७॥ नाश, जन्म, सत्य, पुण्य, पाप, जय पराजय आदि राग, काम क्रोध, लोभ, ध्यान, श्रेष्ठ ध्येय तथा गुण ॥७७॥ गुरुशिष्योपदेशादिरादिरन्तं शमं शुभम् । भूतं भव्यं वर्तमानं लक्ष्यं लक्षणमद्वयम् ॥ ७८ ॥ गुरु-शिष्य, उपदेश आदि, आदि-अन्त, सम शुभ, भूत, भविष्यत, वर्तमान, लक्ष्य, लक्षण, अद्वय ॥७८॥ शमो विचारः सन्तोषो भोक्तृभोज्यादिरूपकम् । यमाद्यष्टाङ्गयोगं च गमनागमनात्मकम् ॥ ७९॥ शम, विचार, सन्तोष, भोक्ता, भोग आदि रूप यमादि अष्टांग योग, जाना और आना ॥७९॥ आदिमध्यान्तरङ्गं च ग्राह्यं त्याज्यं हरिः शिवः । इन्द्रियाणि मनश्चैव अवस्थात्रितयं तथा ॥ ८०॥ आदि, मध्य और अन्तरङ्ग प्राय और त्याज्य हरि, शिव, इन्द्रियां और मन तथा तीनों अवस्थाएं ॥८०॥ चतुर्विंशतितत्त्वं च साधनानां चतुष्टयम् । सजातीयं विजातीयं लोका भूरादयः क्रमात् ॥ ८१॥ चौबीस तत्त्व और चार साधन सजातीय विजातीय क्रम से भू आदि लोक ॥८१॥ सर्ववर्णाश्रमाचारं मन्त्रतन्त्रादिसङ्ग्रहम् । विद्याविद्यादिरूपं च सर्ववेदं जडाजडम् ॥ ८२॥ सर्व वर्णाश्रम का आचार, मन्त्र तन्त्र आदियों का संग्रह, विद्या- अविद्या, सर्व वेद, जड़-अजड़ ॥८२ ॥ बन्धमोक्षविभागं च ज्ञानविज्ञानरूपकम् । बोधाबोधस्वरूपं वा द्वैताद्वैतादिभाषणम् ॥ ८३॥ बन्ध-मोक्ष का विभाग, ज्ञान-विज्ञान का स्वरूप अथवा बोध अबोध का स्वरूप, द्वैत-अद्वैत का कथन ॥८३॥ सर्ववेदान्तसिद्धान्तं सर्वशास्त्रार्थनिर्णयम् । अनेकजीवसद्भावमेकजीवादिनिर्णयम् ॥ ८४॥ सब वेदान्त का सिद्धान्त, सब शाखाओं का निर्णय, अनेक जीवों का सद्भाव, तथा एक जीव आदि का निर्णय ॥८४॥ यद्यद्ध्यायति चित्तेन यद्यत्सङ्कल्पते क्वचित् । बुद्ध्या निश्चीयते यद्यद्‌गुरुणा संशृणोति यत् ॥ ८५॥ जो जो चित्त से ध्यान किया जाता है, जो जो संकल्प किया जाता है, जो कुछ भी बुद्धि से निश्चय किया जाता है, जो कुछ भी गुरु से सुना जाता है ॥८५॥ यद्यद्वाचा व्याकरोति यद्यदाचार्यभाषणम् । यद्यत्स्वरेन्द्रियैर्भाव्यं यद्यन्मीमांसते पृथक् ॥ ८६॥ जो जो वाणी कहती है, जो जो आचार्य का कथन है, जो जो इद्रियों से प्रतीत होता है, जो जो पृथक् विचारा जाता है। ॥८६॥ यद्यन्यायेन निर्णीतं महद्भिर्वेदपारगैः । शिवः क्षरति लोकान्वै विष्णुः पाति जगत्त्रयम् ॥ ८७॥ जो कुछ महान् वेद के पारदर्शियों से न्याय द्वारा निश्चय किया गया है, शिव लोकों का संहार करता है, विष्णु तीन जगत् को पालता है ॥८७॥ ब्रह्मा सृजति लोकान्वै एवमादिक्रियादिकम् । यद्यदस्ति पुराणेषु यद्यद्वेदेषु निर्णयम् ॥ ८८॥ ब्रह्मा लोकों को उत्पन्न करता है, इस प्रकार आदि की क्रिया आदि जो भी पुराणों में है, जो भी वेदों में निर्णय है ॥८८॥ सर्वोपनिषदां भावं सर्वं शशविषाणवत् । देहोऽहमिति सङ्कल्पं तदन्तःकरणं स्मृतम् ॥ ८९॥ समस्त उपनिषद् का भाव सब शंशे के सींगों के समान है। 'मैं देह हूँ' 'इस प्रकार का संकल्प अन्तःकरण का माना हुआ है। ॥८९॥ देहोऽहमिति सङ्कल्पो महत्संसार उच्यते । देहोऽहमिति सङ्कल्पस्तद्वन्धमिति चोच्यते ॥ ९०॥ 'मैं देह हूँ इस प्रकार का संकल्प महान् संसार कहलाता है। 'मैं देह हूँ' यह संकल्प ही बन्ध कहलाता है ॥९०॥ देहोऽहमिति सङ्कल्पस्तदुःखमिति चोच्यते । देहोऽहमिति यद्भानं तदेव नरकं स्मृतम् ॥ ९१॥ 'मैं देह हूँ' इस प्रकार का संकल्प दुःख कहलाता है। 'मैं देह हूँ' इस प्रकार जो भी आभास है उसको नरक समझे ॥९१॥ देहोऽहमिति सङ्कल्पो जगत्सर्वमितीर्यते । देहोऽहमिति सङ्कल्पो हृदयग्रन्थिरीरितिः ॥ ९२॥ 'मैं देह हूँ। इस प्रकार का संकल्प सब जगत् कहलाता है। 'मैं देह हूँ' इस प्रकार का संकल्प हृदय ग्रन्थि कहलाता है। ॥९२॥ देहोऽहमिति यज्ज्ञानं तदेवाज्ञानमुच्यते । देहोऽहमिति यज्ज्ञानं तदसद्भावमेव च ॥ ९३॥ मैं 'देह हूँ' इस प्रकार का ज्ञान अज्ञान कहलाता है। 'मैं देह हूँ। इस प्रकार का ज्ञान ही असत्य भावना है। ॥९३॥ देहोऽहमिति या बुद्धिः सा चाविद्येति भण्यते । देहोऽहमिति यज्ज्ञानं तदेव द्वैतमुच्यते ॥ ९४॥ हे स्वामी कार्तिकय! 'मैं देह हूँ" इस प्रकार की बुद्धि अविद्या कहलाती है। 'मैं देह हूँ। इस प्रकार का ज्ञान ही द्वैत कहलाता है ॥९४॥ देहोऽहमिति सङ्कल्पः सत्यजीवः स एव हि । देहोऽहमिति यज्ज्ञानं परिच्छिन्नमितीरितम् ॥ ९५॥ 'मैं देह हूँ' इस प्रकार का संकल्प ही सञ्चा जीव है। 'मैं देह हूँ' इस प्रकार का ज्ञान ही परिच्छिन्न कहा गया है ॥९५॥ देहोऽहमिति सङ्कल्पो महापापमिति स्फुटम् । देहोऽहमिति या बुद्धिस्तृष्णा दोषामयः किल ॥ ९६॥ 'मैं देह हूँ' इस प्रकार का संकल्प प्रत्यक्ष महा पाप है। 'मैं देह हूँ इस प्रकार की बुद्धि ही प्रसिद्ध तृष्णा दोषरूप रोग है ॥९६॥ यत्किञ्चिदपि सङ्कल्पस्तापत्रयमितीरितम् । कामं क्रोधं बन्धनं सर्वदुःखं विश्वं दोषं कालनानास्वरूपम् । यत्किञ्चेदं सर्वसङ्कल्पजालं तत्किञ्चेदं मानसं सोम विद्धि ॥ ९७॥ जो कुछ भी संकल्प है वह तीनों ताप कहा गया है। काम, क्रोध, बन्धन है, सर्व दुःख है, सब दोषरूप है, काल करके नाना स्वरूप धारण करते हैं। यह जो कुछ है सब संकल्प का जाल है! हे सोम्य! ऐसे इस किंचित् को मन का विचार जानो ॥९७॥ मन एव जगत्सर्वं मन एव महारिपुः । मन एव हि संसारो मन एव जगत्त्रयम् ॥ ९८ ॥ मन ही समस्त जगत् है, मन ही महा शत्रु है, मन ही संसार है, मन ही तीनों जगत् है ॥९८॥ मन एव महदुःखं मन एव जरादिकम् । मन एव हि कालश्च मन एव मलं तथा ॥ ९९॥ मन ही महा दुःख है, मन ही बुढ़ापा आदि है, मन ही काल है और मन ही मल है ॥९९॥ मन एव हि सङ्कल्पो मन एव हि जीवकः । मन एव हि चित्तं च मनोऽहङ्कार एव च ॥ १००॥ मन ही संकल्प है मन ही जीव है, मन ही चित्त है, मन ही अहंकार है ॥१००॥ मन एव महद्बन्धं मनोऽन्तःकरणं च तत् । मन एव हि भूमिश्च मन एव हि तोयकम् ॥ १०१॥ मन ही महा बन्ध है, मन ही अन्तःकरण है, मन ही पृथ्वी है, मन ही जल है ॥१०१॥ मन एव हि तेजश्च मन एव मरुन्महान् । मन एव हि चाकाशं मन एव हि शब्दकम् ॥ १०२॥ मन ही तेज है, मन ही महान् वायु है, मन ही आकाश है, मन ही शब्दरूप है ॥१०२॥ स्पर्श रूपं रसं गन्धं कोशाः पञ्च मनोभवाः । जाग्रत्स्वप्नसुषुप्त्यादि मनोमयरितीरितम् ॥ १०३॥ स्पर्श, रूप, रस, गन्ध, पांचों कोष मन से हुए हैं। जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति आदि मनोमय कहे जाते हैं ॥१०३॥ दिक्पाला वसवो रुद्रा आदित्याश्च मनोमयाः । दृश्यं जडं द्वन्द्वजातमज्ञानं मानसं स्मृतम् ॥ १०४॥ दिक्पाल, वसु, रुद्र आदित्य, मनोमय हैं, दृश्य, जड़, द्वन्द्व, जन्म, अज्ञान मन के समझे गए है ॥१०४॥ सङ्कल्पमेव यत्किञ्चित्तत्तन्नास्तीति निश्चिनु । नास्ति नास्ति जगत्सर्वं गुरुशिष्यादिकं नहीत्युपनिषत् ॥ १०५॥ जो कुछ संकल्प है वह नहीं है, ऐसा निश्चय कर सब जगत् नहीं है, नहीं है, गुरु-शिष्यादिक भी नहीं हैं, यह सिद्धान्त है निदाय ॥१०५॥ इति पञ्चमोऽध्यायः ॥ ५॥

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