ऋग्वेद तृतीय मण्डलं सूक्त ५२

ऋग्वेद - तृतीय मंडल सूक्त ५२ ऋषि - गाथिनो विश्वामित्रः । देवता - इन्द्रः । छंद - त्रिष्टुप, १-४ गायत्री, ६ जगती धानावन्तं करम्भिणमपूपवन्तमुक्थिनम् । इन्द्र प्रातर्जुषस्व नः ॥१॥ हे इन्द्रदेव ! हम दही और सत्तू से मिश्रित पकाये हुए पुरोड़ाश की हवि को मन्त्रोच्चार के साथ समर्पित करते हैं, आप प्रातः इसे स्वीकार करें ॥१॥ पुरोळाशं पचत्यं जुषस्वेन्द्रा गुरस्व च । तुभ्यं हव्यानि सिस्रते ॥२॥ हे इन्द्रदेव ! भली प्रकार पाये गये इस पुरोडाश का सेवन करें। इसके सेवन के लिए पुरुषार्थ करें। यह हब्य रूप पुरोटाश आपके लिए समर्पित है॥२॥ पुरोळाशं च नो घसो जोषयासे गिरश्च नः । वधूयुरिव योषणाम् ॥३॥ हे इन्द्रदेव ! हमारे द्वारा प्रदत्त पुरोड़ाश का भक्षण करें। हमारी इन स्तुतियों का आप वैसे ही सेवन करें (स्वीकारें), जैसे पुरुष अपनी अर्धांगिनी पत्नी को स्वीकार करता हैं॥३॥ पुरोळाशं सनश्रुत प्रातःसावे जुषस्व नः । इन्द्र क्रतुर्हि ते बृहन् ॥४॥ हे प्रख्यान इन्द्रदेव ! प्रातः सवन में हमारे द्वारा प्रदत्त पुरोडाश का सेवन करें, जिससे आपके कर्म महान् हो ॥४॥ माध्यंदिनस्य सवनस्य धानाः पुरोळाशमिन्द्र कृष्वेह चारुम् । प्र यत्स्तोता जरिता तूर्ण्यर्थो वृषायमाण उप गीर्भिरीट्टे ॥५॥ हे इन्द्रदेव ! माध्यन्दिन सवन के समय हमारे द्वारा प्रदत्त भुने हुए जवादि धान्य और स्वाहुत हुए पुरोडाश का भक्षण करें। हे मेधावान् इन्द्रदेव ! आप ऋभुओं के साथ धन-धान्यों से सम्पन्न हैं। हम स्तुनि करते हुए आपके लिए हविष्यान्न समर्पित करते हैं॥५॥ तृतीये धानाः सवने पुरुष्टुत पुरोळाशमाहुतं मामहस्व नः । ऋभुमन्तं वाजवन्तं त्वा कवे प्रयस्वन्त उप शिक्षेम धीतिभिः ॥६॥ हे इन्द्रदेव ! आपकी स्तुति बहुतों द्वारा की गई हैं। आप तीसरे मन में हमारे भुने हुए जनादि पुडाश का सेवन करें। आप धुओं, धन और पुत्रों से युक्त हैं। हवियों से युक्त लोगों से हम आपकी पूजा करते हैं॥६॥ पूषण्वते ते चकृमा करम्भं हरिवते हर्यश्वाय धानाः । अपूपमद्धि सगणो मरुद्भिः सोमं पिब वृत्रहा शूर विद्वान् ॥७॥ हे इन्द्रदेव ! आप पोषणकारी, दुःखहारी और हर संज्ञक अश्वारोहीं हैं। आपके निमित्त हमने दही मिश्रित सत्तू और भुने जवादि धान्य तैयार किये हैं। मरुद्गणों के साथ आप इस पुरोडाश आदि का भक्षण करें और सोमस का पान कों ॥७॥ प्रति धाना भरत तूयमस्मै पुरोळाशं वीरतमाय नृणाम् । दिवेदिवे सदृशीरिन्द्र तुभ्यं वर्धन्तु त्वा सोमपेयाय धृष्णो ॥८॥ हे ऋत्विजों ! इन्द्रदेव के लिए शीघ्र ही भुने जवादि धान्य (खौल) और परोड़ाश विपुल परिमाण में हैं, क्योंकि वे मनुष्यों के नेतृत्वकर्ताओं में सर्वोपम वीर हैं। हे शत्रुओं के पराभवकर्ता इन्द्रदेव ! हम सब एकत्रित होकर आपके निमित्त प्रतिदिन स्तुतियों करते हैं; वे स्तुतियाँ आपको सोमपान के लिए प्रेरित करे ॥८॥

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