ऋग्वेद प्रथम मण्डल सूक्त १७

ऋग्वेद - प्रथम मंडल सूक्त १७ ऋषि - मेधातिथिः काण्व देवता- इन्द्र, वरुण छंद- गायत्री इन्द्रावरुणयोरहं सम्राजोरव आ वृणे । ता नो मृळात ईदृशे ॥१॥ हम इन्द्र और वरुण दोनों प्रतापी देवों से अपनी सुरक्षा की कामना करते हैं। वे दोनों हम पर इस प्रकार अनुकम्पा करें, जिससे कि हम सुखी रहें ॥१॥ गन्तारा हि स्थोऽवसे हवं विप्रस्य मावतः । धर्तारा चर्षणीनाम् ॥२॥ हे इन्द्र और वरुणदेवो! आप दोनों, मनुष्यों के सम्राट्, धारक एवं पोषक हैं। हम जैसे ब्राह्मणों के आवाहन पर सुरक्षा के लिए आप निश्चय ही आने को उद्यत रहते हैं॥२॥ अनुकामं तर्पयेथामिन्द्रावरुण राय आ । ता वां नेदिष्ठमीमहे ॥३॥ हे इन्द्र और वरुणदेवो ! हमारी कामनाओं के अनुरूप धन देकर हमें संतुष्ट करें। आप दोनों के समीप पहुँचकर हम प्रार्थना करते हैं॥३॥ युवाकु हि शचीनां युवाकु सुमतीनाम् । भूयाम वाजदानाम् ॥४॥ हमारे कर्म संगठित हों, हमारी सद्बुद्धियाँ संगठित हों, हम अग्रगण्य होकर दान करने वाले बनें ॥४॥ इन्द्रः सहस्रदाव्नां वरुणः शंस्यानाम् । क्रतुर्भवत्युक्थ्यः ॥५॥ इन्द्रदेव सहस्रों दाताओं में सर्वश्रेष्ठ और वरुणदेव सहस्रों प्रशंसनीय देवों में सर्वश्रेष्ठ हैं॥५॥ तयोरिदवसा वयं सनेम नि च धीमहि । स्यादुत प्ररेचनम् ॥६॥ आपके द्वारा सुरक्षित धन को प्राप्त कर हम उसका श्रेष्ठतम उपयोग करें। वह धन हमें विपुले मात्रा में प्राप्त हो ॥६॥ इन्द्रावरुण वामहं हुवे चित्राय राधसे । अस्मान्त्सु जिग्युषस्कृतम् ॥७॥ है इन्द्रावरुण देवो! विविध प्रकार के धन की कामना से हम आपका आवाहन करते हैं। आप हमें उत्तम विजय प्राप्त कराएँ ॥७॥ इन्द्रावरुण नू नु वां सिषासन्तीषु धीष्वा । अस्मभ्यं शर्म यच्छतम् ॥८॥ हे इन्द्रावरुण देवो ! हमारी बुद्धियाँ सम्यक् रूप से आपकी सेवा करने की इच्छा करती हैं, अतः हमें शीघ्र ही निश्चयपूर्वक सुख प्रदान करें ॥८॥ प्र वामश्नोतु सुष्टुतिरिन्द्रावरुण यां हुवे । यामृधाथे सधस्तुतिम् ॥९॥ हे इन्द्रावरुण देवो ! जिन उत्तम स्तुतियों के लिए (प्रति) हम, आप दोनों का आवाहन करते हैं एवं जिन स्तुतियों को साथ-साथ प्राप्त करके आप दोनों पुष्ट होते हैं, वे स्तुतियाँ आपको प्राप्त हों ॥९॥

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