ऋग्वेद पंचम मण्डलं सूक्त ८०

ऋग्वेद-पंचम मंडल सूक्त ८० ऋषिः सत्यश्रवा आत्रेयः देवता - उषाः । छंद - त्रिष्टुप द्युतद्यामानं बृहतीमृतेन ऋतावरीमरुणप्सुं विभातीम् । देवीमुषसं स्वरावहन्तीं प्रति विप्रासो मतिभिर्जरन्ते ॥१॥ दीप्तिमान् रथ पर आरोहित रहने वाली, सर्वव्यापिनी, यज्ञ द्वारा पूजनीय, अरुणिम वर्णयुक्त, दीप्तिमती तथा सूर्यदेव के आगे चलने वाली उषा देवी के प्रति ज्ञानीजन विचारपूर्वक श्रेष्ठ स्तुतियाँ निवेदित करते हैं ॥१॥ एषा जनं दर्शता बोधयन्ती सुगान्यथः कृण्वती यात्यग्रे । बृहद्रथा बृहती विश्वमिन्वोषा ज्योतिर्यच्छत्यग्रे अह्नाम् ॥२॥ ये दर्शनीय उषादेवी प्रसुप्तजनों को चैतन्य करती हैं और मार्गों को सुगम बनाती हुई अत्यन्त व्यापक रथों पर आरूढ़ होकर सूर्यदेव के आगे-आगे गमन करती हैं। महती और विश्वव्यापिनी उषादेवी दिन के आरम्भ में प्रकाश विस्तीर्ण करती हैं ॥२॥ एषा गोभिररुणेभिर्युजानास्रेधन्ती रयिमप्रायु चक्रे । पथो रदन्ती सुविताय देवी पुरुष्टुता विश्ववारा वि भाति ॥३॥ ये उषादेवीं अरुणाभ वृषभों (किरणों) को नियोजित करने वाली हैं और अक्षय धनों को स्थिर रखती हैं। ये अत्यन्त दीप्तिमती, बहुतों द्वारा स्तुत और सबके द्वारा वरण करने योग्य हैं, जो मार्गों को प्रकाशित करती हुई स्वयं प्रकाशमती हैं ॥३॥ एषा व्येनी भवति द्विबर्हा आविष्कृण्वाना तन्वं पुरस्तात् । ऋतस्य पन्थामन्वेति साधु प्रजानतीव न दिशो मिनाति ॥४॥ ये उषादेवी रात्रि और दिवस दोनों कालों में ऊर्ध्व और निम्न द्युलोक में गमन करती हुई पूर्व दिशा में प्रकट होती हैं। ये सूर्यदेव के मार्ग का अनुवर्तन करती हैं। ज्ञानवती स्त्री के सदृश ये दिशाओं का विस्मरण नहीं करतीं ॥४॥ एषा शुभ्रा न तन्वो विदानोर्ध्वव स्नाती दृशये नो अस्थात् । अप द्वेषो बाधमाना तमांस्युषा दिवो दुहिता ज्योतिषागात् ॥५॥ स्नान करके ऊपर जल से बाहर निकलती हुई शुभवर्णा स्त्री की भाँति ये उषादेवी अपने शरीर को प्रकाशित करती हुई हमारे सम्मुख पूर्व से उदित होती हैं। ये सूर्यपुत्री उषादेवी द्वेषरूपी तमिस्रा को विदीर्ण करती हुई प्रकाश के साथ आगमन करती हैं ॥५॥ एषा प्रतीची दुहिता दिवो नृन्योषेव भद्रा नि रिणीते अप्सः । व्यूर्वती दाशुषे वार्याणि पुनर्योतिर्युवतिः पूर्वथाकः ॥६॥ पश्चिम की ओर गमन करतो ये सूर्य पुत्री उषादेवी कल्याणकारी रूप वाली स्त्री की भॉति अपने रूपों को प्रकट करती हैं। सर्वदा तरुणीं ये उषादेवी अपने ज्यातिरूप को पूर्व की भाँति प्रकाशित करती हैं। ये हविदाता यजमान को वरणीय धन प्रदान करती हैं ॥६॥

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