ऋग्वेद पंचम मण्डलं सूक्त ७

ऋग्वेद - पंचम मंडल सूक्त ७ ऋषि - इष आत्रेयः देवता - अग्नि । छंद अनुष्टुप, १० पंक्ति सखायः सं वः सम्यञ्चमिषं स्तोमं चाग्नये । वर्षिष्ठाय क्षितीनामूर्जी नप्ले सहस्वते ॥१॥ हे मित्र ऋत्विजो ! जल के पौत्र रूप ये वरिष्ठ अग्निदेव, श्रेष्ठ बलों को प्रदान करने वाले हैं। आप इनके निमित्त श्रेष्ठ स्तवनों का गान करते हुए हविष्यान्न समर्पित करें ॥१॥ कुत्रा चिद्यस्य समृतौ रण्वा नरो नृषदने । अर्हन्तश्चिद्यमिन्धते संजनयन्ति जन्तवः ॥२॥ जिनके प्रकट होने पर मनुष्य प्रसन्न होते हैं, जिनकी स्तुतियाँ कर ऋत्विग्गण यज्ञ स्थान में उन्हें प्रज्वलित करते हैं। सभी प्राणी भी जिनका दर्शन करने के लिए प्रकट हो जाते हैं, वे अग्निदेव कहाँ हैं ? ॥२॥ सं यदिषो वनामहे सं हव्या मानुषाणाम् । उत द्युम्नस्य शवस ऋतस्य रश्मिमा ददे ॥३॥ जब हम अन्न प्राप्ति की कामना करते हैं और हम मनुष्यों के द्वारा अग्निदेव को हवियाँ दी जाती हैं, तब वे (अग्निदेव) अपनी सामर्थ्य से देदीप्यमान होकर ऊत (सत्य) रूप रश्मियों को धारण करते हैं ॥३॥ स स्मा कृणोति केतुमा नक्तं चिदूर आ सते । पावको यद्वनस्पतीन्द्र स्मा मिनात्यजरः ॥४॥ ये जरारहित और पवित्र करने वाले अग्निदेव जब वनस्पतियों को जलाने लगते हैं, तब वे रात्रि में भी गहन तमिस्रा को दूर करते हुए अपनी ज्वालाओं को फैलाते हैं ॥४॥ अव स्म यस्य वेषणे स्वेदं पथिषु जुह्वति । अभीमह स्वजेन्यं भूमा पृष्ठेव रुरुहुः ॥५॥ यज्ञ-मार्गों के पथिक ऋत्विग्गण, अग्नि की परिचर्या करते हुए घृत की आहुतियाँ देते हैं। तब वे घृत धारायें ज्वालाओं में उसी प्रकार आरूढ़ होती हैं, जैसे पुत्र पिता की पीठ पर आरूढ़ होते हैं ॥५॥ यं मर्त्यः पुरुस्पृहं विदद्विश्वस्य धायसे । प्र स्वादनं पितूनामस्ततातिं चिदायवे ॥६॥ अग्निदेव अनेकों द्वारा चाहे जाने वाले, सबको धारण करने वाले, अन्नों का स्वाद लेने वाले और यजमानों को उत्तम आश्रय देने वाले हैं। यजमान उनके गुणों को जानते हैं ॥६॥ स हि ष्मा धन्वाक्षितं दाता न दात्या पशुः । हिरिश्मश्रुः शुचिदन्नभुरनिभृष्टतविषिः ॥७॥ तृणों को उखाड़कर खाने वाले पशु की तरह वे अग्निदेव निर्जन प्रदेश में स्थित शुष्क काष्ठों को पृथक् कर भस्मीभूत करते हैं। वे अग्निदेव स्वर्णिम मूंछ (ज्वाला) वाले और शुभ दाँतों वाले, बड़े विस्तृत और अपराजित सामर्थ्य वाले हैं ॥७॥ शुचिः ष्म यस्मा अत्रिवत्प्र स्वधितीव रीयते । सुषूरसूत माता क्राणा यदानशे भगम् ॥८॥ जिन अग्निदेव की अंत्वग्गण अत्रि ऋषि के समान परिचर्या करते हैं, जो कुल्हाड़ी के समान काष्ठों को विनष्ट करते हैं, जो हविष्यान्न का उपभोग करते हैं; उन दीप्तिमान् अग्निदेव को अरणि स्वेच्छा से उत्पन्न करती है ॥८॥ आ यस्ते सर्पिरासुतेऽग्ने शमस्ति धायसे । ऐषु द्युम्नमुत श्रव आ चित्तं मर्येषु धाः ॥९॥ हे अग्निदेव ! आप हव्य पदार्थों का भक्षण करने वाले हैं। आप सम्पूर्ण जगत् के धारणकर्ता हैं। हमारी स्तुतियाँ आपको सुख देने वाली हों । मरणधर्मा स्तोताओं को आप तेजस्वी अन्नों और उत्तम मन (स्नेह) प्रदान करें ॥९॥ इति चिन्मन्युमध्रिजस्त्वादातमा पशुं ददे । आदग्न्ने अपृणतोऽत्रिः सासह्याद्दस्यूनिषः सासह्यान्नृन् ॥१०॥ हे अग्ने ! मन्यु को धारण करने वाले ऋषिगण आपके द्वारा प्रदत्त पशु हवनीय पदार्थों को प्राप्त करते हैं। आप हवि न देने वाले कृपण को अत्रिऋषि के वशीभूत करें और अन्नों को चुराने वाले दस्युओं को वशीभूत करें ॥१०॥

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