ऋग्वेद पंचम मण्डलं सूक्त ५३

ऋग्वेद-पंचम मंडल सूक्त ५३ ऋषिः श्यावाश्व आत्रेयः देवता - मरुतः । छंद - १,५,१०-११,१५ ककुप; २ वृहती, ३ अनुष्टुप, ४ पुर उष्णिक, ६-७, ९, १३, १४, १६ सतोवृहती, ८, १२ गायत्री को वेद जानमेषां को वा पुरा सुम्नेष्वास मरुताम् । यद्युयुजे किलास्यः ॥१॥ मरुतों ने जब बिन्दुदार (चिह्नित) मृगों को अपने रथ में नियोजित किया, तब इनकी उत्पत्ति को कौन जानता था? कौन भला पहले मरुतों के सुख में आसीन था ? ॥१॥ ऐतात्रथेषु तस्थुषः कः शुश्राव कथा ययुः । कस्मै सस्रुः सुदासे अन्वापय इळाभिर्वृष्टयः सह ॥२॥ ये मरुद्गण रथ पर अधिष्ठित हैं-यह कौन जानता है? ये किस प्रकार गमन करते हैं? इनके रथ की ध्वनि को किसने सुना है ? ये मित्ररूप हितैषी, वृष्टिकारक मरुद्गण किस यजमान के लिए बहुत अन्नों के साथ अवतीर्ण होंगे ? ॥२॥ ते म आहुर्य आययुरुप द्युभिर्विभिर्मदे । नरो मर्या अरेपस इमान्पश्यन्निति ष्टुहि ॥३॥ तेजस्वी सोमपान से उत्पन्न हर्ष के लिए वे मरुद्गण हमारे निकट उपस्थित हुए तथा कहा- "हम नेतृत्वकर्ता मनुष्यों के हितैषी और निर्दोष मरुद्गण हैं।" स्तोतागण (ऐसे मरुतों की) स्तुतियाँ करें ॥३॥ ये अञ्जिषु ये वाशीषु स्वभानवः स्रक्षु रुक्मेषु खादिषु । श्राया रथेषु धन्वसु ॥४॥ ये मरुद्गण जिन दीप्तियों से स्वयं अति प्रकाशमान होते हैं, वे दीप्तियाँ अलंकारों में, मालाओं में, आयुधों में, स्वर्णिम हारों में, कंगनों में, रथों में तथा धनुषों में आश्रयभूत हैं। हम उनकी वन्दना करते हैं ॥४॥ युष्माकं स्मा रथाँ अनु मुदे दधे मरुतो जीरदानवः । वृष्टी द्यावो यतीरिव ॥५॥ हे शीघ्र दानशील मरुतो ! वृष्टि के सदृश वेगपूर्वक सर्वत्र गमनशील दीप्तिमान् आपके रथ को देखकर हम हर्षित होते हैं और आपका स्तवन करते हैं ॥५॥ आ यं नरः सुदानवो ददाशुषे दिवः कोशमचुच्यवुः । वि पर्जन्यं सृजन्ति रोदसी अनु धन्वना यन्ति वृष्टयः ॥६॥ वे नेतृत्वकर्ता और उत्तम दानशील, दीप्तिमान् हविदाता यजमान के लिए जिस खजाने को सञ्चित कर धारण करते हैं, उसे वे वृष्टि के समान उनमें बाँट देते हैं। वे मरुद्गण द्यावा-पृथिवीं में व्यापक जल के साथ मेघों के समान संचरित होते और वृष्टि करते हैं ॥६॥ ततृदानाः सिन्धवः क्षोदसा रजः प्र ससुर्धेनवो यथा । स्यन्ना अश्वा इवाध्वनो विमोचने वि यद्वर्तन्त एन्यः ॥७॥ जैसे धेनु दुग्ध सिंचन करती है; वैसे उदक के साथ मेघों को फोड़ती हुई जलराशि अन्तरिक्ष में प्रसारित होती हुई सिंचित होती है । द्रुतगामी अश्व की भाँति वेगपूर्वक प्रवाहित नदियाँ अपने मार्गों को विमुक्त करती जाती हैं ॥७॥ आ यात मरुतो दिव आन्तरिक्षादमादुत । माव स्थात परावतः ॥८॥ हे मरुतो ! आप सब द्युलोक से, अन्तरिक्ष लोक से या इसी लोक से यहाँ आगमन करें। दूरस्थ प्रदेशों में आप रुके न रहें ॥८॥ मा वो रसानितभा कुभा कुमुर्मा वः सिन्धुर्नि रीरमत् । मा वः परि ष्ठात्सरयुः पुरीषिण्यस्मे इत्सुम्नमस्तु वः ॥९॥ हे मरुतो ! रसा, अनितभा, कुभा नदियाँ और वेगपूर्वक गमनशील सिन्धु नदी हमें अवरुद्ध न करें। जल से परिपूर्ण सरयू नदी हमें सीमित न करें। हम आपसे रक्षित होकर सुख में स्थित हों ॥९॥ तं वः शर्धं रथानां त्वेषं गणं मारुतं नव्यसीनाम् । अनु प्र यन्ति वृष्टयः ॥१०॥ रथों के बल से युक्त तेजस्वी मरुद्गणों का स्तवन हुम करते हैं । मरुद्गणों के साथ वृष्टि वेगपूर्वक गमन करती है ॥१०॥ शर्धशर्धं व एषां व्रातंव्रातं गणंगणं सुशस्तिभिः । अनु क्रामेम धीतिभिः ॥११॥ हे मरुतो ! हम आपके प्रत्येक बल का, प्रत्येक समुदाय का और प्रत्येक गण का उत्तम स्तुतियों द्वारा बुद्धिपूर्वक अनुसरण करते हैं ॥११॥ कस्मा अद्य सुजाताय रातहव्याय प्र ययुः । एना यामेन मरुतः ॥१२॥ आज मरुद्गण इस रथ द्वारा किस हविदाता यजमान और किस उत्तम मानव की ओर गमन करेंगे ? ॥१२॥ येन तोकाय तनयाय धान्यं बीजं वहध्वे अक्षितम् । अस्मभ्यं तद्धत्तन यद्व ईमहे राधो विश्वायु सौभगम् ॥१३॥ जिस सहृदयता से आप पुत्र-पौत्रों के लिए अक्षय धान्य-बीज वहन करते हैं, उसी हृदय से वह हमें भी दें। हम आपसे सम्पूर्ण आयु और सौभाग्यपूर्ण ऐश्वर्य की याचना करते हैं ॥१३॥ अतीयाम निदस्तिरः स्वस्तिभिर्हित्वावद्यमरातीः । वृष्टी शं योराप उस्रि भेषजं स्याम मरुतः सह ॥१४॥ हे मरुतो ! हम कल्याण द्वारा पाप वृत्तियों को विनष्ट कर अपने शत्रुओं और गुप्त निंदकों का पराभव करें। हमें सम्पूर्ण शक्तियुक्त सुख, जल और दीप्तियुक्त ओषधि संयुक्त रूप से प्राप्त हो ॥१४॥ सुदेवः समहासति सुवीरो नरो मरुतः स मर्त्यः । यं त्रायध्वे स्याम ते ॥१५॥ हे नेतृत्वकर्ता मरुतो ! जिसकी आप रक्षा करते हैं, वह मनुष्य उत्तम तेजवान्, महिमायुक्त और उत्तम पुत्र-पौत्रादि से युक्त होता है, हम भी वैसे ही अनुगृहीत हों ॥१५॥ स्तुहि भोजान्स्तुवतो अस्य यामनि रणन्गावो न यवसे । यतः पूर्वा इव सर्वांरनु ह्वय गिरा गृणीहि कामिनः ॥१६॥ हे स्तोताओ ! तृणादि खाने के लिए जाती हुई गौओं के समान यजमान के यज्ञ में भोजन के लिए जाते हुए हर्षित हुए मरुतों की आप स्तुति करें, क्योंकि वे पूर्व परिचित प्रिय मित्रों के समान प्रीतिकर हैं। उन्हें समीप बुलाकर स्तुतियों से प्रशंसित करें ॥१६॥

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