ऋग्वेद पंचम मण्डलं सूक्त १८

ऋग्वेद - पंचम मंडल सूक्त १८ ऋषि - द्वितो मृक्तवाहा आत्रेयः देवता - अग्नि । छंद -अनुष्टुप, ५ पंक्ति प्रातरग्निः पुरुप्रियो विशः स्तवेतातिथिः । विश्वानि यो अमर्त्या हव्या मर्तेषु रण्यति ॥१॥ ये अग्निदेव बहु प्रिय (सभी के प्रिय) हैं। ये प्रातः सवन में-प्रजाओं में अतिथि के तुल्य पूजनीय और स्तुत्य हैं। ये अविनाशी अग्निदेव यजमानों के मध्य सम्पूर्ण हव्य-पदार्थों की कामना करते हैं ॥१॥ द्विताय मृक्तवाहसे स्वस्य दक्षस्य मंहना । इन्दुं स धत्त आनुषक्स्तोता चित्ते अमर्त्य ॥२॥ हे अग्निदेव ! अत्रि पुत्र द्वित अंष आपके निमित्त पवित्र हव्य लेकर पहुँचते हैं। उन्हें आप अपने बल से महत्ता प्रदान करें, क्योंकि वे आपके निमित्त सर्वदा ही सोमरस और स्तुतियाँ प्रस्तुत करते हैं ॥२॥ तं वो दीर्घायुशोचिषं गिरा हुवे मघोनाम् । अरिष्टो येषां रथो व्यश्वदावन्नीयते ॥३॥ हे अश्वदाता अग्निदेव ! आप दीर्घ आयु वाले और तेजस्वी स्वरूप वाले हैं। हम अपने धनी यजमानों के लिए आपका उत्तम स्तुतियों से आवाहन करते हैं, जिससे उन धनिकों का रथ जीवन-संग्राम में निर्बाधित होकर गमन करता रहे ॥३॥ चित्रा वा येषु दीधितिरासन्नुक्था पान्ति ये । स्तीर्णं बर्हिः स्वर्णर श्रवांसि दधिरे परि ॥४॥ जो अत्वग्गण अनेक प्रकार से यज्ञादि कार्यों को सम्पादन करते रहते हैं, जो उत्तम स्तोत्रों का उच्चारण करते हुए यज्ञादि कर्मों की रक्षा कर इन्हें चैतन्य बनाये रखते हैं, वे ऋत्विग्गण अपने यजमानों को स्वर्ग प्राप्त कराने वाले यज्ञ में, विस्तृत कुशाओं पर विपुल हविष्यान्न स्थापित करते हैं ॥४॥ ये मे पञ्चाशतं ददुरश्वानां सधस्तुति । द्युमदग्ने महि श्रवो बृहत्कृधि मघोनां नृवदमृत नृणाम् ॥५॥ हे अविनाशी अग्निदेव ! आपकी स्तुति करने के बाद जो धनिक यजमान हमें पचास अश्व प्रदान करता हैं। आप उस यजमान को दीप्तिमान् और बहुत सेवकों से युक्त महान् अन्न प्रदान करें ॥५॥

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