ऋग्वेद प्रथम मण्डल सूक्त १०४

ऋग्वेद - प्रथम मंडल सूक्त १०४ ऋषि – कुत्स अंगिरसः: देवता-इन्द्र, । छंद - त्रिष्टुप योनिष्ट इन्द्र निषदे अकारि तमा नि षीद स्वानो नार्वा । विमुच्या वयोऽवसायाश्वान्दोषा वस्तोर्वहीयसः प्रपित्वे ॥१॥ हे इन्द्रदेव ! हमने आपके लिए श्रेष्ठ स्थान निर्धारित किया है। रथ वाहक अश्वों को उनके बन्धनों से मुक्त करके, हिनहिनाते हुए घोड़ों के साथ रात-दिन चलकर यज्ञस्थल में निर्धारित आसन पर विराजमान हों ॥१॥ ओ त्ये नर इन्द्रमूतये गुर्नू चित्तान्त्सद्यो अध्वनो जगम्यात् । देवासो मन्युं दासस्य श्चम्नन्ते न आ वक्षन्त्सुविताय वर्णम् ॥२॥ सुरक्षा की भावना से प्रेरित होकर अपने समीप आये हुए मनुष्यों को इन्द्रदेव ने शीघ्र ही श्रेष्ठ मार्गदर्शन दिया। देवशक्तियाँ दुष्कर्मियों की क्रोध भावना को समाप्त करें। वे यज्ञीय कार्य के निमित्त वरण करने योग्य इन्द्रदेव को हमारे यज्ञ स्थल में आने की प्रेरणा दें ॥२॥ अव त्मना भरते केतवेदा अव त्मना भरते फेनमुदन् । क्षीरेण स्नातः कुयवस्य योषे हते ते स्यातां प्रवणे शिफायाः ॥३॥ कुयव राक्षस (कुधान्य-हीन संस्कार युक्त अन्न खाने से उत्पन्न बैल) धन का मर्म समझकर अपने लिए हीं उसका अपहरण करता है। फेनयुक्त जल (प्रवाहमान रसों) को भी अपने हीन उद्देश्यों के लिए रोकता है। ऐसे कुयव राक्षस की दोनों पलियाँ (विचार शक्ति एवं कार्य शक्ति) शिफा नाम की नदी की धार अथवा (कोड़ों की मार) से मर जायें ॥३॥ युयोप नाभिरुपरस्यायोः प्र पूर्वाभिस्तिरते राष्टि शूरः । अञ्जसी कुलिशी वीरपत्नी पयो हिन्वाना उदभिर्भरन्ते ॥४॥ इस कुयव राक्षस (कुधान्य से उत्पन्न प्रवृत्ति) की शक्ति जल की नाभि (रसानुभूति) में छिपी है। अपहृत जल (शोषण से मिलने वाले सुख) से यह वीर तेजस्वी बनता है। अञ्जसी (गुणवती) तथा कुलिशी (शस्त्र सम्पन) इसकी दोनों वीर पलियाँ (विचार और कार्यशक्ति) जलों (सुखकर प्रवाहों) से भरती-तृप्त करती रहती हैं॥४॥ प्रति यत्स्या नीथादर्शि दस्योरोको नाच्छा सदनं जानती गात् । अध स्मा नो मघवञ्चकृतादिन्मा नो मघेव निष्षपी परा दाः ॥५॥ हे इन्द्रदेव जैसे गौएँ अपने मार्ग से परिचित रहती हुईं अपने गोष्ठ में पहुँच जाती हैं, वैसे ही दुष्टों (दुष्ट प्रवृत्तियों) ने हमारे आवास को जान लिया, अतएव हे ऐश्वर्यवान् इन्द्रदेव ! राक्षसी उपद्रवों से हमारी सुरक्षा करें । जिस प्रकार व्यभिचारी पुरुष धन का अपव्यय करता है, उसी प्रकार आप हमें त्याग न दें ॥५॥ स त्वं न इन्द्र सूर्ये सो अप्स्वनागास्त्व आ भज जीवशंसे । मान्तरां भुजमा रीरिषो नः श्रद्धितं ते महत इन्द्रियाय ॥६॥ हे इन्द्रदेव ! आप हमारे लिए सूर्यप्रकाश और जल उपलब्ध करायें । हम इन दोनों पदार्थों से कभी पृथक् न रहें। सम्पूर्ण प्राणियों के लिए कल्याणकारी पाप रहित मार्ग का हम सदैव अनुसरण करें । आप हमारी गर्भस्थ संतान को पीड़ित न करें। हमें आपकी सामर्थ्य-शक्ति पर पूर्ण विश्वास है ॥६॥ अधा मन्ये श्रत्ते अस्मा अधायि वृषा चोदस्व महते धनाय । मा नो अकृते पुरुहूत योनाविन्द्र क्षुध्यद्भयो वय आसुतिं दाः ॥७॥ हे शक्ति सम्पन्न, अति स्तुत्य इन्द्रदेव! हम आपके प्रति सम्मानास्पद भावना रखते हैं। आपके इस बल के प्रति हम श्रद्धावान् हैं: इमें आप वैभव प्राप्ति हेतु प्रेरणा प्रदान करें। हमें कभी ऐसे स्थानों पर न रखें जो धनों से रहित हों। अतः ऐश्वर्य सम्पन्न होकर भूख प्यास से पीड़ित लोगों को खाद्य और पेय प्रदान करें ॥७॥ मा नो वधीरिन्द्र मा परा दा मा नः प्रिया भोजनानि प्र मोषीः । आण्डा मा नो मघवञ्छक्र निर्भेन्मा नः पात्रा भेत्सहजानुषाणि ॥८॥ हे ऐश्वर्यसम्पन्न, सर्व समर्थ इन्द्रदेव! आप हमारी हिंसा न करें और न हमारा त्याग करें। हमारे आहार के लिए उपयुक्त एवं प्रिय पदार्थों को विनष्ट न करें, हमारी गर्भस्थ संततियों को विनष्ट न करें तथा ? शिशुओं को भी अकाल मृत्यु से बचायें ॥८॥ अर्वाङेहि सोमकामं त्वाहुरयं सुतस्तस्य पिबा मदाय । उरुव्यचा जठर आ वृषस्व पितेव नः शृणुहि हूयमानः ॥९॥ हे सोमाभिलाषी इन्द्रदेव ! आप हमारे सम्मुख प्रस्तुत हों, यह निष्पादित सोम आपके निमित्त हैं, इसे आनन्दपूर्वक सेवन करके स्वयं को तृप्त करें तथा आवाहन किये जाने पर हमारी प्रार्थनाओं को पिता के समान ही सुनने की कृपा करें ॥९॥

Recommendations