ऋग्वेद तृतीय मण्डलं सूक्त ३९

ऋग्वेद - तृतीय मंडल सूक्त ३९ ऋषि - गाथिनो विश्वामित्रः । देवता - इन्द्रः । छंद - त्रिष्टुप इन्द्रं मतिर्हद आ वच्यमानाच्छा पतिं स्तोमतष्टा जिगाति । या जागृविर्विदथे शस्यमानेन्द्र यत्ते जायते विद्धि तस्य ॥१॥ हे सर्व-पालक इन्द्रदेव ! स्लोनाओं द्वारा भावनापूर्वक उच्चारित स्तुतियाँ सीधे आपके पास पहुँचती हैं। आप को चैतन्य करने वाली जो स्तुतियाँ यज्ञ में उन्धारित की जाती हैं, जो आपके निमित्त उत्पन्न हैं, उन्हें आप जानें ॥१॥ दिवश्चिदा पूर्व्या जायमाना वि जागृविर्विदथे शस्यमाना । भद्रा वस्त्राण्यर्जुना वसाना सेयमस्मे सनजा पित्र्या धीः ॥२॥ हे देव ! सूर्य से भी पहले उत्पन्न हुई ये कानुनियाँ यज्ञ में उच्चरित होकर आपको चैतन्य करती हैं। जो कल्याणकारी और शुभ तेजस्विना को धारण करता है, वे हमारी स्तुतियाँ पूर्वजों से प्राप्त सनातन धरोहर हैं॥२॥ यमा चिदत्र यमसूरसूत जिह्वाया अग्रं पतदा ह्यस्थात् । वपूंषि जाता मिथुना सचेते तमोहना तपुषो बुध्न एता ॥३॥ अश्विनीकुमारों को उत्पन्न करने वाली उषा ने उन्हें इस समय उत्पन्न किया हैं। उनकी प्रशंसा करने को उत्कंठित जिह्वा का अग्रभाग चंचल हो उठा हैं। दिन के प्रारंभ में तमोनाशक अश्विनीकुमारों का यह जोड़ा जन्म के साथ ही स्तोत्रों में संयुक्त होता हैं॥३॥ नकिरेषां निन्दिता मर्येषु ये अस्माकं पितरो गोषु योधाः । इन्द्र एषां हंहिता माहिनावानुद्गोत्राणि ससृजे दंसनावान् ॥४॥ असुरों से युद्ध करने में कुशल हमारे पितरों की निन्दा करने वाला हममें से कोई नहीं है। महिमावान् और उत्तम कर्मवान् इन्द्रदेव इन्हें और इनके गोत्रों को सुदृढ़ स्वर्ग लोक में स्थापित करते हैं॥४॥ सखा ह यत्र सखिभिर्नवग्वैरभिश्वा सत्वभिर्गा अनुग्मन् । सत्यं तदिन्द्रो दशभिर्दशग्वैः सूर्यं विवेद तमसि क्षियन्तम् ॥५॥ नौ अश्नों (शक्ति धाराओं) से युक्त बलवान् मित्ररूप अंगिराओं के साथ इन्द्रदेव जब गाँओं की खोज में निकले, तब गहन अन्धकार में छिपे हुए प्रकाशपुंज सूर्य को प्राप्त किया ॥५॥ इन्द्रो मधु सम्भृतमुस्रियायां पद्वद्विवेद शफवन्नमे गोः । गुहा हितं गुह्यं गूळ्हमप्सु हस्ते दधे दक्षिणे दक्षिणावान् ॥६॥ इन्द्रदेव ने दुग्ध प्रदान गौओं से मधुर दुग्ध को प्राप्त किया । अनन्तर चरण वाले पक्षी और खुरों वाले पशुओं से युक्त अपार धन प्राप्त किया। दानी इन्द्रदेव ने गुहाशित तथा अन्तरिक्ष के जलों में स्थित गुह्य धनों को दाहिने हाथ में धारण किया ॥६॥ ज्योतिर्वृणीत तमसो विजानन्नारे स्याम दुरितादभीके । इमा गिरः सोमपाः सोमवृद्ध जुषस्वेन्द्र पुरुतमस्य कारोः ॥७॥ विशिष्ट ज्ञान से सम्पन्न इन्द्रदेव ने गहन तमिस्रा में ज्योति को प्रकट किया। हम सब पापों से दूर होकर भय रहित स्थान में रहे। हे सोम पीने वाले तथा सोम में वृद्धि पाने वाले इन्द्रदेव ! श्रेष्ठतम स्तुतिकर्ता की इन स्तुतियों को ग्रहण करें ॥७॥ ज्योतिर्यज्ञाय रोदसी अनु ष्यादारे स्याम दुरितस्य भूरेः । भूरि चिद्धि तुजतो मर्त्यस्य सुपारासो वसवो बर्हणावत् ॥८॥ (सृष्टि का संतुलन बनाये रखने वाले) यज्ञ के लिए सूर्यदेव द्यावा- पृथिवी को प्रकाशित करें। हम विविध पापों से दूर रहें। हे दुःखतारक वसुदेवो ! आप हम यज्ञ्जनकर्ता मनुष्यों को विपुल धन राशि से पूर्ण करें ॥८॥ शुनं हुवेम मघवानमिन्द्रमस्मिन्भरे नृतमं वाजसातौ । शृण्वन्तमुग्रमूतये समत्सु प्घ्नन्तं वृत्राणि संजितं धनानाम् ॥९॥ हम अपने जीवन-संग्राम में संरक्षण प्राप्ति के लिए ऐश्वर्यवान् इन्द्रदेव का आवाहन करते हैं, क्योंकि वे पवित्रकर्ता, श्रेष्ठ नेतृत्वकर्ता, हेमाडौँ स्तुतियों को कृपापूर्वक सुनने वाले, उग्र, युद्धों में शत्रुओं का विनाश करने वाले और धनों के विजेता हैं॥९॥

Recommendations