Shandilyopanishad Chapter 1 Part 6 (शाण्डिल्योपानिषद प्रथम अध्याय - छठा खण्ड)

प्रथमाध्याये-षष्ठः खण्डः प्रथम अध्याय-छठा खण्ड प्राणापानसमायोगः प्राणायामो भवति। रेचकपूरककुम्भकभेदेन स त्रिविधः। ते वर्णात्मकाः । तस्मात्प्रणव एव प्राणायामः ॥१-२॥ प्राण तथा अपान को एकत्रित कर देना ही प्राणायाम होता है। रेचक, पूरक तथा कुम्भक के भेद से प्राणायाम तीन तरह का होता है। रेचक, पूरक, कुम्भक (प्राणायाम) वर्ण के स्वरूप से युक्त हैं इस कारण प्रणव ही प्राणायाम कहलाता है ॥ १-२॥ पद्माद्यासनस्थः पुमान्नासाग्रे शशभृद्विम्बज्योत्स्नाजालवितानिताकारमूर्ती रक्ताङ्गी हंस वाहिनी दण्डहस्ता बाला गायत्री भवति। पद्म आदि किसी भी आसन पर आसीन होकर पुरुष को ध्यान करना चाहिए- 'नासिका' के अग्रभाग पर चन्द्रमण्डल की ज्योत्स्ना से आवृत, लाल रंग के अंगवाली, हंस पर आसीन, अपने हाथ में दण्ड को धारण किये हुए, बालरूप, 'अ' कार मूर्ति से युक्त 'गायत्री' हैं। उकारमूर्तिः श्वेताङ्गी तायवाहिनी युवती चक्रहस्ता सावित्री भवति। मकारमूर्तिः कृष्णाङ्गी वृषभवाहिनी वृद्धा त्रिशूलधारिणी सरस्वती भवति ॥३॥ 'उ' कार मूर्ति सावित्री श्वेत-शुभ्र अंग से युक्त, गरुड़ के आसन पर प्रतिष्ठित युवावस्था से युक्त, अपने हाथ में चक्र धारण किये हुए हैं। इसी तरह से 'म' कार मूर्ति सरस्वती कृष्णांगी, वृषभ पर आसीन, वृद्धावस्था को प्राप्त, अपने हाथ में त्रिशूल को धारण किये हुए हैं। ॥३ ॥ अकारादित्रयाणां सर्वकारणमेकाक्षरं परंज्योतिः प्रणवं भवतीति ॥४॥ इस प्रकार 'अ' कार आदि तीनों वर्गों का सम्मिलित रूप'ॐ' है तथा वह सम्पूर्ण का कारण एकाक्षर स्वरूप परम ज्योति है। ऐसा चिन्तन करना चाहिए ॥४॥ ध्यायेत् इडया बाह्याद्वायुमापूर्य षोडशमात्राभिरकारंचिन्तयन्पूरितं वायुंचतुःषष्टिमात्राभिः कुम्भयित्वोकारं ध्यायन्यूरितं पिड्गलया द्वात्रिंशन्मात्रया मकारमूर्तिध्यानेनैवं क्रमेण पुनः पुनः कुर्यात् ॥५॥ इस ध्यान के पश्चात् पुनः इड़ा नाड़ी के द्वारा बाहर की वायु सोलह मात्रा में खींचे तथा उस समय 'अ' कार का ध्यान करना चाहिए। इसके बाद इसी वायु को चौंसठ मात्रा में अन्तः कुम्भक करे तथा उस समय 'उ' कार का ध्यान करना चाहिए तथा उसके पश्चात् पिंगला नाड़ी के द्वारा बत्तीस मात्राओं से संयुक्त उस अन्दर भरी हुई वायु को बाहर निष्कासित करे। उस समय 'म' कार मूर्ति का ध्यान करना चाहिए। इसी प्रकार से यह क्रिया निरन्तर बार-बार करते रहना चाहिए ॥ ५ ॥

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