ऋग्वेद द्वितीय मंडल सूक्त १९

ऋग्वेद - द्वितीय मंडल सूक्त १९ ऋषिः- गृत्समद (अंगीरसः शौन होत्रः पश्चयाद) भार्गवः शौनकः । देवता- इन्द्रः । छंद- त्रिष्टुप, अपाय्यस्यान्धसो मदाय मनीषिणः सुवानस्य प्रयसः । यस्मिन्निन्द्रः प्रदिवि वावृधान ओको दधे ब्रह्मण्यन्तश्च नरः ॥१॥ सोमरस को परिष्कृत करने वाले ज्ञान यजमान के द्वारा आनन्द प्रदान करने के लिए दिये गये अन्न (आहार) को इन्द्रदेव ग्रहण करें, वे इन्द्रदेव तथा ज्ञान यजमान उत्तम स्थान प्राप्त करें ॥१॥ अस्य मन्दानो मध्वो वज्रहस्तोऽहिमिन्द्रो अर्णोवृतं वि वृश्चत् । प्र यद्वयो न स्वसराण्यच्छा प्रयांसि च नदीनां चक्रमन्त ॥२॥ जिस प्रकार पक्षी अपने घोंसलों में जाते हैं, उसी प्रकार नदियों की धारायें प्रवाहित होती हैं। ऐसे प्रवाहित सोमपान से आनन्दित इन्द्रदेव ने हाथ में वज्र धारण करके जल को रोकने वाले अहि नामक राक्षस को मारा था॥२॥ स माहिन इन्द्रो अर्णो अपां प्रैरयदहिहाच्छा समुद्रम् । अजनयत्सूर्य विदद्गा अक्तुनाह्नां वयुनानि साधत् ॥३॥ अहि नामक राक्षस को मारने वाले इन्द्रदेव ने अन्तरिक्ष के जल को सीधे समुद्र की ओर प्रवाहित किया, उन्हीं ने सूर्य तथा सूर्यश्मियों को प्रकट किया, जिसके प्रकाश से दिन में होने वाले सभी कार्यों को हम करते हैं॥३॥ सो अप्रतीनि मनवे पुरूणीन्द्रो दाशद्दाशुषे हन्ति वृत्रम् । सद्यो यो नृभ्यो अतसाय्यो भूत्पस्पृधानेभ्यः सूर्यस्य सातौ ॥४॥ जो इन्द्रदेव सूर्य के समान तेजस्वी स्वरूप प्राप्त करने के लिए सब दिन समान रूप से स्पर्धा करते हैं, वे इन्द्रदेव दानशील मनुष्यों के लिए श्रेष्ठ धनों के प्रदाता हैं। वे ही वृत्र राक्षस को मारते हैं ॥४॥ स सुन्वत इन्द्रः सूर्यमा देवो रिणङ्गर्त्याय स्तवान् । आ यद्रयिं गुहदवद्यमस्मै भरदंशं नैतशो दशस्यन् ॥५॥ जिस प्रकार पुत्र को पिता अपने धन का एक अंश देता है, उसी प्रकार जब इन्द्रदेव को दान दाता एतश' ने यज्ञ के समय अमूल्य तथा उत्तम धन प्रदान किया, तब पूज्य तथा तेजस्वी इन्द्रदेव ने यज्ञ की कामना वाले मनुष्यों के लिए सूर्य को प्रकाशित किया ॥५॥ स रन्धयत्सदिवः सारथये शुष्णमशुषं कुयवं कुत्साय । दिवोदासाय नवतिं च नवेन्द्रः पुरो व्यैरच्छम्बरस्य ॥६॥ उन तेजस्वी इन्द्रदेव ने सारथि कुत्स (कुत्साओं से समाज की रक्षा करने वालों) के निमित्त शुष्ण (शोषक), अशुष (निष्ठुर) कुयव (कुधान्य) नामक आसुरों का संहार किया तथा दिवोदास के निमित्त शम्बरासुर (अशान्ति पैदा करने वालों) के निन्यानवे नगरों को ध्वस्त किया ॥६॥ एवा त इन्द्रोचथमहेम श्रवस्या न त्मना वाजयन्तः । अश्याम तत्साप्तमाशुषाणा ननमो वधरदेवस्य पीयोः ॥७॥ हे इन्द्रदेव ! हम अन्न और बल की कामना से आपकी स्तुतियाँ करते हैं। आपने देवों की अवमानना करने वाले तथा हिंसक दुष्टों के हिंसाकारी कृत्यों को नष्ट किया। हम आपसे परम मैत्री भाव बनाये रखें ॥७॥ एवा ते गृत्समदाः शूर मन्मावस्यवो न वयुनानि तक्षुः । ब्रह्मण्यन्त इन्द्र ते नवीय इषमूर्ज सुक्षितिं सुम्नमश्युः ॥८॥ हे शूरवीर इन्द्रदेव ! गृत्समदगण अपने उत्तम संरक्षण की कामना से आपकी उत्तम एवं मनोरम स्तोत्रों के द्वारा स्तुतियाँ करते हैं; उसी प्रकार नये ब्रह्मज्ञानी स्तोताजन भी उत्तम आश्रय, अन्न, बल और सुख की प्राप्ति के लिए स्तुतियाँ करते हैं॥८॥ नूनं सा ते प्रति वरं जरित्रे दुहीयदिन्द्र दक्षिणा मघोनी । शिक्षा स्तोतृभ्यो माति धग्भगो नो बृहद्वदेम विदथे सुवीराः ॥९॥ है इन्द्रदेव ! यज्ञ काल में आपके द्वारा दी गयी ऐश्वर्य युक्त दक्षिणा निश्चय ही स्तोताओं को धन प्राप्त कराती है, अतः हमें भी स्तोताओं के साथ वह ऐश्वर्य युक्त दक्षिणा दें, जिससे हम यज्ञ में महान् पराक्रम प्रदान करने वाले स्तोत्रों से आपकी स्तुतियाँ करें ॥९॥

Recommendations