ऋग्वेद पंचम मण्डलं सूक्त ६६

ऋग्वेद-पंचम मंडल सूक्त ६६ ऋषिः रातहव्य आत्रेयः देवता - मित्रावरुणौ । छंद - अनुष्टुप, आ चिकितान सुक्रतू देवौ मर्त रिशादसा । वरुणाय ऋतपेशसे दधीत प्रयसे महे ॥१॥ हे ज्ञान-सम्पन्न मनुष्य ! आप शत्रुओं के हिंसक और उत्तम कर्म करने वाले दोनों देवों मित्र और वरुण को आवाहित करें। उदकरूप वाले, अन्न-उत्पादक, महान् वरुणदेव के लिए जल प्रदान करें ॥१॥ ता हि क्षत्रमविहुतं सम्यगसुर्यमाशाते । अध व्रतेव मानुषं स्वर्ण धायि दर्शतम् ॥२॥ आप दोनों देवों का बल सज्जनों के लिए अहिंसक और असुरों के लिए विनाशक है। आप दोनों सम्पूर्ण बलों के अधिष्ठाता हैं। जैसे मनुष्यों में कर्म-सामर्थ्य और सूर्यदेव में प्रकाश स्थापित होकर दर्शनीय होता है, उसी प्रकार आप में बल स्थापित होकर दर्शनीय होता है ॥२॥ ता वामेषे रथानामुर्वी गव्यूतिमेषाम् । रातहव्यस्य सुष्टुतिं दधृक्स्तोमैर्मनामहे ॥३॥ हे मित्र और वरुणदेवो! आप दोनों रातहव्ये (हव्य प्रदाता) की उत्तम स्तुतियों से स्तुत होते हैं और आवाहित होने पर अत्यन्त विस्तृत मार्गों से भी गमन करते हैं ॥३॥ अधा हि काव्या युवं दक्षस्य पूर्भिरद्भुता । नि केतुना जनानां चिकेथे पूतदक्षसा ॥४॥ हे अद्भुत कार्य करने वाले, बेल-सम्पन्न मित्र और वरुणदेवो ! हम कुशल साधकों की स्तुतियों से आप दोनों प्रशंसित होते हैं। आप दोनों अनुकूल मन से यजमानों के स्तोत्रों को जानें ॥४॥ तदृतं पृथिवि बृहच्छ्रवएष ऋषीणाम् । ज्रयसानावरं पृथ्वति क्षरन्ति यामभिः ॥५॥ हे पृथिवीदेवि ! हम ऋषियों की, अन्न की अभिलाषा को पूर्ण करने के लिए आप विपुल जल-राशि से परिपूर्ण हैं। ये मित्र और वरुणदेव अपने गमनशील साधनों से वह विपुल जल-वर्षण करते हैं ॥५॥ आ यद्वामीयचक्षसा मित्र वयं च सूरयः । व्यचिष्ठे बहुपाय्ये यतेमहि स्वराज्ये ॥६॥ हे दूरद्रष्टा मित्र और वरुणदेवों ! हम स्तोताजन आप दोनों का आवाहन करते हैं, जिससे हम आपके अत्यन्त विस्तीर्ण और बहुतों द्वारा संरक्षित राज्य में आवागमन करें ॥६॥

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