ऋग्वेद द्वितीय मंडल सूक्त ८

ऋग्वेद - द्वितीय मंडल सूक्त ८ ऋषिः- गृत्समद (अंगीरसः शौन होत्रः पश्चयाद) भार्गवः शौनकः । देवता- अग्निः । छंद- गायत्री, वाजयन्निव नू रथान्योगाँ अग्नेरुप स्तुहि । यशस्तमस्य मीळ्हुषः ॥१॥ हे मनुष्य ! जिस प्रकार धन-धान्य की कामनावाले रथों को उत्तम रीति से तैयार करते हैं, उसी प्रकार अत्यन्त यशस्वी, सबके लिए सुखकारी अग्निदेव की स्तुतियों के द्वारा उनका पूजन करो ॥१॥ यः सुनीथो ददाशुषेऽजुर्यो जरयन्नरिम् । चारुप्रतीक आहुतः ॥२॥ जो अग्निदेव श्रेष्ठ नेतृत्व प्रदान कर उत्तम पथ पर ले जाते हैं, जो अविनाशी तथा श्रेष्ठ उपक्रम वाले हैं, ऐसे शत्रुनाशक, दानशील अग्निदेव को हम आवाहन करते हैं॥२॥ य उ श्रिया दमेष्वा दोषोषसि प्रशस्यते । यस्य व्रतं न मीयते ॥३॥ जो अग्निदेव घरों में अपनी कान्ति से युक्त होकर प्रतिष्ठित होते हैं, जो अग्निदेव दिन और रात प्रशंसा के योग्य हैं तथा जिनका व्रत कभी खण्डित नहीं होता; वे अग्निदेव पूज्य तथा प्रशंसनीय हैं ॥३॥ आ यः स्वर्ण भानुना चित्रो विभात्यर्चिषा । अञ्जानो अजरैरभि ॥४॥ जिस तरह सूर्य से द्युलोक प्रकाशित होता है, उसी तरह वे अविनाशी, आश्चर्य कारक अग्निदेव अपनी ज्वालाओं को प्रकट करके सर्वत्र प्रकाशित होते हैं॥४॥ अत्रिमनु स्वराज्यमग्निमुक्थानि वावृधुः । विश्वा अधि श्रियो दधे ॥५॥ शत्रुनाशक तथा सुशोभित अग्निदेव स्तुतियों से अत्यन्त तेजोमय होकर समस्त ऐश्वर्यों को धारण करके शोभायमान होते हैं॥५॥ अग्नेरिन्द्रस्य सोमस्य देवानामूतिभिर्वयम् । अरिष्यन्तः सचेमह्यभि ष्याम पृतन्यतः ॥६॥ अग्नि, इन्द्र, सोम आदि अन्यान्य देवताओं के संरक्षण में हम भली - भाँति सुरक्षित हैं, अतः कभी भी नाश को न प्राप्त होते हुए हम शत्रुओं को पराजित करें ॥६॥

Recommendations