ऋग्वेद प्रथम मण्डल सूक्त १३३

ऋग्वेद - प्रथम मंडल सूक्त १३३ ऋषि - पुरूच्छेपो दैवोदासिः देवता- इन्द्र । छंद - १ त्रिष्टुप। २-४ अनुष्टुप, ५ गायत्री, ६ धृति, ७ अष्टि उभे पुनामि रोदसी ऋतेन द्रुहो दहामि सं महीरनिन्द्राः । अभिव्लग्य यत्र हता अमित्रा वैलस्थानं परि तृळ्हा अशेरन् ॥१॥ जो इन्द्रदेव यज्ञ की शक्ति से दोनों लोकों को पावन बनाते हैं। हम उन इन्द्रदेव के विरोधियों और अति भयंकर द्रोहियों का दहन करते हैं। जहाँ बड़ी संख्या में शत्रु मारे जाते हैं, वहाँ मृत शरीरों से युद्धभूमि श्मशान जैसी प्रतीत होती है ॥१॥ अभिव्लग्या चिदद्रिवः शीर्षा यातुमतीनाम् । छिन्धि वटूरिणा पदा महावटूरिणा पदा ॥२॥ हे वज्रधारी इन्द्रदेव ! आप हिंसक शत्रुओं के अति निकट जाकर (शीश पर पहुँचकर) अपनी विशाल सैन्य शक्ति से उन्हें पददलित करें ॥२॥ अवासां मघवज्ञ्जहि शर्धी यातुमतीनाम् । वैलस्थानके अर्मक महावैलस्थे अर्मके ॥३॥ हे ऐश्वर्यवान् इन्द्रदेव ! आप मृतक मनुष्यों के घृणित स्थान एवं घृणित श्मशानों के समान इस हिंसक सैन्य शक्ति को अपनी सामर्थ्य से विनष्ट करें ॥३॥ यासां तिस्रः पञ्चाशतोऽभिव्लङ्गैरपावपः । तत्सु ते मनायति तकत्सु ते मनायति ॥४॥ हे इन्द्रदेव ! जिन शत्रु सेनाओं के त्रिगुणित पचास अर्थात् डेढ़ सौ सैनिकों को चारों ओर से घेरकर युद्ध की चालों से विनष्ट किया । आपके वे पराक्रमी कार्य प्रशंसनीय हैं, भले ही आपके लिए उनकी कोई विशेष महत्ता न हो ॥४॥ पिशङ्गभृष्टिमम्भृणं पिशाचिमिन्द्र सं मृण । सर्वं रक्षो नि बर्हय ॥५॥ हे इन्द्रदेव ! आप क्रोधाग्नि से लाल हुए शस्त्रधारियों एवं विशालकाय पिशाचों को नष्ट करें। आप समस्त राक्षसी शक्तियों का संहार करें ॥५॥ अवर्मह इन्द्र दादृहि श्रुधी नः शुशोच हि द्यौः क्षा न भीषाँ अद्रिवो घृणान्न भीषाँ अद्रिवः । शुष्मिन्तमो हि शुष्मिभिर्वधैरुग्रेभिरीयसे । अपूरुषघ्नो अप्रतीत शूर सत्वभिस्त्रिसप्तैः शूर सत्वभिः ॥६॥ हे वज्रधारी इन्द्रदेव ! आप हमारे निवेदन पर भयंकर राक्षसों की सामर्थ्य को क्षीण करके उनका संहार करें। दिव्यलोक भी पृथ्वी पर हो रहे अत्याचारों से शोकातुर हो गया है। हे बज्रधारी इन्द्रदेव ! जिस प्रकार अग्नि द्वारा वस्तुएँ भस्म होती हैं, वैसे ही आपके भय से शत्रु दुःखी हैं। बलशाली सेना को सुदृढ़ शस्त्रबल से सुसज्जित करके आप शत्रुदल के समीप जाते हैं। हे अग्रगामी वीर! आप अपने शूरवीरों को सुरक्षित करने हेतु तत्पर रहते हैं। हे शूरवीर इन्द्रदेव ! आप इक्कीस सेनाओं के साथ अर्थात् विशाल सैन्य शक्ति के साथ युद्ध क्षेत्र में जाते हैं॥६॥ वनोति हि सुन्वन्क्षयं परीणसः सुन्वानो हि ष्मा यजत्यव द्विषो देवानामव द्विषः । सुन्वान इत्सिषासति सहस्रा वाज्यवृतः । सुन्वानायेन्द्रो ददात्याभुवं रयिं ददात्याभुवम् ॥७॥ सोमरस निचोड़कर तैयार करने वाले यजमान सभी ओर फैले हुए दुष्टों और देवविरोधियों को दूर करते हैं। मुक्त इन्द्रदेव यजमानों को सहस्रों प्रकार के धन प्रदान करते हैं। वे उन्हें वैभव प्रदान करते हैं॥७॥

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