ऋग्वेद प्रथम मण्डल सूक्त ५३

ऋग्वेद - प्रथम मंडल सूक्त ५३ ऋषि - सव्य अंगीरस देवता- इन्द्र। छंद - जगती, १०-११ त्रिष्टुप न्यू षु वाचं प्र महे भरामहे गिर इन्द्राय सदने विवस्वतः । नू चिद्धि रत्नं ससतामिवाविदन्न दुष्टुतिर्द्रविणोदेषु शस्यते ॥१॥ हम विवस्वान् के यज्ञ में महान् इन्द्रदेव की उत्तम वचनों से स्तुति करते हैं। जिस प्रकार सोने वालों का धन चोर सहजता से ले जाते हैं, उसी प्रकार इन्द्रदेव ने (असुरों के) रत्नों को प्राप्त किया। धन दान करने वालों की निन्दा करना सराहनीय नहीं है ॥१॥ दुरो अश्वस्य दुर इन्द्र गोरसि दुरो यवस्य वसुन इनस्पतिः । शिक्षानरः प्रदिवो अकामकर्शनः सखा सखिभ्यस्तमिदं गृणीमसि ॥२॥ हे इन्द्रदेव ! आप अश्वों, गौवों, धन-धान्यों के देने वाले हैं। आप, सबका पालन-पोषण करते हुए उन्हें उत्तम कर्म की प्रेरणा प्रदान करने वाले तेजस्वी वीर हैं। आप संकल्पों को नष्ट न करने वाले तथा मित्रों के भी मित्र हैं। इस प्रकार हम आपकी स्तुति करते हैं॥२॥ शचीव इन्द्र पुरुकृद्युमत्तम तवेदिदमभितश्चेकिते वसु । अतः संगृभ्याभिभूत आ भर मा त्वायतो जरितुः काममूनयीः ॥३॥ शंक्तिशाली, बहु-कर्मा, दीप्तिमान् हे इन्द्रदेव ! सम्पूर्ण धन आपका ही है - यह सर्वज्ञात है। वृत्र का पराभव करके उसका धन लेकर, हमें उससे अभिपूरित करें। आप अपने प्रशंसकों की कामना को अवश्य पूर्ण करें ॥३॥ एभिर्युभिः सुमना एभिरिन्दुभिर्निरुन्धानो अमतिं गोभिरश्विना । इन्द्रेण दस्युं दरयन्त इन्दुभिर्युतद्वेषसः समिषा रभेमहि ॥४॥ इन तेजस्वी हवियों और तेजस्वी सोमरसों द्वारा तृप्त होकर हे इन्द्रदेव ! हमें गौओं और घोड़ों (पोषण और प्रगति) से युक्त धनों को देकर हमारी दरिद्रता का निवारण करें। सोमरसों से तृप्त होने वाले, उत्तम मन वाले, इन्द्रदेव के द्वारा हम शत्रुओं को नष्ट करते हुए द्वेषरहित होकर अन्नों से सम्यक् रूप से हर्षित हों ॥४॥ समिन्द्र राया समिषा रभेमहि सं वाजेभिः पुरुश्चन्द्रैरभिद्युभिः । सं देव्या प्रमत्या वीरशुष्मया गोअग्रयाश्वावत्या रभेमहि ॥५॥ है इन्द्रदेव ! हम धन-धान्यों से सम्पन्न हों, बहुतों को हर्ष प्रदान करने वाली सम्पूर्ण तेजस्विता तथा बलों से सम्पन्न हों । हम वीर पुत्रों, श्रेष्ठ गौवों एवं अश्वों को प्राप्त करने की उत्तम बुद्धि से युक्त हों ॥५॥ ते त्वा मदा अमदन्तानि वृष्ण्या ते सोमासो वृत्रहत्येषु सत्पते । यत्कारवे दश वृत्राण्यप्रति बर्हिष्मते नि सहस्राणि बर्हयः ॥६॥ हे सज्जनों के पालक इन्द्रदेव! वृत्र को मारने वाले संग्राम में आपने बलवर्द्धक सोमरस का पान करके आनन्द एवं उत्साह को प्राप्त किया और तब आपने संकल्प लेकर याजकों के निमित्त दस हज़ार असुरों का संहार किया ॥६॥ युधा युधमुप घेदेषि धृष्णुया पुरा पुरं समिदं हंस्योजसा । नम्या यदिन्द्र सख्या परावति निबर्हयो नमुचिं नाम मायिनम् ॥७॥ हे संघर्षशील शक्ति - सम्पन्न इन्द्रदेव! आप शत्रु योद्धाओं से सर्वदा युद्ध करते रहे हैं, उनके अनेकों नगरों को आपने अपने बल से ध्वस्त किया है। उन नमनशील, योग्य मित्र, मरुतों के सहयोग से आपने प्रपंची असुर 'नमुचि' को मार दिया है॥७॥ त्वं करञ्जमुत पर्णयं वधीस्तेजिष्ठयातिथिग्वस्य वर्तनी । त्वं शता वङ्‌गृदस्याभिनत्पुरोऽनानुदः परिषूता ऋजिश्वना ॥८॥ हे इन्द्रदेव ! आपने 'अतिथिग्व' को प्रताड़ित करने वाले 'करंज' और 'पर्णय' नामक असुरों का तेजस्वी अस्त्रों से वध किया। सहायकों के बिना ही 'वंगृद' के सैकड़ों नगरों को गिराकर घिरे हुए ज़िश्वा' को मुक्त किया ॥८॥ त्वमेताञ्जनराज्ञो द्विर्दशाबन्धुना सुश्रवसोपजग्मुषः । षष्टिं सहस्रा नवतिं नव श्रुतो नि चक्रेण रथ्या दुष्पदावृणक् ॥९॥ हे प्रसिद्ध इन्द्रदेव ! आपने बन्धु-रहित 'सुश्रवस' राजा के सम्मुख लड़ने के लिये खड़े हुए बीस राजाओं को तथा उनके साठ हजार निन्यानवे सैनिकों को अपने दुषाप्य चक्र (व्यूह- अथवा गतिशील प्रक्रिया) द्वारा नष्ट कर दिया ॥९॥ त्वमाविथ सुश्रवसं तवोतिभिस्तव त्रामभिरिन्द्र तूर्वयाणम् । त्वमस्मै कुत्समतिथिग्वमायुं महे राज्ञे यूने अरन्धनायः ॥१०॥ हे इन्द्रदेव ! आपने अपने रक्षण – साधनों से 'सुश्रवस' की और पोषण साधनों से 'तूर्वयाण' की रक्षा की। आपने इस महान् तरुण राजा के लिये 'कुत्स" अतिथिग्व' और 'आयु' नामक राजाओं को वश में किया ॥१०॥ य उदृचीन्द्र देवगोपाः सखायस्ते शिवतमा असाम । त्वां स्तोषाम त्वया सुवीरा द्राघीय आयुः प्रतरं दधानाः ॥११॥ यज्ञ में स्तुत्य हे इन्द्रदेव! देवों द्वारा रक्षित, हम आपके मित्र हैं। हमें सर्वदा सुखी हों। आपकी कृपा से हम उत्तम बलों से युक्त दीर्घ आयु को भली प्रकार धारण करते हैं तथा आपकी स्तुति करते हैं॥११॥

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