ऋग्वेद प्रथम मण्डल सूक्त ९५

ऋग्वेद - प्रथम मंडल सूक्त ९५ ऋषि - कुत्स अंगीरसः: देवता-अग्नि, । छंद - त्रिष्टुप, द्वे विरूपे चरतः स्वर्थे अन्यान्या वत्समुप धापयेते । हरिरन्यस्यां भवति स्वधावाञ्छुक्रो अन्यस्यां ददृशे सुवर्चाः ॥१॥ भिन्न स्वरूप वाली, उत्तम प्रयोजनों में लगी हुई दो स्त्रियाँ (रात्रि और दिन रूप में एक दूसरे के पुत्रों को पोषित करती हैं। एक का पुत्र हरि (रात्रि के गर्भ से उत्पन्न रसों का हरण करने वाला सूर्य) अन्य ( दिन) के द्वारा पोषित होता है तथा दूसरी का पुत्र शुक्र (दिन में जाग्रत् तेजस्वी अग्नि) अन्य (रात्रि) के द्वारा घोषित होता है ॥१॥ दशेमं त्वष्टुर्जनयन्त गर्भमतन्द्रासो युवतयो विभृत्रम् । तिग्मानीकं स्वयशसं जनेषु विरोचमानं परि षीं नयन्ति ॥२॥ आलस्य रहित ये युवतियाँ (दस अंगुलियाँ) तेज के गर्भ रूप अग्निदेव को उत्पन्न करती हैं। ये भरण पोषण करने वाले, तीक्ष्ण मुखों (लपटों ) वाले अपने यश से जनों में प्रकाशित अग्निदेव लोगों द्वारा चारों ओर ले जाये जाते हैं॥२॥ त्रीणि जाना परि भूषन्त्यस्य समुद्र एकं दिव्येकमप्सु । पूर्वामनु प्र दिशं पार्थिवानामृतून्प्रशासद्वि दधावनुष्ठु ॥३॥ इन अग्निदेव के तीन विशिष्ट रूप सर्वत्र विभूषित हैं। समुद्र में (बड़वानलन रूप में) आकाश में (सूर्यरूप में) और अन्तरिक्ष में जलरूप में (जलों में विद्युत् रूप में), (सूर्यरूप) अग्नि ने ही ऋतु चक्र की व्यवस्था की हैं। पृथ्वी के प्राणियों की व्यवस्था के लिए पूर्वादि दिशाओं की स्थापना भी (सूर्यरूप) अग्नि ने ही की है॥३॥ क इमं वो निण्यमा चिकेत वत्सो मातृर्जनयत स्वधाभिः । बह्वीनां गर्भो अपसामुपस्थान्महान्कविर्निश्चरति स्वधावान् ॥४॥ इन गुह्य अग्निदेव को कौन जानता है? पुत्र होते हुए भी इनने अपनी माताओं को निज धारक सामथ्र्यों से प्रकट किया। निज-धारक सामर्थ्य से जलों के गर्भ में स्थित रहकर समुद्र में संचार करने वाले ये अग्निदेव कवि (क्रान्तदर्शी) हैं॥४॥ आविष्ट्यो वर्धते चारुरासु जिह्मानामूर्ध्वः स्वयशा उपस्थे । उभे त्वष्टुर्बिभ्यतुर्जायमानात्प्रतीची सिंहं प्रति जोषयेते ॥५॥ जलों में प्रविष्ट हुए अग्निदेव यज्ञ के साथ प्रकाशित होकर बढ़ते हुए ऊपर उठते हैं। इनके उत्पन्न होने पर त्वष्टा देव की दोनों पुत्रियाँ ( अग्नि उत्पादक काष्ठ या अरणियाँ) भयभीत होती हैं और सिंह रूप इन अग्निदेव की अनुचारिणी बनकर सेवा करती हैं॥५॥ उभे भद्रे जोषयेते न मेने गावो न वाश्रा उप तस्थुरेवैः । स दक्षाणां दक्षपतिर्बभूवाज्ञ्जन्ति यं दक्षिणतो हविर्भिः ॥६॥ कल्याण करने वाली सुन्दर स्त्रियों के समान आकाश और पृथ्वी दोनों सूर्यरूप अग्निदेव की सेवा करती हैं। रंभाने वाली गौओं की तरह ये अपनी चाल से इनके पास जाती हैं। ऋत्विग्गण दक्षिण की ओर मुख करके हवियों द्वारा अग्निदेव का यजन करते हैं। वे अग्निदेव बलवानों से भी अधिक बली हैं॥६॥ उद्यंयमीति सवितेव बाहू उभे सिचौ यतते भीम ऋञ्जन् । उच्छुक्रमत्कमजते सिमस्मान्नवा मातृभ्यो वसना जहाति ॥७॥ अग्निदेव सवितादेव के समान अपनी भुजाओं रूपी रश्मियों को फैलाते हैं और विकराल होकर सिंचन करने वाली दोनों माताओं (द्यावा-पृथ्वी) को अलंकृत करते हैं। तदनन्तर प्रकाश का कवच हटाकर माताओं को नवीन वस्त्रों से आच्छादित कर देते हैं॥७॥ त्वेषं रूपं कृणुत उत्तरं यत्सम्पृञ्चानः सदने गोभिरद्भिः । कविर्बुधं परि मर्मृज्यते धीः सा देवताता समितिर्बभूव ॥८॥ ये मेधावी और ज्ञान सम्पन्न अग्निदेव अपने स्थान में गौ दुग्ध-घृत रूगी रसों से संयुक्त होकर उत्तरोत्तर तेजस्वी रूप को धारण करते हैं। वे मूल स्थान को परिशुद्ध कर दूर अन्तरिक्ष तक दिव्य तेजस्विता को विस्तृत कर देते हैं॥८॥ उरु ते ज्रयः पर्येति बुधं विरोचमानं महिषस्य धाम । विश्वभिरग्ने स्वयशोभिरिद्धोऽदब्धेभिः पायुभिः पाह्यस्मान् ॥९॥ महाबली अग्निदेव का उज्ज्वल तेज अन्तरिक्ष के व्यापक स्थानों तक फैल गया है। हे अग्निदेव ! आप प्रदीप्त होकर सम्पूर्ण यशस्वी सामर्थों और अटल रक्षण साधनों से हमारी रक्षा करें ॥९॥ धन्वन्त्स्रोतः कृणुते गातुमूर्मिं शुक्रैरूर्मिभिरभि नक्षति क्षाम् । विश्वा सनानि जठरेषु धत्तेऽन्तर्नवासु चरति प्रसूषु ॥१०॥ ये अग्निदेव निर्जन स्थान में भी जल स्रोत फोड़कर मार्ग बनाते हैं। वर्षा करके पृथ्वी को जलों से पूर्ण कर देते हैं। सब अन्नों को प्राणियों के पेट में स्थापित करते हैं। ये नूतन वनस्पतियों-ओषधयों के गर्भ में शक्ति का संचार करते हैं॥१०॥ एवा नो अग्ने समिधा वृधानो रेवत्पावक श्रवसे वि भाहि । तन्नो मित्रो वरुणो मामहन्तामदितिः सिन्धुः पृथिवी उत द्यौः ॥११॥ हे पवित्र कर्ता अग्निदेव ! समिधाओं से संवर्धित होकर आप हमारे लिए धन देने वाले हों और अपने यश से प्रकाशित हों। हमारे इस निवेदन का मित्र, वरुण, अदिति, सिन्धु पृथ्वी और द्युलोक भी अनुमोदन करें ॥११॥

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