ऋग्वेद तृतीय मण्डलं सूक्त १८

ऋग्वेद - तृतीय मंडल सूक्त १८ ऋषि - कतो विश्वामित्रः । देवता - अग्निः । छंद - त्रिष्टुप भवा नो अग्ने सुमना उपेतौ सखेव सख्ये पितरेव साधुः । पुरुद्रुहो हि क्षितयो जनानां प्रति प्रतीचीर्दहतादरातीः ॥१॥ हे अग्निदेव ! जिस प्रकार मित्र के प्रति मित्र और अपने पुत्र के प्रति माता-पिता हितैषी होते हैं, उसी प्रकार आप प्रसन्नता के साथ हमारे लिए अनुकूल और हितैषी बनें। इस लोक में मनुष्यों के प्रति मनुष्य अत्यन्त द्रोही हैं, अतएव हमारे विरुद्ध आचरण करने वाले शत्रुओं के प्रतिकूल होकर उन्हें भस्म कर दें ॥१॥ तपो ष्वग्ने अन्तराँ अमित्रान्तपा शंसमररुषः परस्य । तपो वसो चिकितानो अचित्तान्वि ते तिष्ठन्तामजरा अयासः ॥२॥ हे अग्निदेव ! आप हमारे समीपस्थ शत्रुओं को भली प्रकार संतप्त करें । हव्यादि न देने वाले और दूसरों की निन्दा करने वालों को संतप्त करें । हे आश्रयदाता और विद्वान् अग्निदेव ! आप चंचल चित्त वालों को संतप्त करें । आपकी अजर किरणें अबाध गति से विकीर्ण हों ॥२॥ इध्मेनाग्न इच्छमानो घृतेन जुहोमि हव्यं तरसे बलाय । यावदीशे ब्रह्मणा वन्दमान इमां धियं शतसेयाय देवीम् ॥३॥ हे अग्निदेव ! हम श्रेष्ठ कामनाओं सहित आपके वेग और बल के लिए समिधा एवं घृत्त के साथ हविष्यान्न प्रदान करते हैं। स्तोत्रों से आप की स्तुति करते हुए हम धन पर प्रभुत्व पायें। आप हमारे लिए अक्षय धन प्रदान करने के निमित्त हमारी स्तुति को दिव्य बनायें ॥३॥ उच्छोचिषा सहसस्पुत्र स्तुतो बृहद्वयः शशमानेषु धेहि । रेवदग्ने विश्वामित्रेषु शं योर्मर्मृज्मा ते तन्वं भूरि कृत्वः ॥४॥ बल के पुत्र है अग्निदेव ! आप अपने तेज से दीप्तिमान् हों । आप प्रशंसक विश्वामित्र के वंशजों (विश्व में समस्त मानवों के प्रति मित्रभाव रखने वाले) द्वारा स्तुति किये जाने पर अपार धन-धान्य प्रदान करें। उन्हें आरोग्य और निर्भयता प्रदान करें। यज्ञादि कर्म कर्ता हे अग्निदेव ! हम आपके शरीर को पुनः पुनः शोधन करते हैं॥४॥ कृधि रत्नं सुसनितर्धनानां स घेदग्ने भवसि यत्समिद्धः । स्तोतुर्दुरोणे सुभगस्य रेवत्सृप्रा करस्ना दधिषे वपूंषि ॥५॥ उत्तम दानशील हे अग्निदेव! आप हमें श्रेष्ठतम धन प्रदान करें। आप भली प्रकार प्रदीप्त होकर याजकों को धन प्रदान करते हैं। समृद्धिशाली स्तोताओं को अपार धन-वैभव प्रदान करने के लिए आप अपने रूपवान् तेजस्वी हाथों (किरणों) को विस्तृत करें ॥५॥

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