ऋग्वेद प्रथम मण्डल सूक्त १५०

ऋग्वेद - प्रथम मंडल सूक्त १५० ऋषि - दीर्घतमा औचथ्यः देवता- अग्नि । छंद - उषणिक पुरु त्वा दाश्वान्वोचेऽरिरग्न्ने तव स्विदा । तोदस्येव शरण आ महस्य ॥१॥ महान् सम्पत्तिशाली की शरण में आये हुए (धन याचक) सेवक के सदृश, हम अग्निदेव के निमित्त आहुति प्रदान करते हुए स्तुतिगान करते हैं॥१॥ व्यनिनस्य धनिनः प्रहोषे चिदररुषः । कदा चन प्रजिगतो अदेवयोः ॥२॥ हे अग्निदेव ! जो श्रद्धाहीन हैं, धन सम्पन्न होते हुए भी कृपण हैं तथा देवताओं के अनुशासन को नहीं मानते ऐसे स्वेच्छाचारी नास्तिकों को आप अपनी कृपादृष्टि से वञ्चित करें ॥२॥ स चन्द्रो विप्र मर्यो महो व्राधन्तमो दिवि । प्रप्रेत्ते अग्ने वनुषः स्याम ॥३॥ हे ज्ञान सम्पन्न अग्निदेव ! जो मनुष्य आपकी शरण में आते हैं, वे आपकी तेजस्विता से दिव्य लोक के चन्द्रमा के समान सबके लिए सुखदायक होते हैं। वे सबसे अधिक महानता युक्त होते हैं। अतएव हम सदैव आपके प्रति श्रद्धा भावना से ओतप्रोत रहें ॥३॥

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