ऋग्वेद तृतीय मण्डलं सूक्त ५७

ऋग्वेद - तृतीय मंडल सूक्त ५७ ऋषि - गाथिनो विश्वामित्रः देवता - विश्वेदेवाः । छंद - त्रिष्टुप प्र मे विविक्वाँ अविदन्मनीषां धेनुं चरन्तीं प्रयुतामगोपाम् । सद्यश्चिद्या दुदुहे भूरि धासेरिन्द्रस्तदग्निः पनितारो अस्याः ॥१॥ हे ज्ञानवान् इन्द्रदेव ! श्रेष्ठ संरक्षण के अभाव में इधर-उधर भटकती हुई गौ की भाँति (अज्ञानता के अन्धकार में भटकते हुए हम लोगों को आप संरक्षण प्रदान करें। अभीप्सित फल उपलब्ध कराने वाली हमारी (गौओं) स्तुतियों को इन्द्रदेव (अग्निदेव स्वीकार करें ॥१॥ इन्द्रः सु पूषा वृषणा सुहस्ता दिवो न प्रीताः शशयं दुदुहे । विश्वे यदस्यां रणयन्त देवाः प्र वोऽत्र वसवः सुम्नमश्याम् ॥२॥ अभीप्सित फल प्रदान करके सबका मंगल करने वाले मित्रावरुण, इन्द्रदेव, पूषादेव तथा अन्य देवगण प्रसन्न होकर अन्तरिक्षीय मेघ का दोहन करते हैं। सर्वदेवगण हमारी स्तुतियों से आनन्द प्राप्त करते हैं । अतएव है वसुदेवो ! आपकी कृपादृष्टि से आपके द्वारा प्रदत्त सुखों को हम प्राप्त करें ॥२॥ या जामयो वृष्ण इच्छन्ति शक्तिं नमस्यन्तीर्जानते गर्भमस्मिन् । अच्छा पुत्रं धेनवो वावशाना महश्चरन्ति बिभ्रतं वपूंषि ॥३॥ जो वनस्पतियों जल के रूप में प्राण-पर्जन्य की वर्षा करने वाले इन्द्रदेव की शक्ति का अनुदान चाहती हैं, विनम्रतापूर्वक उनकी सृजन-सामर्थ्य से परिचित हैं। फल की अभिलाषिणी औषधियों (वीहि, यव, नाँवारादि) विभिन्न फसलों के रूप में पुत्रों (प्राणियों के पास पहुँचती हैं॥३॥ अच्छा विवक्मि रोदसी सुमेके ग्राव्णो युजानो अध्वरे मनीषा । इमा उ ते मनवे भूरिवारा ऊर्ध्वा भवन्ति दर्शता यजत्राः ॥४॥ यज्ञ में सोमाभिषवण करने वाले पाषाणों को धारण करते हुए हम अपनी मननशील बुद्धि से विशिष्ट रूप से शोभायमान द्यावा-पृथिवीं की स्तुति करते हैं। हे अग्निदेव ! अनेकों के द्वारा वरण करने योग्य, कमनीय और पूजनीय आपकी ज्वालाएँ, मनुष्यों का कल्याण करने के लिए ऊर्ध्वगामी हौं ॥४॥ या ते जिह्वा मधुमती सुमेधा अग्ने देवेषूच्यत उरूची । तयेह विश्वाँ अवसे यजत्राना सादय पायया चा मधूनि ॥५॥ हे अग्निदेव ! आपकी मधुर, तेजस्वी, प्रज्ञा-सम्पन्न एवं सर्वत्र संत्र्याप्त ज्वालाएं देवों का आवाहन करने के लिए प्रेरित होती हैं। इन ज्वालाओं के द्वारा समस्त पूजनीय देवों को इस यज्ञ में प्रतिष्ठित करें । देवों को मधुर सोमरस समर्पित करके दुष्टों में हमारी रक्षा करें ॥५॥ या ते अग्ने पर्वतस्येव धारासश्चन्ती पीपयद्देव चित्रा । तामस्मभ्यं प्रमतिं जातवेदो वसो रास्व सुमतिं विश्वजन्याम् ॥६॥ हे दिव्यता से सम्पन्न अग्निदेव! आपकी कुमार्ग से बचाने वाली बुद्धि मेघों की धारा की भाँति सवये तृप्त करतीं हैं है सबके आश्रयभूत जातवेदाअग्निदेव ! आप हमें सारे संसार का हित करने वाली बुद्धि प्रदान करे ॥६॥

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