ऋग्वेद प्रथम मण्डल सूक्त ८६

ऋग्वेद - प्रथम मंडल सूक्त ८६ ऋषि – गौतमो राहुगणः: देवता- मरुतः । छंद - गायत्री मरुतो यस्य हि क्षये पाथा दिवो विमहसः । स सुगोपातमो जनः ॥१॥ दिव्य लोक के वासी, विशिष्ट तेजस्विता सम्पन हे मरुद्गण! आपके द्वारा जिस यजमान के यज्ञस्थल पर सोमपान किया गया, निश्चित ही वे चिरकाल पर्यन्त आपके द्वारा संरक्षित रहते हैं॥१॥ यज्ञैर्वा यज्ञवाहसो विप्रस्य वा मतीनाम् । मरुतः शृणुता हवम् ॥२॥ हे यज्ञ को वहन करने वाले मरुद्गणो ! हमारे यज्ञों में ऋषियों द्वारा प्रणीत स्तुतियों का श्रवण करें ॥२॥ उत वा यस्य वाजिनोऽनु विप्रमतक्षत । स गन्ता गोमति व्रजे ॥३॥ जिस यज्ञ के यजमान को आपने ऋषियों के अनुकूल श्रेष्ठमाग बनाया, वह यजमान गौ समूह को प्राप्त करने वाला होता है॥३॥ अस्य वीरस्य बर्हिषि सुतः सोमो दिविष्टिषु । उक्थं मदश्च शस्यते ॥४॥ स्वर्ग सुख प्राप्ति के इच्छुक लोग इन मरुद्गणों के लिए यज्ञों में कुश के आसन पर अभिषुत सोम रखते हैं और स्तोत्रों का गान करते हैं। उससे वे मरुद्गण हर्षित होते हुए प्रशंसा प्राप्त करते हैं ॥४॥ अस्य श्रोषन्त्वा भुवो विश्वा यश्चर्षणीरभि । सूरं चित्सखुषीरिषः ॥५॥ हे सर्वद्रष्टा शत्रुविजेता मरुद्गण! आप इस यजमान का निवेदन सुनें । इनके साथ हम स्तोता भी अन्नों को प्राप्त करें ॥५॥ पूर्वीभिर्हि ददाशिम शरद्भिर्मरुतो वयम् । अवोभिश्चर्षणीनाम् ॥६॥ हे मरुद्गणो ! आपके रक्षण सामथ्र्यों से युक्त होकर हम लोग पूर्व के अनेक वर्षों से व्यादि दान करते आये हैं॥६॥ सुभगः स प्रयज्यवो मरुतो अस्तु मर्त्यः । यस्य प्रयांसि पर्षथ ॥७॥ हे पूज्य मरुद्गणो ! वे मनुष्य सौभाग्यशाली हैं, जिनके हविष्यान्न का सेवन आप करते हैं॥७॥ शशमानस्य वा नरः स्वेदस्य सत्यशवसः । विदा कामस्य वेनतः ॥८॥ हे सत्यबल सम्पन्न पराक्रमी मरुद्गणो ! स्तुति करने वाले (श्रम से) पसीने से भीगे हुए याजकों को आप अभीष्ट फल प्रदान करें ॥८॥ यूयं तत्सत्यशवस आविष्कर्त महित्वना । विध्यता विद्युता रक्षः ॥९॥ हे सत्यबल युक्त मरुतो! आप अपनी तेजस्वी सामर्थ्य से राक्षसों को मारने वाले बल को प्रकट करें ॥९॥ गूहता गुह्यं तमो वि यात विश्वमत्रिणम् । ज्योतिष्कर्ता यदुश्मसि ॥१०॥ हे मरुद्गण ! गहन तमिस्रा को आप दूर करें। सभी राक्षसों को हमसे दूर भगायें। हम आपसे ज्योति रूप ज्ञान की याचना करते हैं॥१०॥

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