ऋग्वेद पंचम मण्डलं सूक्त ७८

ऋग्वेद-पंचम मंडल सूक्त ७८ ऋषिः सप्तवाधिरात्रेयः देवता - आश्विनौ । छंद अनुष्टुप, १-३ उष्णिक्, ४ त्रिष्टुप अश्विनावेह गच्छतं नासत्या मा वि वेनतम् । हंसाविव पततमा सुताँ उप ॥१॥ हे अश्विनीकुमारो ! आप हमारे यज्ञ में पधारें। जैसे दो धवल हंस जल की ओर जाते हैं, वैसे आप दोनों सोम के निकट आएँ ॥१॥ अश्विना हरिणाविव गौराविवानु यवसम् । हंसाविव पततमा सुताँ उप ॥२॥ हे अश्विनीकुमारो ! जैसे हरिण और गौर मृग तृणादि के प्रति दौड़ते हैं और हंस जैसे उदक के प्रति अवतीर्ण होते हैं, उसी प्रकार आप दोनों अभिषुत सोम के निकट अवतीर्ण हों ॥२॥ अश्विना वाजिनीवसू जुषेथां यज्ञमिष्टये । हंसाविव पततमा सुताँ उप ॥३॥ हे सेना एवं धन रखने वाले अश्विनीकुमारो ! आप दोनों हमारे इष्ट सिद्धि के लिए यज्ञ को ग्रहण करें। जैसे हंस उदक के प्रति अवतीर्ण होते हैं, उसी प्रकार आप दोनों अभिषुत सोम के निकट अवतीर्ण हों ॥३॥ अत्रिर्यद्वामवरोहन्नृबीसमजोहवीन्नाधमानेव योषा । श्येनस्य चिज्जवसा नूतनेनागच्छतमश्विना शंतमेन ॥४॥ हे अश्विनीकुमारो ! निवेदन करती हुई स्त्री के समान अत्रि ऋषि ने गहन तमिस्रा से व्याप्त लोक से मुक्ति के लिए आपका आवाहन किया था। तब आप अपने सुखकारों और नूतन रथ से श्येन पक्षी के सदृश वेगपूर्वक आये थे ॥४॥ वि जिहीष्व वनस्पते योनिः सूष्यन्त्या इव । श्रुतं मे अश्विना हवं सप्तवधिं च मुञ्चतम् ॥५॥ हे वनस्पतिदेव ! आप प्रसवोन्मुख योनि की भाँति विस्तृत (नव जीवन प्रदायक के रूप में प्रकट-विकसित) हों। हे अश्विनीकुमारो ! हमारा आवाहन सुनकर आप आएँ और मुझ सप्तवधि (इस नाम के व्यक्ति अथवा सात स्थानों से बँधे हुए प्राणी) को मुक्त करें ॥५॥ भीताय नाधमानाय ऋषये सप्तवधये । मायाभिरश्विना युवं वृक्षं सं च वि चाचथः ॥६॥ हे अश्विनीकुमारो ! सप्तवधि ने भयभीत होकर मुक्ति के लिए निवेदन किया, तो आप दोनों ने अपनी माया (कुशलता) से वनस्पति को विदीर्ण कर दिया ॥६॥ यथा वातः पुष्करिणीं समिङ्गयति सर्वतः । एवा ते गर्भ एजतु निरैतु दशमास्यः ॥७॥ वायु जिस प्रकार सरोवर को स्पन्दित करता है, उसी प्रकार आपको गर्भ दस मास का होकर, स्पन्दन युक्त होकर प्रकट हो ॥७॥ यथा वातो यथा वनं यथा समुद्र एजति । एवा त्वं दशमास्य सहावेहि जरायुणा ॥८॥ जैसे वायु, वन और समुद्र प्रकम्पित होते रहते हैं, उसी प्रकारे दस मास का गर्भस्थ जीव जरायु के साथ बाहर प्रकट हो ॥८॥ दश मासाञ्छशयानः कुमारो अधि मातरि । निरैतु जीवो अक्षतो जीवो जीवन्त्या अधि ॥९॥ माता के गर्भ में दस मास पर्यन्त सोता हुआ बालक जीवित और क्षतिरहित अवस्था में जननी से सुखपूर्वक जन्म ग्रहण करे ॥९॥

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