ऋग्वेद प्रथम मण्डल सूक्त ७५

ऋग्वेद - प्रथम मंडल सूक्त ७५ ऋषि – गौतम राहुगणः: देवता - अग्नि । छंद - गायत्री जुषस्व सप्रथस्तमं वचो देवप्सरस्तमम् । हव्या जुह्वान आसनि ॥१॥ हे अग्निदेव ! मुख में हवियों को ग्रहण करते हुए हमारे द्वारा देवों को अत्यन्त प्रसन्न करने वाले स्तुति वचनों को आप स्वीकार करें ॥१॥ अथा ते अङ्गिरस्तमाग्ने वेधस्तम प्रियम् । वोचेम ब्रह्म सानसि ॥२॥ अंगिरा (अंगों में स्थापित देवों) में श्रेष्ठ, मेधावियों में उत्कृष्ट हे अग्निदेव ! अब हम आपके निमित्त अति प्रिय मंत्र युक्त स्तोत्रों का पाठ करते हैं॥२॥ कस्ते जामिर्जनानामग्ने को दाश्वध्वरः । को ह कस्मिन्नसि श्रितः ॥३॥ हे अग्निदेवे ! मनुष्यों में आपका बन्धु कौन है ? श्रेष्ठ दान से कौन आपका यजन करता है? आपके स्वरूप को कौन जानता है? आपका आश्रय स्थल कहाँ है? ॥३॥ त्वं जामिर्जनानामग्ने मित्रो असि प्रियः । सखा सखिभ्य ईड्यः ॥४॥ हे अग्निदेव ! आप मनुष्यों से भ्रातृभाव रखने वाले, यजमानों की रक्षा करने वाले, स्तोताओं के लिए प्रिय मित्र के तुल्य हैं ॥४॥ यजा नो मित्रावरुणा यजा देवाँ ऋतं बृहत् । अग्ने यक्षि स्वं दमम् ॥५॥ हे अग्निदेव ! हमारे निमित्त मित्र और वरुण का यजन करे । विशाल यज्ञ सम्पादित करे तथा यज्ञशाला में पूजा योग्य भाव से रहें ॥५॥

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