ऋग्वेद पंचम मण्डलं सूक्त ४५

ऋग्वेद-पंचम मंडल सूक्त ४५ ऋषिः सदापृण आत्रेयः देवता - विश्वेदेवा । छंद - त्रिष्टुप, ९ पुरस्ताज्ज्योतिः विदा दिवो विष्यन्नद्रिमुक्थैरायत्या उषसो अर्चिनो गुः । अपावृत व्रजिनीरुत्स्वर्गाद्वि दुरो मानुषीर्देव आवः ॥१॥ अंगिराओं की स्तुतियों से इन्द्रदेव ने स्वर्ग से वज्र द्वारा मेघों पर संघात किया, जिससे आने वाली उषा की रश्मियों का द्वार खुला और किरणे सर्वत्र व्याप्त हो गयीं। घनीभूत तमिस्रा विनष्ट हुई और सूर्यदेव प्रकट हुए। उन सूर्यदेव ने सब मनुष्यों के द्वारों को खोला ॥१॥ वि सूर्यो अमतिं न श्रियं सादोर्वागवां माता जानती गात् । धन्वर्णसो नद्यः खादोअर्णाः स्थूणेव सुमिता हंहत द्यौः ॥२॥ जैसे मनुष्य आकर्षक वस्त्रालंकारों से सुन्दर रूप पाता है, वैसे ही सूर्यदेव विभिन्न वर्ण वाली दीप्तियों से शोभायमान होते हैं। प्रकाशक रश्मियों की मातृरूप उषा, सूर्योदय का दर्शन करते हुए विशाल आकाश से अवतीर्ण होती हैं। तट से तीव्र संघात करती हुई प्रवहमान नदियाँ अतिवेग से प्रवाहित होती हैं। घर में स्थित सुदृढ़ स्तम्भ की भाँति द्युलोक तीव्र प्रकाश से सुदृढ़ हुआ है ॥२॥ अस्मा उक्थाय पर्वतस्य गर्भो महीनां जनुषे पूर्व्याय । वि पर्वतो जिहीत साधत द्यौराविवासन्तो दसयन्त भूम ॥३॥ इन चिर-पुरातन स्तोत्रों द्वारा भूमि को उत्पादनशील बनाने के लिए मेघ का गर्भ रूप वृष्टि जल बरसता है। आकाश वृष्टि कार्य में साधन रूप में प्रयुक्त होता हैं। निरन्तर कर्मशील मनुष्य अधिक परिश्रम में उद्यत होते हैं ॥३॥ सूक्तेभिर्वो वचोभिर्देवजुष्टैरिन्द्रा न्वग्नी अवसे हुवध्यै । उक्थेभिर्हि ष्मा कवयः सुयज्ञा आविवासन्तो मरुतो यजन्ति ॥४॥ हे इन्द्र और अग्निदेवो! हम अपनी रक्षा के लिए देवों द्वारा सेवनीयसूक्तरूप वचनों से आप दोनों का आवाहन करते हैं। उत्तम प्रकार से आपका यज्ञ सम्पादन करने वाले मरुतों के सदृश आपकी परिचर्या करने वाले ज्ञानीजन आपकी पूजा करते हैं ॥४॥ एतो न्वद्य सुध्यो भवाम प्र दुच्छुना मिनवामा वरीयः । आरे द्वेषांसि सनुतर्दधामायाम प्राञ्चो यजमानमच्छ ॥५॥ (हे देवो !) आप हमारे इस यज्ञ में शीघ्र आगमन करें। हम उत्तम कर्मों को करने वाले हों। आप हमारे शत्रुओं का विनाश करें। प्रच्छन्न शत्रुओं को अतिशय दूर ही रखें और यज्ञ के निमित्त यजमानों की ओर गमन करें ॥५॥ एता धियं कृणवामा सखायोऽप या माताँ ऋणुत व्रजं गोः । यया मनुर्विशिशिप्रं जिगाय यया वणिग्व‌ङ्करापा पुरीषम् ॥६॥ हे मित्रो ! आओ हम स्तुतियाँ करें, जिसके द्वारा मातृरूप उषा ने विस्तृत किरण समूह को उत्पन्न किया; जिसके द्वारा मनु ने विशिशिप्र (वृत्र) को जीता था, और वंकु वणिक् ने विस्तृत जल-राशियों को प्राप्त किया था ॥६॥ अनूनोदत्र हस्तयतो अद्रिरार्चन्येन दश मासो नवग्वाः । ऋतं यती सरमा गा अविन्दद्विश्वानि सत्याङ्गिराश्चकार ॥७॥ जिस पाषाण से सोमरस का अभिषवण करके नवग्वों ने दस मास तक पूजा-अर्चना की, वहीं पत्थर इस यज्ञ में हाथों से संयुक्त होकर निनादित होता है। यज्ञ के अभिमुख होकर सरमा ने स्तुतियों को प्राप्त किया; तदनन्तर अङ्गिरा ने सभी कर्म सफल कर दिखाये ॥७॥ विश्वे अस्या व्युषि माहिनायाः सं यद्गोभिरङ्गिरसो नवन्त । उत्स आसां परमे सधस्थ ऋतस्य पथा सरमा विदद्गाः ॥८॥ इन पूजनीय उषा के प्रकट होने पर सभी अंगिराओं ने अपनी गौओं से दुग्ध प्राप्त किया। गौओं के दूध को उन्होंने यज्ञस्थल के उच्च- स्थान में स्थापित किया। सरमा ने यज्ञ मार्ग से गमन करते हुए उनकी स्तुतियों को जाना ॥८॥ आ सूर्यो यातु सप्ताश्वः क्षेत्रं यदस्योर्विया दीर्घयाथे । रघुः श्येनः पतयदन्धो अच्छा युवा कविर्दीदयद्गोषु गच्छन् ॥९॥ सात अश्वों से संयुक्त होकर सूर्यदेव हमारे सम्मुख आएँ, क्योंकि उन्हें दीर्घ प्रवास के लिए अत्यन्त दूर स्थित गंतव्य की ओर जाना है। वे श्येन पक्षी की तरह द्रुतगामी होकर हमारे द्वारा प्रदत्त हविष्यान्न प्राप्त करने के लिए अवतीर्ण हों। वे अत्यन्त युवा और क्रान्तदर्शी सूर्य किरणों के मध्य अवस्थित होकर देदीप्यमान हों ॥९॥ आ सूर्यो अरुहच्छुक्रमर्णोऽयुक्त यद्धरितो वीतपृष्ठाः । उद्गा न नावमनयन्त धीरा आशृण्वतीरापो अर्वागतिष्ठन् ॥१०॥ जब सूर्यदेव ने कान्तिमान् शरीर वाले अश्वों को रथ से युक्त किया, तब सूर्यदेव अन्तरिक्षव्यापी जल पर आरूढ़ हुए। तदनन्तर जैसे जल में डूबी नाव को बाहर निकालते हैं, वैसे ही विद्वानों ने स्तोत्रों से सूर्यदेव को बाहर निकाला। उनकी स्तुतियों से जल राशि भी नीचे अवतीर्ण हुई ॥१०॥ धियं वो अप्सु दधिषे स्वर्षां ययातरन्दश मासो नवग्वाः । अया धिया स्याम देवगोपा अया धिया तुतुर्यामात्यंहः ॥११॥ हे देवो ! जिन स्तुतियों से नवग्वों ने दस मास तक साध्य यज्ञ-अनुष्ठान किया था । जल प्राप्त कराने वाली, उत्तम ऐश्वर्य देने वाली उन स्तुतियों को हम धारण करते हैं। इन स्तुतियों से हम देवों द्वारा रक्षित हों और पाप-कर्मों से भी संरक्षित हों ॥११॥

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