Pengal Upanishad (पैंगल उपनिषद) द्वितीय अध्याय

॥ श्री हरि ॥ ॥ पैङ्गलोपनिषत् ॥ ॥ पैंगल उपनिषद ॥ द्वितीयोऽध्यायः द्वितीय अध्याय अथ पैङ्गलो याज्ञवल्क्यमुवाच सर्वलोकानां सृष्टिस्थित्यन्तकृद्विभूरीशः कथं जीवत्वमगमदिति । ॥१॥ पैङ्गल ऋषि ने पुनः याज्ञवल्क्य ऋषि से प्रश्न किया कि समस्त लोकों की सृष्टि, उनका पालन और अन्त करने वाला विभु ईश्वर किस तरह जीवभाव को प्राप्त होता है? ॥१॥ स होवाच याज्ञवल्क्यः स्थूलसूक्ष्मकारणदेहोद्भवपूर्वकं जीवेश्वरस्वरूपं विविच्य कथयामीति सावधानेनैकाग्रतया श्रूयताम् । ईशः पञ्चीकृतमहाभूतलेशानादाय व्यष्टिसमष्ट्यात्मकस्थूलशरीराणि यथाक्रममकरोत् । कपालचर्मान्त्रास्थिमांसनखानि पृथिव्यंशाः । रक्तमूत्रलालास्वेदादिकमवंशाः । क्षुत्तृष्णोष्णमोहमैथुनाद्या अग्यंशाः । प्रचारणोत्तारणश्वासादिका वाय्वंशाः । कामक्रोधादयो व्योमांशाः । एतत्सङ्घातं कर्मणि सञ्चितं त्वगादियुक्तं बाल्याद्यवस्थाभिमानास्पदं बहुदोपाश्रयं स्थूलशरीरं भवति ॥ ॥२॥ याज्ञवल्क्य ने उत्तर दिया कि स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीरों के उद्भवपूर्वक जीव और ईश्वर के स्वरूप की विवेचना करता हूँ, उसे सावधान और एकाग्रचित्त होकर सुनो। ईश्वर ने पंचीकृत महाभूतों के अंशों को लेकर व्यष्टि और समष्टि के स्थूल शरीरों का क्रमशः सृजन किया है। कपाल, चर्म, आँते, अस्थि, मांस और नख (नाखून) ये पृथिवी तत्त्व के अंश से निर्मित हैं। रक्त, मूत्र, लाल (लार) और पसीना आदि जल तत्त्व के अंश से बने हैं। क्षुधा, तृष्णा (प्यास), उष्णता (गर्मी), मोह, मैथुन आदि अग्नि तत्त्व के अंश से बने हैं। चलना, उठना, बैठना, श्वास आदि वायु तत्त्व के अंश से हैं। काम, क्रोध आदि आकाश तत्त्व के अंश से हैं। इस प्रकार इन सबके संघात (समुच्चय) स्वरूप एवं संचित कर्मों से निर्मित त्वचा आदि से युक्त बाल्यावस्था आदि के भाव वाला अनेक दोषों का आश्रय रूप यह स्थूल शरीर होता है ॥२॥ अथापञ्चीकृतमहाभूतरजोंशभागत्रयसमष्टितः प्राणमसृजत् । प्राणापानव्यानोदानसमानाः प्राणवृत्तयः । नागकूर्मकृकरदेवदत्तधनञ्जया उपप्राणाः । हृदासननाभिकण्ठसर्वाङ्गानि स्थानानि । आकाशादिरजोगुणतुरीयभागेन कर्मेन्द्रियमसृजत् । वाक्पाणिपादपायूपास्थास्तवृत्तयः । एवं वचनादानगमनविसर्गानन्दास्तद्विषयाः ॥ भूतसत्त्वांशभागत्रयसमष्टितोऽन्तःकरणमसृजत् । अन्तःकरणमनोबुद्धिचित्ताहङ्कारास्तवृत्तयः । सङ्कल्पनिश्चयस्मरणाभिमानानुसन्धानास्तद्विषयाः । गलवदननाभिहृदयभूमध्यं स्थानम् । भूतसत्वतुरीयभागेन ज्ञानेन्द्रियमसृजत् । श्रोत्रत्वक्चक्षुर्जिव्हाघ्राणास्तवृत्तयः । शब्दस्पर्शरूपरसगन्धास्तद्विषयाः । दिग्वातार्कप्रचेतोऽश्विवह्नीन्द्रोपेन्द्रमृत्युकाः चन्द्रो विष्णुश्चतुर्वक्त्रः शम्भुश्च कारणाधिपाः ॥ ॥३॥ । इसके पश्चात् अपञ्चीकृत महाभूतों के रजोगुण युक्त अंश के तीन भागों को समन्वित करके प्राण का सृजन किया गया। प्राण, अपान, व्यान, उदान और समान ये पाँच प्राण हैं। इसी प्रकार नाग, कूर्म, कृकर, देवदत्त और धनंजय ये पाँच उपप्राण हैं। हृदय, आसन (मूलाधार), नाभि, कण्ठ और सर्वाङ्ग उस (प्राण) के स्थान हैं। आकाश आदि पञ्चमहाभूतों के रजोगुणयुक्त अंश के चतुर्थ भाग से कर्मेन्द्रियों का सृजन किया गया। वाणी, हाथ, पैर, गुदा और उपस्थ (शिश्न) इसके प्रकार हैं। वचन, आदान, गमन, विसर्जन और आनन्द ये इन (कर्मेन्द्रियों) के विषय हैं। इस प्रकार पञ्चमहाभूतों के सत्त्व अंश के तीन भागों से अन्तःकरण का सृजन किया। अन्तःकरण में मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार और उनकी वृत्तियाँ समाहित हैं। संकल्प, निश्चय, स्मरण, अभिमान तथा अनुसन्धान क्रमशः इनके विषय हैं। गला, मुख, नाभि, हृदय और भौंहों के मध्य का भाग इनके स्थान हैं। महाभूतों के सत्त्व अंश के चतुर्थ भाग से ज्ञानेन्द्रियों का सृजन किया गया। श्रोत्र, त्वचा, नेत्र, जिह्वा और घ्राण ये इनके (ज्ञानेन्द्रियों के) प्रकार हैं। शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध इनके विषय हैं। दिशाएँ, वायु, अर्क (सूर्य), वरुण, अश्विनीकुमार, अग्नि, इन्द्र, उपेन्द्र, मृत्यु के देवता यम, चन्द्र, विष्णु, ब्रह्मा और शिव ये सभी देवगण इन इन्द्रियों के स्वामी हैं ॥३॥ अथान्नमयप्राणमयमनोमयविज्ञामयानन्दमयाः पञ्च कोशाः । अन्नरसेनैव भूत्वान्नरसेनाभिवृद्धि प्राप्यान्नरसमयपृथिव्यां यद्विलीयते सोऽन्नमयकोशः । तदेव स्थूलशरीरम् । कर्मेन्द्रियैः सह प्राणादिपञ्चकं प्राणमयकोशः । ज्ञानेन्द्रियैः सह बुद्धिर्विज्ञानमयकोशः । एतत्कोशत्रयं लिङ्गशरीरम् । स्वरूपाज्ञानमानन्दमयकोशः । तत्कारणशरीरम् ॥ ॥४॥ इसके बाद अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय और आनन्दमय ये पंचकोश हैं। अन्नमय कोश वह है, जो अन्न से उत्पन्न होता है, उसी से प्रवृद्ध होता है और अन्ततः अन्न-रसमय पृथिवी में ही विलीन हो जाता है। यही स्थूल शरीर है। कर्मेन्द्रियों के साथ पंचप्राणों का समुच्चय प्राणमय कोश कहलाता है। ज्ञानेन्द्रियों सहित मन मनोमय कोश कहलाता है। ज्ञानेन्द्रियों के साथ बुद्धि का योग विज्ञानमय कोश कहलाता है। इन (प्राणमय, मनोमय और विज्ञानमय) तीनों कोशों का समुच्चय ही लिङ्ग शरीर है। जिसमें अपने स्वरूप का भान नहीं रहता है, वह आनन्दमय कोश है। इसे ही कारण शरीर कहते हैं ॥४॥ अथ ज्ञानेन्द्रियपञ्चकं कर्मेन्द्रियपञ्चकं प्राणादिपञ्चकं वियदादिपञ्चकमन्तःकरणचतुष्टयं कामकर्मतमांस्यष्टपुरम् ॥ ॥५॥ इस प्रकार ज्ञानेन्द्रिय पञ्चक, कर्मेन्द्रिय पञ्चक, प्राणादि पञ्चक, वियदादिपञ्चक (पाँच महाभूत), अन्तःकरण चतुष्टय, काम, कर्म और अविद्या ये पुर्यष्टक (आठ पुरियों का समूह) कहलाता है ॥५॥ इशाज्ञया विराजो व्यष्टिदेहं प्रविश्य बुद्धिमधिष्ठाय विश्वत्वमगमत् । विज्ञानात्मा चिदाभासो विश्वो व्यावहारिको जाग्रत्स्थूलदेहाभिमानी कर्मभूरिति च विश्वस्य नाम भवति । ॥६॥ ईश्वर की आज्ञा से विराट् ने व्यष्टि में प्रविष्ट होकर तथा बुद्धि में प्रतिष्ठित होकर विश्वत्व को प्राप्त किया अर्थात् विश्व की संज्ञा प्राप्त की। विज्ञानात्मा, चिदाभास, विश्व, व्यावहारिक, जाग्रत, स्थूल देहाभिमानी और कर्मभू ये विश्व के विभिन्न नाम हैं ॥६॥ ईशाज्ञया सूत्रात्मा व्यष्टिसूक्ष्मशरीरं प्रविश्य मन अधिष्ठाय तैजसत्वमगमत् । तैजसः प्रातिभासिकः स्वप्नकल्पित इति तैजसस्य नाम भवति । ॥७॥ ईश्वर के आदेश से सूत्रात्मा, व्यष्टि के सूक्ष्म शरीर में प्रविष्ट होकर मन में अधिष्ठित होकर तैजसत्व को प्राप्त हुआ। तैजस, प्रातिभासिक और स्वकल्पित ये तैजस के नाम हैं ॥७॥ ईशाज्ञया मायोपाधिरव्यक्तसमन्वितो व्यष्टिकारणशरीरं प्रविश्य प्राज्ञत्वमगमत् । प्राज्ञोविच्छिन्नः पारमार्थिकः सुषुप्त्यभिमानीति प्राज्ञस्य नाम भवति । ॥८॥ ईश्वर की आज्ञा से माया की उपाधि से युक्त अव्यक्त, व्यष्टि के कारण शरीर में प्रविष्ट होकर प्राज्ञत्व को प्राप्त हुआ। प्राज्ञ, अविच्छिन्न, पारमार्थिक और सुषुप्ति-अभिमानी ये प्राज्ञ के नाम हैं ॥८॥ अव्यक्तलेशाज्ञानाच्छादितपारमार्थिकजीवस्य तत्त्वमस्यादिवाक्यानि ब्रह्मणैकतां जगुः नेतरयोव्र्व्यावहारिकप्रातिभासिकयोः । ॥९॥ पारमार्थिक जीव के ऊपर अव्यक्त का अंश रूप अज्ञान आच्छादित है। वह भी ब्रह्म का ही अंश है। 'तत्त्वमसि' आदि वाक्यों से ब्रह्म की एकता प्रकट होती है, परन्तु व्यावहारिक और प्रतिभासिक अंश ब्रह्म से इस प्रकार की एकता नहीं रखते ॥९॥ अन्तःकरणप्रतिबिम्बितचैतन्यं यत्तदेवावस्थात्रयभाग्भवति । स जाग्रत्स्वप्नसुषुप्त्यवस्थाः प्राप्य घटीयन्त्रवदुद्विग्नो जातो मृत इव स्थितो भवति । ॥१०॥ अन्तःकरण में जो चैतन्य प्रतिबिम्बित होता है, वही अवस्थात्रय (जाग्रत्, स्वप्न और सुषुप्ति) का भागी होता है। चैतन्य तत्त्व ही उपर्युक्त तीनों अवस्थाओं को प्राप्त होकर घटीयन्त्र के समान उद्विग्न (चंचल) होता है, जो निरन्तर जन्म-मरण को प्राप्त होता रहता है ॥१०॥ अथ जाग्रत्स्वप्नसुषुप्तिमूर्च्छामरणाद्यवस्थाः पञ्च भवन्ति ॥ तत्तद्देवताग्रहान्वितैः श्रोत्रादिज्ञानेन्द्रियैः शब्द्याद्यर्थविषयग्रहणज्ञानं जाग्रदवस्था भवति । तत्र भूमध्यं गतो जीव आपादमस्तकं व्याप्य कृषिश्रवणाद्यखिलक्रियाकर्ता भवति । तत्तत्फलभुक् च भवति । लोकान्तरगतः कर्मार्जितफलं स एव भुङ्क्ते । स सार्वभौमवव्यवहाराच्छ्रान्त अन्तर्भवनं प्रवेष्टुं मार्गमाश्रित्य तिष्ठति । ॥११॥ इस प्रकार जाग्रत्, स्वप्न, सुषुप्ति, मूच्छा और मरण ये पाँच अवस्थाएँ होती हैं। जाग्रत् अवस्था उसे कहते हैं, जिसमें श्रोत्र आदि ज्ञानेन्द्रियाँ अपने-अपने देवता के अनुग्रह (शक्ति) से युक्त होकर शब्दादि विषयों को ग्रहण करती हैं। इसे अवस्था में जीव भूमध्य में निवास करते हुए पैरों से लेकर मस्तक पर्यन्त व्याप्त रहता है। और कृषि से श्रवण तक (अर्थात् अपनी कर्मेन्द्रियों और ज्ञानेन्द्रियों के) समस्त कार्यों को सम्पादित करता हुआ उनके फल भी प्राप्त करता है। वह अपने इन अर्जित कर्मों का फल लोकान्तर (परलोक) में भी भोगता है। वह सार्वभौम के समान लौकिक कार्यों से थककर विश्रान्ति पाने हेतु अन्दर के विश्राम स्थल में जाने की इच्छा से मार्ग में ही आश्रय लेकर ठहरता है ॥११॥ करणोपरमे जाग्रत्संस्कारोत्थप्रबोधवगाह्यग्राहकरूपस्फुरणं स्वप्नावस्था भवति । तत्र विश्व एव जाग्रव्यवहारलोपान्नाडीमध्यं चरंस्तैजसत्वमवाप्य वासनारूपकं जगद्वैचित्र्यं स्वभासा भासयन्यथेप्सितं स्वयं भुङ्क्ते ॥ ॥१२॥ इन्द्रियों के अपने कार्यों से उपराम हो जाने पर, जाग्रत् अवस्था के संस्कारों से ग्राह्य-ग्राहक रूप जो अर्ध प्रबोधवत् स्फुरणा होती है, उसे स्वप्नावस्था कहते हैं। उस अवस्था में विश्व (स्थूल शरीर भी व्यष्टिचेतना शक्ति) जाग्रत् अवस्था के व्यवहार के लोप हो जाने से नाड़ी के बीच में संचरित होता हुआ तैजसत्व को प्राप्त करता है। तत्पश्चात् अपनी वासना के अनुरूप अपने ही भासा (तेज) के द्वारा एक विचित्र जगत् की सृष्टि करता है और स्वयं ही अपनी इच्छानुसार उसका भोग करता है ॥१२॥ चित्तैककरणा सुषुप्त्यवस्था भवति । भ्रमविश्रान्तशकुनिः पक्षौ संहृत्य नीडाभिमुखं यथा गच्छति तथा जीवोऽपि जाग्रत्स्वप्नप्रपञ्चे व्यवहृत्य श्रान्तोऽज्ञानं प्रविश्य स्वानन्दं भुङ्क्ते ॥ ॥१३॥ चित्त की एकीकरण (एकाग्रता से युक्त) अवस्था ही सुषुप्ति अवस्था होती है। जिस प्रकार भ्रमण से थककर पक्षी पंखों को समेट कर अपने नीड़ (घोंसले) की ओर गमन करता है, उसी प्रकार जीव भी जाग्रत् और स्वप्नावस्था के प्रपञ्चों से थक जाने पर अज्ञान में प्रविष्ट होकर आनन्द भोगता है ॥१३॥ अकस्मान्मुद्गरदण्डाद्यैस्ताडितवद्भयाज्ञानाभ्यामिन्द्रियसङ्घ आतैः कम्पन्निव मृततुल्या मूर्च्छा भवति । ॥१४॥ अकस्मात् मुद्गर और दण्ड आदि के द्वारा ताड़ित किये जाने पर जिस प्रकार व्यक्ति कम्पित होता है, उसी प्रकार मूच्छा की स्थिति में भी भय और अज्ञान के कारण समस्त इन्द्रियाँ कम्पित होती हैं। यह अवस्था (मूच्छा) मृत तुल्य होती है ॥१४॥ जाग्रत्स्वप्नसुषुप्तिमूर्च्छावस्थानामन्या ब्रह्मादिस्तम्बपर्यन्तं सर्वजीवभयप्रदा स्थूलदेहविसर्जनी मरणावस्था भवति । ॥१५॥ जाग्रत्, स्वप्न, सुषुप्ति और मूच्छा अवस्थाओं से भिन्न एक अवस्था है, जो ब्रह्म (अत्यधिक महान्) से लेकर तिनका (अत्यधिक तुच्छ) पर्यन्त सभी जीवों के लिए भयप्रदा है, जिसके प्राप्त होने पर स्थूल शरीर को परित्याग करना पड़ता है, वह मरणावस्था होती है ॥१५॥ कर्मेन्द्रियाणि ज्ञानेन्द्रियाणितत्तद्विषयान्प्राणान्संहृत्य कामकर्मान्वित अविद्याभूतवेष्टितो जीवो देहान्तरं प्राप्य लोकान्तरं गच्छति । प्राक्कर्मफलपाकेनावर्तान्तरकीटवद्विश्रान्तिं नैव गच्छति । ॥१६॥ उस समय (मृत्यु हो जाने पर) कर्मेन्द्रियों, ज्ञानेन्द्रियों, उनके विषय (तन्मात्राओं), प्राणों को एकत्र करके काम और कर्म से समन्वित हुआ जीव अविद्या से आवेष्टित होकर अन्य शरीर को प्राप्त करके दूसरे लोक (परलोक) में गमन करता है। पूर्वकृत कर्मों के फलभोग में फँसे रहने के कारण वह (जीव), उसी प्रकार शान्ति प्राप्त नहीं कर पाता, जिस प्रकार मँवर में फँसा हुआ कीट ॥१६॥ सत्कर्मपरिपाकतो बहूनां जन्मनामन्ते नृणां मोक्षेच्छा जायते । तदा सद्‌गुरुमाश्रित्य चिरकालसेवया बन्धं मोक्षं कश्चित्प्रयाति । ॥१७॥ सत्कर्मों के परिपक्व हो जाने पर जब अनेक जन्मों के पश्चात् मनुष्य की मोक्ष प्राप्त करने की (बलवती) इच्छा उत्पन्न होती है, तब वह किसी सद्‌गुरु का अवलम्बन लेकर, लम्बे समय तक उनकी सेवा करके (ज्ञान प्राप्ति के पश्चात्) बन्धन से मुक्त होकर मोक्ष प्राप्त कर लेता है ॥१७॥ अविचारकृतो बन्धो विचारान्मोक्षो भवति । तस्मात्सदा विचारयेत् । अध्यारोपापवादतः स्वरूपं निश्चयीकर्तुं शक्यते । तस्मात्सदा विचारयेज्जगज्जीवपरमात्मनो जीवभावजगद्भावबाधे प्रररत्यगभिन्नं ब्रह्मैवावशिष्यत इति ॥ ॥१८॥ अविचार करने से बन्धन और विचार (सविचार) करने से मोक्ष होता है। इसलिए सदैव विचार (सविचार) करना चहिए। अध्यारोप और अपवाद से स्वरूप का निश्चय किया जा सकता है। इसलिए सदा जगत्, जीव और परमात्मा के विषय में ही विचार (चिन्तन) करना चाहिए। जीव भाव और जगद्भाव को निराकरण करने से अपने प्रत्यगात्मा (जीव) से अभिन्न केवल ब्रह्म ही अवशिष्ट रहता है ॥१८॥ इति द्वितीयोऽध्यायः ॥ २॥ ॥ द्वितीय अध्याय समात ॥

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