ऋग्वेद चतुर्थ मण्डलं सूक्त ५२

ऋग्वेद-चतुर्थ मंडल सूक्त ५२ ऋषि - वामदेवो गौतमः देवता - उषा । छंद -गायत्री प्रति ष्या सूनरी जनी व्युच्छन्ती परि स्वसुः । दिवो अदर्शि दुहिता ॥१॥ सब प्राणियों की प्रेरक, फल प्रदायक, अपनी बहिन के तुल्य रात्रि के अन्त में प्रकाश फैलाने वाली सूर्य पुत्री उषा को सब देखते हैं ॥१॥ अश्वेव चित्रारुषी माता गवामृतावरी । सखाभूदश्विनोरुषाः ॥२॥ चपला (बिजली) के समान अद्भुत दीप्तिमान् किरणों की माता, यज्ञ आरम्भ करने वाली उषा अश्विनीकुमारों की मित्र हैं ॥२॥ उत सखास्यश्विनोरुत माता गवामसि । उतोषो वस्व ईशिषे ॥३॥ आप अश्विनीकुमारों की मित्र हैं और दीप्तिमान् रश्मियों की रचयित्री हैं, इसलिए हे उषा देवि ! आप स्तुति योग्य हैं ॥३॥ यावयद्द्वेषसं त्वा चिकित्वित्सूनृतावरि । प्रति स्तोमैरभुत्स्महि ॥४॥ हे मधुर बोलने वाली उषा देवि! आप रिपुओं को अलग करने वाली हैं। आप ज्ञान सम्पन्न हैं। स्तुतियों के द्वारा हम आपको जाग्रत् करते हैं ॥४॥ प्रति भद्रा अदृक्षत गवां सर्गा न रश्मयः । ओषा अप्रा उरु ज्रयः ॥५॥ हितकारी रश्मियाँ गौओं के समूह के समान दिखायी पड़ रही हैं। वे देवी उषा विशेष तेजस् को सब जगह भर देती हैं ॥५॥ आपप्रुषी विभावरि व्यावज्र्योतिषा तमः । उषो अनु स्वधामव ॥६॥ हे दीप्तिमती उषा देवि ! आप संसार को तेज के द्वारा पूर्ण करने वाली हैं, अंधकार को प्रकाश के द्वारा दूर करने वाली हैं। इसके बाद आप अपनी धारण करने वाली शक्ति को संरक्षित करने वाली हों ॥६॥ आ द्यां तनोषि रश्मिभिरान्तरिक्षमुरु प्रियम् । उषः शुक्रेण शोचिषा ॥७॥ हे उषा देवि ! आप अपनी रश्मियों के द्वारा द्युलोक को पूर्ण कर देती हैं तथा पवित्र प्रकाश के द्वारा प्रीतियुक्त विशाल आकाश को भी पूर्ण कर देती हैं ॥७॥

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