Maha Upanishad Chapter 4 (महा उपनिषद) चतुर्थ अध्याय

॥ श्री हरि ॥ ॥ महोपनिषत् ॥ ॥ महा उपनिषद ॥ चतुर्थोऽध्यायः चतुर्थ अध्याय निदाघ तव नास्तन्यज्ज्ञेयं ज्ञानवतां वर । प्रज्ञया त्वं विजानासि ईश्वरानुगृहीतया । चित्तमालिन्यसंजातं मार्जयामि भ्रमं मुने ॥ १॥ मोक्षद्वारे द्वारपालश्चत्वारः परिकीर्तिताः । शमो विचारः सन्तोषश्चतुर्थः साधुसङ्गमः ॥ २॥ एकं वा सर्वयत्नेन सर्वमुत्सृज्य संश्रयेत् । एकस्मिन्वशगे यान्ति चत्वारोऽपि वशं गताः ॥ ३॥ अपने पुत्र निदाघ मुनि की सभी बातें सुनकर ऋषिवर ऋभु ने कहा- हे प्रभु! तुम ज्ञानियों में सर्वश्रेष्ठ हो। अब तुम्हारे लिए कुछ भी जानकारी के योग्य शेष नहीं रह गया है। तुम ईश्वर की महती कृपा से अपनी ही प्रज्ञाबुद्धि के द्वारा सभी कुछ समझ गये हो। फिर भी हे मुने ! तुम्हारे चित्त में मलिनता के द्वारा जो भी भ्रम प्रादुर्भूत हुआ है, उसका मैं निवारण करूंगा। शम (मनोनिग्रह), विचार, संतोष एवं सत्संग ही मोक्षद्वार के चार द्वारपाल के रूप में कहे गये हैं। यदि इनमें से किसी एक का भी आश्रय प्राप्त कर लिया जाये, तो शेष तीनों द्वारपाल सहजतापूर्वक स्वयमेव ही अपने वश में हो जाते हैं॥१-३॥ शास्त्रैः सज्जनसम्पर्कपूर्वकैश्च तपोदमैः । आदौ संसारमुक्त्यर्थं प्रज्ञामेवाभिवर्धयेत् ॥ ४॥ स्वानुभूतेश्च शास्त्रस्य गुरोश्चेवैकवाक्यता । यस्याभ्यासेन तेनात्म सततं चावलोक्यते ॥ ५॥ सर्वप्रथम इस नश्वर जगत् से मोक्ष प्राप्त करने के लिए तप, दम (इन्द्रिय निग्रह), शास्त्र एवं सत्संग के द्वारा अपने सज्ञान को बढ़ाया जाना चाहिए। अपनी आत्मा के अनुभव, शास्त्रों एवं गुरु के वचनों के उपदेश से सतत अभ्यास द्वारा आत्मचिन्तन करना चाहिए ॥४-५॥ संकल्पाशानुसन्धानवर्जनं चेत्प्रतिक्षणम् । करोषि तदचित्तत्वं प्राप्त एवासि पावनम् ॥ ६॥ चेतसो यदकर्तृत्वं तत्समाधानमीरितम् । तदेव केवलीभावं साशुभा निर्वृतिः परा ॥ ७॥ चेतसा सम्परित्यज्य सर्वभावात्मभावनाम् । यथा तिष्ठसि तिष्ठ त्वं मूकान्धबधिरोपमः ॥ ८॥ सर्वं प्रशान्तमजमेकमनादिमध्य- माभास्वरं स्वदनमात्रमचैत्यचिह्नम् । सर्वं प्रशान्तमिति शब्दमयी च दृष्टि- र्बा बाधार्थमेव हि मुधैव तदोमितीदम् ॥ १०॥ नित्यप्रबुद्धचित्तस्त्वं कुर्वन्वापि जगत्क्रियाम् । आत्मैकत्वं विदित्वा त्वं तिष्ठाक्षुब्धमहाब्धिवत् ॥ ११॥ यदि तुमने सदैव के लिए संकल्प एवं आशा के अनुसन्धान का परित्याग कर दिया है, तो तुम्हें वह कैवल्य की प्राप्ति हो ही गयी होगी। जो चित्त का अकर्तृत्व है, वही चित्त-वृत्तियों का निरोध अर्थात् समाधि कही गयी है। यही कैवल्यावस्था एवं परम कल्याणस्वरूपा परम शान्ति कहलाती है। इस जगत् के सम्पूर्ण पदार्थों में आत्म भावना का सम्यक् रूप से त्याग करके संसार में गैंगे, अंधे एवं बधिरों के समान तुम्हारे रहने से ही यह संभव है। सभी कुछ प्रशान्त है, एक है, जन्मरहित है, केवल अनुभवगम्य है, चित्तरहित है आदि जो शब्दरूप दृष्टि है, वह व्यर्थ ही है। आत्मबोध में बाधास्वरूप है। जो कुछ भी प्रपञ्च में दृष्टिगोचर होता हैतत्त्वतः वही प्रणवरूप है। यहाँ पर जो कुछ भी दृष्टिगोचर होता है- वही दृश्य चिद्-जगत् में भी दृष्टिगोचर होते हैं, वह चित् के निष्पन्द का एक अंशरूप ही है। अतः चित् से (चैतन्य से) अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है, तुम ऐसी ही भावना करो । सांसारिक कार्यों को सतत करते हुए भी नित्य प्रबुद्धचित्त होकर आत्मा के एकत्व को जानकर प्रशान्त रहने वाले महासागर के सदृश निश्चल एवं स्थिरचित्त बने रहो। ऐसे ही कार्य करने में कल्याण की सम्भावनायें हैं॥६-११॥ तत्त्वावबोध एवासौ वासनातृणपावकः । प्रोक्तः समाधिशब्देन नतु तूष्णीमवस्थितिः ॥ १२॥ निरिच्छे संस्थिते रत्ने यथा लोकः प्रवर्तते । सत्तामात्रे परे तत्त्वे तथैवायं जगद्गणः ॥ १३॥ अतश्चात्मनि कर्तृत्वमकर्तृत्वं च वै मुने । निरिच्छत्वादकर्तासौ कर्ता संनिधिमात्रतः ॥ १४॥ ते द्वे ब्रह्मणि विन्देति कर्तृताकर्तृते मुने । यत्रैवैष चमत्कारस्तमाश्रित्य स्थिरो भव ॥ १५॥ तस्मान्नित्यमकर्ताहमिति भावनयेद्धया । परमामृतनाम्नी सा समतैवावशिष्यते ॥ १६॥ यह आत्मज्ञान वासनारूपी तृण को दग्ध कर देने वाले अग्नि के सदृश है। इसे ही समाधि कहते हैं। केवल मौन रहकर बैठे रहना ही समाधि नहीं है। जैसे रत्न के इच्छारहित होकर पड़े रहने पर भी मनुष्य उसकी तरफ आकृष्ट होते ही हैं, वैसे ही मात्र सत्तारूप में विद्यमान परमात्म तत्त्व की ओर भी सम्पूर्ण विश्व आकृष्ट होता है। अतः हे पुत्र! इस आत्मा में ही कर्तृत्व एवं अकर्तृत्व दोनों ही स्थित हैं। कामनाविहीन रहने पर ही आत्मा अकर्ता है और सन्निधि मात्र से वह कर्ता बन जाता है। हे मुने! कर्तृत्व एवं अकर्तृत्व इन दोनों का ही निवास अविनाशी परमात्मा में है। तुम्हें यह चमत्कार जिसमें भी परिलक्षित हो, उसी में प्रतिष्ठित हो जाओ। मैं नित्य ही अकर्ता हूँ', ऐसी भावना करने पर केवल परमअमृत नामक सत्ता ही शेष रह जाती है॥ १२-१६ ॥ निदाघ शृणु सत्त्वस्था जाता भुवि महागुणाः । ते नित्यमेवाभ्युदिता मुदिताः स्व इवेन्दवः ॥ १७॥ नापदि ग्लानिमायान्ति निशि हेमाम्बुजं यथा । नेहन्ते प्रकृतादन्यद्रमन्ते शिष्टवत्र्त्मनि ॥ १८॥ आकृत्यैव विराजन्ते मैत्र्यादिगुणवृत्तिभिः । समाः समरसाः सौम्य सततं साधुवृत्तयः ॥ १९॥ अब्धिवद्धतमर्याद भवति विशदाशयाः । नियतिं न विमुञ्चन्ति महान्तो भास्करा इव ॥ २०॥ अतः हे निदाघ! जो प्राणी सत्त्व में स्थित होकर इस लोक में प्रकट हुए हैं, वे ही महान् गुणवान् हैं। वे ही सदा उन्नतिशील होते हुए आकाश में स्थित चन्द्रमा के समान हर्षित होते रहते हैं। सत्त्वगुण में स्थित मनुष्य स्वर्णिम कमल की भाँति रात्रिकालरूप आपत्तियों में कुम्हलाते नहीं हैं। वे प्राप्त भोगों के अतिरिक्त अन्य पदार्थों की इच्छा नहीं करते, वरन् शास्त्रोक्त मार्ग में ही भ्रमण करते रहते हैं। वे स्वतः अपने मन के अनुकूल रहकर ही मैत्री, करुणा, मुदिता एवं उपेक्षा आदि गुणों से विभूषित होते रहते हैं। हे सौम्य ! वे समान भाव में रहते हुए सतत साधु वृत्ति में एकरस बने रहते हैं। मर्यादा से परे होकर भी वे समुद्र के समान विशाल हृदय वाले हो जाते हैं। वे भगवान् भास्कर की भाँति अपने नियत-पथ पर हमेशा गमन करते रहते हैं॥ १७-२०॥ कोऽहं कथमिदं चेति संसारमलमाततम् । प्रविचार्यं प्रयत्नेन प्राज्ञेन सहसाधुना ॥ २१॥ नाकर्मसु नियोक्तव्यं नानार्येण सहावसेत् । द्रष्टव्यः सर्वसंहर्ता न मृत्युरवहेलया ॥ २२॥ शरीरमस्थिमांसं च त्यक्त्वा रक्ताद्यशोभनम् । भूतमुक्तावलीतन्तुं चिन्मात्रमवलोकयेत् ॥ २३॥ उपादेयानुपतनं हेयैकान्तविसर्जनम् । यदेतन्मनसो रूपं तद्वाह्यं विद्धि नेतरत् ॥ २४॥ गुरुशास्त्रोक्तमार्गेण स्वानुभूत्या च चिद्धने । ब्रह्मवाहमिति ज्ञात्वा वीतशोको भवेन्मुनिः ॥ २५॥ प्राज्ञों, संतजनों के साथ प्रयत्नपूर्वक यह चिन्तन करना चाहिए कि 'मैं कौन हूँ?" यह विराट् विश्व-प्रपञ्च किस प्रकार प्रादुर्भूत हुआ? कभी निरर्थक कार्यों में न लगा रहे तथा अनार्य पुरुष के संग से सदैव अपने को बचाता रहे। सभी की संघारक, मृत्यु के प्रति उपेक्षा भाव से न देखे। यदि उपेक्षा करनी ही है, तो शरीर, अस्थि, मांस एवं रक्त आदि को घृणास्पद जानकर उनकी उपेक्षा करनी चाहिए। जिस प्रकार मोती की लड़ियों में सूत्र पिरोया जाता है, उसी प्रकार प्राणियों में पिरोये हुए परमपिता परमात्मा पर ही दृष्टि रखे। उपयोगी वस्तु की ओर भागना एवं अनुपयोगी वस्तु का सदैव के लिए त्याग कर देना ही मन का स्वभाव है। वह बाह्य है, आन्तरिक नहीं, इसे जानना चाहिए। परमात्मतत्त्व के विषय में गुरु एवं शास्त्र के अनुसार बताये हुए मार्ग से तथा स्वानुभूति से 'मैं ही ब्रह्म हूँ', ऐसा जानकर शोक- रहित हो जाए॥२१-२५॥ यत्र निशितासिशतपातनमुत्पलताडनवत्सोढव्यमग्निना दाहो हिमसेचनमिवाङ्गारवर्तनं चन्दनचर्चेव निरवधिनाराचविकिरपातो निदाघविनोदनधारा- गृहशीकरवर्षणमिव स्वशिरच्छेदः सुखनिद्रेव मूकीकरणमाननमुद्रेव बाधिर्यं महानुपचय इवेदं नावहेलनया भवितव्यमेवं दृढवैराग्याद्बोधो भवति ॥ गुरुवाक्यसमुद्‌भूतस्वानुभूत्यादिशुद्धया । यस्याभ्यासेन तेनात्मा सततं चावलोक्यते ॥ २६॥ ऐसी अवस्था में खड्ग जैसा कठोर आघात, कमल के कोमल आघात के सदृश तथा अग्नि द्वारा दग्ध किये जाने का प्रभाव, शीतल जल में स्नान करने की भाँति सहन करने योग्य हो जाता है। आग के दहकते अंगारों पर लेटना, चन्दन के लेप के समान शीतल प्रतीत होता है। शरीर पर सतत बाणों के समूह का आघात, गर्मी को शान्त करने वाले फव्वारे के जलकणों की वर्षा के सदृश बन जाता है। सिर का काटा जाना, सुखप्रदायिनी निद्रा के समान; (जिह्वा आदि काटकर) गूंगा हो जाना, मौनावलम्बन के समान; बधिर हो जाना, उन्नति के समान सुख प्रदायी होता है; लेकिन यह अवस्था उपेक्षा करने से नहीं मिलती। इसकी प्राप्ति दृढ़निश्चयी होकर वैराग्यजनित आत्मज्ञान से ही सम्भव है। गुरु एवं शास्त्र वचनों के अनुसार तथा अन्तः अनुभूति के माध्यम आदि से जो अन्तः की शुद्धि होती है, उसी के सतत अभ्यास से आत्म-साक्षात्कार किया जा सकता है॥२६॥ विनष्टदिग्भ्रमस्यापि यथापूर्वं विभाति दिक् । तथा विज्ञानविध्वस्तं जगन्नास्तीति भावय ॥ २७॥ न धनान्य्पकुर्वन्ति न मित्राणि न बान्धवाः । न कायक्लेशवैधुर्यं न तीर्थायतनाश्रयः । केवलं तन्मनोमात्रमयेनासाद्यते पदम् ॥ २८॥ जैसे दिशा-भ्रम नष्ट हो जाने से पूर्व की भाँति ही दिशाबोध होने लगता है, वैसे ही विज्ञान (विशिष्ट ज्ञान) के द्वारा अज्ञान नष्ट हो जाने पर जगत् की स्थिति नहीं रहती, ऐसी भावना करनी चाहिए । मनुष्य का उपकार न धन से, न मित्रों से, न बान्धवों से; न शारीरिक क्लेश के नष्ट होने से और न ही तीर्थ स्थल में निवास करने से ही मनुष्य लाभान्वित होता है; वह तो चिन्मात्र में विलीन होकर ही परमपद प्राप्त कर सकता है॥२७-२८॥ यानि दुःखानि या तृष्णा दुःसहा ये दुराधयः । शान्तचेतःसु तत्सर्वं तमोऽर्केष्विव नश्यति ॥ २९॥ मातरीव परं यान्ति विषमाणि मृदूनि च । विश्वासमिह भूतानि सर्वाणि शमशालिनि ॥ ३०॥ न रसायनपानेन न लक्ष्म्यालिङ्गितेन च । न तथा सुखमाप्नोति शमेनान्तर्यथा जनः ॥ ३१॥ श्रुत्वा स्पृष्ट्वा च भुक्त्वा च दृष्ट्वा ज्ञात्वा शुभाशुभम् । न हृष्यति ग्लायति यः स शान्त इति कथ्यते ॥ ३२॥ तुषारकरबिंबाच्छं मनो यस्य निराकुलम् । मरणोत्सवयुद्धेषु स शान्त इति कथ्यते ॥ ३३॥ तपस्विषु बहुज्ञेषु याजकेषु नृपेषु च । बलवत्सु गुणाढ्येषु शमवानेव राजते ॥ ३४॥ स्थिर शान्तचित्त वाले व्यक्तियों के जितने भी दुःख, तृष्णायें एवं दुःसह दुश्चिन्तायें हैं, वे और समस्त विकार ठीक वैसे ही विनष्ट हो जाते हैं, जैसे कि सूर्य की किरणों से अन्धकार विनष्ट हो जाता है। इस नश्वर जगत् में शम (मनोनिग्रह) से युक्त मनुष्य का कठोर एवं मृदु स्वभाव के समस्त प्राणी-जन वैसे ही विश्वास करते हैं, जैसा माता पर उसके पुत्र विश्वास करते हैं। अमृत-पान एवं लक्ष्मी के आलिङ्गन से वैसा सुख नहीं प्राप्त होता, जैसा सुख व्यक्ति अपने मन की शान्ति से प्राप्त करता है। शुभ एवं अशुभ के श्रवण से, भोजन से, स्पर्श से, दर्शन से एवं जानने से, जिस मनुष्य को न तो प्रसन्नता होती है और न ही दुःख होता है, वही मनुष्य शान्त कहलाता है। चन्द्रमा के मण्डल की भाँति जिसका मन सदा स्वच्छ रहता है एवं मरण-काल, मांगलिक उत्सव तथा युद्ध में जिसका मन व्यग्र नहीं होता, वही मनुष्य शान्त कहलाता है। वह (शम प्रधान) पुरुष तपस्वी जनों में, बहुश्रुतों में, याज्ञिकों में, राजाओं में, वन में वास करने वालों में एवं गुणज्ञों में भी शोभायमान होता है॥२९-३४॥ सन्तोषामृतपानेन ये शान्तास्तृप्तिमागताः । आत्मारामा महात्मानस्ते महापदमागताः ॥ ३५॥ अप्राप्तं हि परित्यज्य सम्प्राप्ते समतां गतः । अदृष्टखेदाखेदो यः सन्तुष्ट इति कथ्यते ॥ ३६॥ नाभिनन्दत्यसम्प्राप्तं प्राप्तं भुङ्क्ते यथेप्सितम् । यः स सौम्यसमाचारः सन्तुष्ट इति कथ्यते ॥ ३७॥ रमते धीर्यताप्राप्ते साध्वीवाऽन्तः पुराजिरे । सा जीवन्मुक्ततोदेति स्वरूपानन्ददायिनी ॥ ३८॥ जो सन्तोषरूपी अमृत को पीकर शान्त एवं सन्तुष्ट हो जाते हैं, वे ही ज्ञानीजन आत्मा में रमण करते हुए महापद (परमात्मपद) को प्राप्त करते हैं। जो प्राप्त न होने वाली वस्तु के प्रति चिन्तित नहीं होता और प्राप्त होने वाली वस्तु के प्रति समान (हर्ष रहित) रहता है, जिसने सुख एवं दुःख का अवलोकन नहीं किया, वास्तव में वही सन्तुष्ट कहा जाता है । जो अप्राप्त वस्तु की कभी आकांक्षा नहीं करता तथा उपलब्ध वस्तु का आवश्यकतानुसार ही उपभोग करता है, वही सौम्य एवं समभाव से श्रेष्ठ आचरण करने वाला व्यक्ति सन्तुष्ट कहा जाता है। अन्तःपुर के प्राङ्गण में जिस तरह साध्वी पत्नी प्रसन्न रहती है, वैसे ही सहज क्रम में प्राप्त वस्तु में जब बुद्धि रमण करने लगती है, तभी वह स्वरूपानंद प्रदायी जीवन्मुक्त स्थिति कहलाती है॥३५- ३८॥ यथाक्षणं यथाशास्त्रं यथादेशं यथासुखम् । यथासंभवसत्सङ्ग‌मिमं मोक्षपथक्रमम् । तावद्विचारयेत्प्राज्ञो यावद्विश्रान्तिमात्मनि ॥ ३९॥ तुर्यविश्रान्तियुक्तस्य निवृत्तस्य भवार्णवात् । जीवतोऽजीवतश्चैव गृहस्थस्याथवा यतेः ॥ ४०॥ नाकृतेन कृतेनार्थो न श्रुतिस्मृतिविभ्रमैः । निर्मन्दर इवाम्बोधिः स तिष्ठति यथास्थितः ॥ ४१॥ समय एवं देश के अनुसार शास्त्रानुकूल आनन्दपूर्वक यथाशक्ति सत्संग में ही विचरण करते हुए इस मोक्षपथ के क्रम का तब तक ज्ञानीजन चिन्तन करते रहें, जब तक कि उन्हें आत्मिक विश्रान्ति न मिल जाये। सद्गृहस्थ हो अथवा संन्यासी, जो भी व्यक्ति तुरीयावस्था की विश्रान्ति से सम्पन्न है एवं इस संसार सागर से निवृत्त हो गया है, वह चाहे सांसारिक जीवन में व्यस्त रहे अथवा न रहे, उसे कोई भी कार्य करने या न करने से कोई मतलब नहीं है। उसे श्रुति-स्मृति के भ्रमजाल में पड़ने की कोई आवश्यकता नहीं रहती। वह तो मन्दराचल से विहीन (शान्त) सागर की भाँति आत्म-स्थित रहते हुए सभी कुछ प्राप्त कर लेता है॥३९-४१॥ सर्वात्मवेदनं शुद्धं यदोदेति तवात्मकम् । भाति प्रसृतिदिक्कालबाह्यं चिद्रूपदेहकम् ॥ ४२॥ एवमात्मा यथा यत्र समुल्लासमुपागतः । तिष्ठत्याशु तथा तत्र तद्रूपश्च विराजते ॥ ४३॥ जब सभी के प्रति शुद्ध आत्मतत्त्व की अनुभूति की तदात्मक (एकत्व) वृत्ति का उदय हो जाता है, तब दिशा एवं काल में विस्तीर्ण हुआ सम्पूर्ण बाह्य जगत्, चिद्रूपात्मक ही प्रतीत होता है। इस तरह आत्मा जहाँ जिस रूप में उल्लास को प्राप्त होता है, वहाँ शीघ्र ही उसी रूप में वह अवस्थित हो जाता है एवं तदनुरूप ही विराजमान हो जाता है॥४२-४३॥ यदिदं दृश्यते सर्वं जगत्स्थावरजङ्गमम् । तत्सुषुप्ताविव स्वप्नः कल्पान्ते प्रविनश्यति ॥ ४४॥ ऋतमात्मा परंब्रह्म सत्यमित्यादिका बुधैः । कल्पिता व्यवहारार्थं यस्य संज्ञा महात्मनः ॥ ४५॥ यथा कटकशब्दार्थः पृथग्भावो न काञ्चनात् । न हेमकटकात्तद्वज्जगच्छब्दार्थता परा ॥ ४६॥ जो भी कुछ स्थावर एवं जंगम दृश्यरूप यह सम्पूर्ण जगत् परिलक्षित होता है, वह प्रलय के समय में ठीक वैसे ही विनष्ट हो जाता है, जैसे सुषुप्तावस्था में स्वप्न अदृश्य हो जाता है। यह आत्मा ऋत (आदिकारण) रूप है, परब्रह्म परमेश्वर है। वह सत्यरूप है। ये समस्त संज्ञायें विद्वज्जन एवं महान् आत्माओं ने व्यवहार के लिए कल्पित की हैं। जैसे कङ्कण (हाथ का आभूषण) शब्द एवं उसका अर्थ स्वर्ण से अलग अस्तित्व नहीं रखता और कङ्कण से प्रतिष्ठित स्वर्ण कङ्कण से अलग अपना अस्तित्व नहीं रखता, ठीक वैसे ही 'जगत्' शब्द का तात्पर्य भी परब्रह्म ही होता है, इसके अतिरिक्त और कुछ भी नहीं ॥४४-४६॥ तेनेयमिन्द्रजालश्रीर्जगति प्रवितन्यते । द्रष्टुदृश्यस्य सत्तान्तर्बन्ध इत्यभिधीयते ॥ ४७॥ द्रष्टा दृश्यवशाद्वद्धो दृश्याभावे विमुच्यते । जगत्त्वमहमित्यादिसर्गात्मा दृश्यमुच्यते ॥ ४८ ॥ मनसैवेन्द्रजालश्रीर्जगति प्रवितन्यते । यावदेतत्संभवति तावन्मोक्षो न विद्यते ॥ ४९॥ उस अविनाशी परब्रह्म परमेश्वर ने जगत् के रूप में यह इन्द्रजाल विस्तीर्ण किया है। द्रष्टा का दृश्य श्री सत्ता से अन्तः सम्बद्ध होना 'बन्ध' कहा जाता है। दृश्य के वशीभूत होकर ही द्रष्टा बन्धन में पड़ता है और दृश्य के अभाव में ही वह मोक्ष प्राप्त करता है। यह जगत्, 'मेरा- तेरा' रूप भाव वाली सृष्टि, दृश्य कहलाती है। इस संसार में प्रपञ्चरूपी इन्द्रजाल मन के द्वारा ही प्रबुद्ध होता है। जब तक मन की यह कल्पना समाप्त नहीं होती, तब तक मुक्ति का मार्ग प्रशस्त होता नहीं दिखलाई पड़ता ॥४७-४९॥ ब्रह्मणा तन्यते विश्वं मनसैव स्वयंभुवा । मनोमयमतो विश्वं यन्नाम परिदृश्यते ॥ ५०॥ न बाह्ये नापि हृदये सद्रूपं विद्यते मनः । यदर्थं प्रतिभानं तन्मन इत्यभिधीयते ॥ ५१॥ संकल्पनं मनो विद्धि संकल्पस्तन्न विद्यते । यत्र संकल्पनं तत्र मनोऽस्तीत्यवगम्यताम् ॥ ५२॥ संकल्पमनसी भिन्ने न कदाचन केनचित् । संकल्पजाते गलिते स्वरूपमवशिष्यते ॥ ५३॥ यह संसार स्वयंभू ब्रह्मा जी की मानसिक सृष्टि है, अतः दृष्टिगोचर होने वाले इस विश्व को मनोमय ही समझना चाहिए। बाह्य अथवा अन्तःकरण में कहीं पर भी यह मन सद्रूप में अवस्थित नहीं है। विषय वस्तुओं का बोध ही मन कहलाता है। संकल्प-विकल्प होना ही मन का स्वभाव है; क्योंकि वह संकल्प में ही रमण कर रहा है। अतः जो संकल्प है, वही मन है, ऐसा जानना चाहिए। आज तक कोई भी संकल्प और मन को पृथक् नहीं कर सका। समस्त संकल्पों के विनष्ट हो जाने पर आत्मस्वरूप ही शेष रहता है॥ ५०-५३॥ अहं त्वं जगतित्यादौ प्रशान्ते दृश्यसंभ्रमे । स्यात्तादृशी केवलता दृश्ये सत्तामुपागते ॥ ५४॥ महाप्रलयसम्पत्तौ ह्यसत्तां समुपागते । अशेषदृश्ये सर्गादौ शान्तमेवावशिष्यते ॥ ५५॥ अस्त्यनस्तमितो भास्वानजो देवो निरामयः । सर्वदा सर्वकृत्सर्वः परमात्मेत्युदाहृतः ॥ ५६॥ यतो वाचो निवर्तन्ते यो मुक्तैरवगम्यते । यस्य चात्मादिकाः संज्ञाः कल्पिता न स्वभावतः ॥ ५७॥ 'मेरा-तेरा' एवं इस जगत् आदि दृश्य प्रपञ्च (इन्द्रजाल) के शान्त हो जाने पर दृश्य जब सत्ता को अर्थात् परमतत्त्व को प्राप्त कर लेता है, तब तदनुरूप ही वह कैवल्यावस्था को प्राप्त कर लेता है। महाप्रलय की स्थिति आने पर जब सम्पूर्ण दृश्य जगत् अस्तित्व रहित हो जाता है, तब उस समय सृष्टि के पूर्वकाल में केवल प्रशान्त आत्मा मात्र ही शेष रहता है। जो आत्मारूपी सूर्य (सविता) कभी अस्ताचल की ओर गमन नहीं करता, जो अजन्मा एवं सर्वदोषरहित देव है, सदैव सर्वकर्ता तथा सर्वरूप है; जहाँ वाशक्ति जाकर वापस आ जाती है; जिसे मुक्त पुरुष ही जानते हैं और जिसकी आत्मा आदि संज्ञाएँ कल्पना मात्र हैं, स्वाभाविक नहीं हैं; (वे ही अविनाशी परब्रह्म परमेश्वर कहे जाते हैं) ॥५४-५७॥ चित्ताकाशं चिदाकाशमाकाशं च तृतीयकम् । द्वाभ्यां शून्यतरं विद्धि चिदाकाशं महामुने ॥ ५८॥ देशाद्देशान्तरप्राप्तौ संविदो मध्यमेव यत् । निमेषेण चिदाकाशं तद्विद्धि मुनिपुङ्गव ॥ ५९॥ तस्मिन्निरस्तनिःशेषसंकल्पस्थितिमेषि चेत् । सर्वात्मकं पदं शान्तं तदा प्राप्नोष्यसंशयः ॥ ६०॥ उदितौदार्यसौन्दर्यवैराग्यरसगर्भिणी । आनन्दस्यन्दिनी यैषा समाधिरभिधीयते ॥ ६१॥ दृश्यासंभवबोधेन रागद्वेषादितानवे । रतिर्बलोदिता यासौ समाधिरभिधीयते ॥ ६२॥ दृश्यासंभवबोधो हि ज्ञानं ज्ञेयं चिदात्मकम् । तदेव केवलीभावं ततोऽन्यत्सकलं मृषा ॥ ६३॥ 'चित्ताकाश, चिदाकाश एवं (भौतिक) आकाश-ये ही तीन आकाश कहे गये हैं। हे मुने! इन तीनों में से चिदाकाश अति सूक्ष्म बतलाया गया है। हे मुनिश्रेष्ठ! एक देश (विषय) से दूसरे देश (विषय) में गमन करते समय निमेष भर का (वृत्तिशून्य) मध्यकाल आता है, वही चिदाकाश है- ऐसा जानना चाहिए। यदि तुम उस अतिश्रेष्ठ चिदाकाश में सभी संकल्पों को छोड़कर प्रतिष्ठित होते हो, तो निश्चय ही सर्वात्मक शान्त पद को प्राप्त करोगे। चिदाकाश की स्थिति तक पहुँच जाने के बाद जिस सुन्दर, उदार एवं वैराग्यरस से ओत-प्रोत आनन्दमय अवस्था की प्राप्ति होती है, उसे ही सहज समाधि कहा जाता है। जब यह बोध हो जाता है कि दृश्य पदार्थों की सत्ता है ही नहीं और राग-द्वेष आदि समस्त दोषों की समाप्ति हो जाती है; तब उस समय अभ्यास बल के द्वारा जो एकाग्र-रति (आनन्द) प्रादुर्भूत होती है, उसे ही समाधि कहा जाता है। दृश्य जगत् की सत्ता का अभाव जब अन्तःकरण में बोधरूप में आता है, तभी वह संशयरहित ज्ञान का स्वरूप कहलाता है। वह ही चिदात्मक ज्ञेयतत्त्व है, वही आत्म कैवल्य रूप है, इसके सिवाय अन्य सभी कुछ असत्य है॥५८- ६३॥ मत्त ऐरावतो बद्धः सर्षपीकोणकोटरे । मशकेन कृतं युद्धं सिंहौधैरेणुकोटरे ॥ ६४॥ पद्माक्षे स्थापितो मेरुर्निगीर्णो भृङ्गसूनुना । निदाघ विद्धि तादृक्त्वं जगतेतद्भमात्मकम् ॥ ६५॥ जिस प्रकार मदोन्मत्त ऐरावत हाथी का सरसों के एक किनारे के छिद्र में बाँधा जाना असंभव है, एक धूलिकण के बिल में मच्छरों का सिंहों के साथ युद्ध करना शक्य नहीं है और कमल की पंखुड़ी में प्रतिष्ठित सुमेरुपर्वत को भ्रमर के बच्चे द्वारा निगले जाने की कथा मिथ्या है। उसी प्रकार यह विश्व भी अस्तित्व में नहीं आ सकता। अतः हे निदाघ! तुम्हें इसकी सत्ता को भ्रमात्मक ही जानना चाहिए॥६४-६५॥ चित्तमेव हि संसारो रोगादिक्लेशदूषितम् । तदेव तैर्विनिर्मुक्तं भवान्त इति कथ्यते ॥ ६६॥ मनसा भाव्यमानो हि देहतां याति देहकः । देहवासनया मुक्तो देहधर्मैर्न लिप्यते ॥ ६७॥ कल्पं क्षणीकरोत्यन्तः क्षणं नयति कल्पताम् । मनोविलाससंसार इति मे निश्चिता मतिः ॥ ६८॥ नाविरतो दुश्चरितान्नाशान्तो नासमाहितः । नाशान्तमनसो वापि प्रज्ञानेनैनमाप्नुयात् ॥ ६९॥ राग-द्वेष आदि के विकारों से दूषित चित्त ही जगत् है। वही चित्त समस्त दोषों से मुक्त हो जाता है, तभी इसे जगत् का अन्त यानी मोक्ष की प्राप्ति होना कहा जाता है। मन के द्वारा शरीर की भावना किये जाने पर ही आत्मा देहात्मक बनती है। जब वह शारीरिक वासनाओं से मुक्त होती है, तभी वह (मन) शरीर के धर्मों में लिप्त नहीं होती। यह मन ही कल्प को क्षण बना देता है और क्षण में कल्पत्व भर देता है। अतः मेरी समझ में यह जगत् केवल मनोविलास अर्थात् मन का खेल मात्र ही है। जो मनुष्य दुश्चरित्रता से विलग नहीं हुआ है, एकाग्रचित्त नहीं है और जिसका चित्त अभी शान्त नहीं हुआ है, ऐसे पुरुष को आत्मसाक्षात्कार नहीं होता ॥ ६६-६९॥ तद्ब्रह्मानन्दमद्वन्द्वं निर्गुणं सत्यचिद्धनम् । विदित्वा स्वात्मनो रूपं न बिभेति कदाचन ॥ ७० ॥ परात्परं यन्महतो महान्तं स्वरूपतेजोमयशाश्वतं शिवम् । कविं पुराणं पुरुषं सनातनं सर्वेश्वरं सर्वदेवैरुपास्यम् ॥ ७१॥ अहं ब्रह्मेति नियतं मोक्षहेतुर्महात्मनाम् । द्वे पदे बन्धमोक्षाय निर्ममेति ममेति च । ममेति बध्यते जन्तुर्निर्ममेति विमुच्यते ॥ ७२॥ उस आनन्द स्वरूप, द्वन्द्वों से परे, गुणरहित (गुणों से परे), सत् स्वरूप, चिङ्घन परब्रह्म को अपना-निज स्वरूप जान लेने के पश्चात् मनुष्य को किञ्चित् भी भय नहीं होता। जो महान् से महानतम एवं श्रेष्ठ से श्रेष्ठतम, तेजः स्वरूप, शाश्वत, कल्याण-प्रद, सर्वज्ञ, पुराणपुरुष, सनातन, सर्वेश्वर तथा सभी देवगणों के द्वारा सम्पूजित एवं उपास्य है, वह अविनाशी ब्रह्म मैं हूँ- ऐसा निश्चय महात्माओं के लिए मुक्ति का माध्यम होता है । बन्धन एवं मोक्ष के दो ही कारण बनते हैं, जिनमें प्रथम है-ममता एवं द्वितीय ममतारहित होना। ममता के द्वारा जीव बन्धन में पड़ता है और ममता से रहित हो जाने के पश्चात् वह (जीव) मोक्ष को प्राप्त कर लेता है॥७०-७२॥ जीवेश्वरादिरूपेण चेतनाचेतनात्मकम् । ईक्षणादिप्रवेशान्ता सृष्टिरीशेन कल्पिता । जाग्रदादिविमोक्षान्तः संसारो जीवकल्पितः ॥ ७३॥ त्रिणाचिकादियोगान्ता ईश्वरभ्रान्तिमाश्रिताः । लोकायतादिसांख्यान्ता जीवविभ्रान्तिमाश्रिताः ॥ ७४॥ तस्मान्मुमुक्षिभिर्नैव मतिर्जविशवादयोः । कार्या किंतु ब्रह्मतत्त्वं निश्चलेन विचार्यताम् ॥ ७५॥ जीव रूप एवं ईश्वररूप से ईक्षण अर्थात् ब्रह्म के संकल्प से प्रारम्भ होकर तथा ब्रह्म में प्रवेश के अन्त वाले इस सम्पूर्ण जड़-चेतनात्मक सृष्टि की कल्पना ईश्वर के द्वारा ही की गई है। जाग्रत् अवस्था से लेकर मोक्ष प्राप्ति पर्यन्त सम्पूर्ण जगत् जीव के द्वारा ही कल्पित है। कठोपनिषद् के अन्तर्गत त्रिणाचिकेताग्नि से लेकर श्वेताश्वतर का योगपर्यन्त ज्ञान ईश्वरीय भ्रान्ति के आश्रित है। चार्वाक मत से लेकर कपिल के सांख्यसिद्धान्त तक का दार्शनिक ज्ञान (सांख्य आदि दर्शनों में प्रतिपादित ज्ञान) जीव भ्रान्ति का आधार है। अतः जो पुरुष मुक्ति की आकांक्षा करता है, वह जीव तथा ईश्वर के वाद-विवाद में बुद्धि को भ्रमित न करे, वरन् उसे दृढ़तापूर्वक ब्रह्मतत्त्व का ही निरन्तर चिन्तन करना चाहिए॥७३-७५॥ अविशेषेण सर्वं तु यः पश्यति चिदन्वयात् । स एव साक्षाद्विज्ञानी स शिवः स हरिर्विधिः ॥ ७६॥ दुर्लभो विषयत्यागो दुर्लभं तत्त्वदर्शनम् । दुर्लभा सहजावस्था सद्‌गुरोः करुणां विना ॥ ७७॥ उत्पन्नशक्तिर्बोधस्य त्यक्तनिःशेषकर्मणः । योगिनः सहजावस्था स्वयमेवोपजायते ॥ ७८ ॥ यदा ह्येवैष एतस्मिन्नल्पमप्यन्तरं नरः । विजानाति तदा तस्य भयं स्यान्नत्र संशयः ॥ ७९॥ सर्वगं सच्चिदानन्दं ज्ञानचक्षुर्निरीक्षते । अज्ञानचक्षुर्नेक्षेत भास्वन्तं भानुमन्दहृत् ॥ ८०॥ प्रज्ञानमेव तद्ब्रह्म सत्यप्रज्ञानलक्षणम् । एवं ब्रह्मपरिज्ञानादेव मर्त्याऽमृतो भवेत् ॥ ८१॥ भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः । क् षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन्दृष्टे परावरे ॥ ८२ ॥ ज्ञानवान् पुरुष वही है, जो सम्पूर्ण दृश्य-जगत् को निर्विशेष चित् रूप मानता हो। वही (कल्याणकारी) शिव है, वही ब्रह्मा एवं विष्णु भी वही है। विषय वासनाओं का त्याग अत्यन्त दुर्लभ है, तत्त्वज्ञान को प्राप्त करना भी अत्यन्त कठिन है और सद्‌गुरु की अनुकम्पा के बिना सहजावस्था को प्राप्त करना भी अत्यधिक दुःसाध्य है। जिसने अपनी बोधात्मिक शक्ति को जाग्रत् कर लिया है और अपने समस्त कर्मों का परित्याग कर दिया है, ऐसा योगी स्वयमेव सहजावस्था को प्राप्त कर लेता है; जब तक व्यक्ति को इसमें थोड़ा भी अन्तर मालूम पड़ता है, तब तक उसके लिए भय है, इसमें कुछ भी संशय नहीं है। सर्वरूप-परब्रह्म परमेश्वर को ज्ञान के नेत्रों से देखा जा सकता है, जिसके पास ज्ञान के नेत्रों का अभाव है, वह अविनाशी ब्रह्म को ठीक वैसे ही नहीं देख सकता, जिस प्रकार अंधे व्यक्ति को प्रकाशमान सूर्य (सवितादेवता) के दर्शन नहीं होते। वह ब्रह्म प्रज्ञान स्वरूप है। सत्य ही प्रज्ञान का लक्षण है। अतः ब्रह्म के परिज्ञान से ही मर्त्य जीव अमरत्व को प्राप्त करता है। उस कार्यकारण स्वरूप ब्रह्म का साक्षात्कार होते ही मनुष्य के हृदय की गाँठे खुल जाती हैं, सभी संशय समाप्त हो जाते हैं और समस्त कर्म (प्रारब्धादि) क्षीणता को प्राप्त हो जाते हैं॥७६-८२॥ अनात्मतां परित्यज्य निर्विकारौ जगस्थितौ । एकनिष्ठतयान्तस्थः संविन्मात्रपरो भव ॥ ८३॥ मरुभूमौ जलं सर्वं मरुभूमात्रमेव तत् । जगत्त्रयमिदं सर्वं चिन्मात्रं स्वविचारतः ॥ ८४॥ लक्ष्यालक्ष्यमतिं त्यक्त्वा यस्तिष्ठेत्केवलात्मना । शिव एव स्वयं साक्षादयं ब्रह्मविदुत्तमः ॥ ८५॥ अधिष्ठानमनौपम्यमवाङ्गनसगोचरम् । नित्यं विभुं सर्वगतं सुसूक्ष्मं च तदव्ययम् ॥ ८६॥ सर्वशक्तेर्महेशस्य विलासो हि मनो जगत् । संयमासंयमाभ्यां च संसारं शान्तिमन्वगात् ॥ ८७॥ हे पुत्र निदाघ! अनात्म भाव को त्यागकर, सांसारिक स्थिति में विकाररहित होकर अनन्य निष्ठापूर्वक अन्तः में प्रतिष्ठित होकर आत्म-चैतन्य में ही रमण करते रहो। जिस प्रकार मरुभूमि में भ्रम से दिखाई देने वाला जल मरुस्थल मात्र ही रहता है, उसी प्रकार जाग्रत्, स्वप्न एवं सुषुप्तावस्था से युक्त यह सम्पूर्ण जगत् आत्मविचार से ही चिन्मय जानना चाहिए। जो लक्ष्य एवं अलक्ष्य बुद्धि का परित्याग करके केवल आत्मनिष्ठ हो जाता है, वही श्रेष्ठ ब्रह्मज्ञानी एवं स्वयं साक्षात् शिवरूप है। इस जगत् का अधिष्ठान अद्वितीय है, वाणी एवं मन की पहुँच से परे है। नित्य, विभु, सर्वगत, सूक्ष्मातिसूक्ष्म एवं अव्यय स्वरूप से युक्त है। यह विश्व सर्वशक्तिमान् भगवान् महाशिव का मनोविलास मात्र ही है। संयम (धारणा, ध्यान, समाधि) एवं असंयम (सहज ज्ञान) के द्वारा ये सभी सांसारिक प्रपञ्च शान्ति को प्राप्त होते हैं॥८३-८७॥ मनोव्याधेश्चिकित्सार्थमुपायं कथयामि ते । यद्यत्स्वाभिमतं वस्तु तत्त्यजन्मोक्षमश्नुते ॥ ८८ ॥ स्वायत्तमेकान्तहितं स्वेप्सितत्यागवेदनम् । यस्य दुष्करतां यातं धिक्तं पुरुषकीटकम् ॥ ८९॥ स्वपौरुषेकसाध्येन स्वेप्सितत्यागरूपिणा । मनःप्रशममात्रेण विना नास्ति शुभा गतिः ॥ ९०॥ असंकल्पनशस्त्रेण छिन्नं चित्तमिदं यदा । सर्वं सर्वगतं शान्तं ब्रह्म सम्पद्यते तदा ॥ ९१॥ भव भावनया मुक्तो मुक्तः परमया धिया । धारयात्मानमव्यग्रो ग्रस्तचित्तं चितः पदम् ॥ ९२॥ हे निदाघ मुने! मैं तुम्हारे मन में प्रादुर्भूत होते हुए विकारों की चिकित्सा के लिए उपाय बतलाता हूँ। जिन-जिन इच्छित वस्तुओं की प्राप्ति के लिए मन चंचल हो, उन पदार्थों का त्याग ही मानव के मोक्ष-प्राप्ति का साधन है। जिसके लिए अभिलषित सांसारिक पदार्थों के त्याग की भावना, एकान्त प्रिय होना एवं आत्मा की अधीनता दुष्कर हो जाती है, ऐसे उस मनुष्य रूपी कीट (कीड़े) को धिक्कार है। अपनी इच्छित वस्तुओं एवं पदार्थों का प्रयत्नपूर्वक परित्याग करना ही वास्तविक मन की शान्ति का श्रेष्ठ मार्ग है। इसके अतिरिक्त कोई अन्य दूसरी गति नहीं है। सङ्कल्पशून्यता रूपी शस्त्रास्त्रों से जब इस चित्त का कर्तन कर दिया जाता है, तब सर्वस्वरूप सर्वान्तर्यामी, शान्तरूप ब्रह्म की उपलब्धि होती है। इसलिए प्रपञ्च की भावना से रहित होकर प्रज्ञासम्पन्न होकर तथा चित्त को नियन्त्रित करके चिन्मात्र में प्रतिष्ठित हो जाओ॥८८-९२॥ परं पौरुषमाश्रित्य नीत्वा चित्तमचित्तताम् । ध्यानतो हृदयाकाशे चिति चिच्चक्रधारया ॥ ९३॥ मनो मारय निःशङ्क त्वां प्रबध्नन्ति नारयः ॥ ९४॥ अयं सोऽहमिदं तन्म एतावन्मात्रकं मनः । तदभावनमात्रेण दात्रेणेव विलीयते ॥ ९५॥ छिन्नाभ्रमण्डलं व्योम्नि यथा शरदि धूयते । वातेन कल्पकेनैव तथान्तर्भूयते मनः ॥ ९६॥ कल्पान्तपवना वान्तु यान्तु चैकत्वमर्णवाः । तपन्तु द्वादशादित्या नास्ति निर्मनसः क्षतिः ॥ ९७॥ श्रेष्ठ पौरुष रूप अभ्यास एवं वैराग्य का आश्रय प्राप्त करके तथा चित्त को अचित्तावस्था में ले जाकर आकाश रूपी हृदय में चिन्तन करते हुए बराबर चैतन्य तत्त्व में लगे हुए चित्त रूपी चक्र की तीक्ष्ण धार से मन का दमन कर देना चाहिए; ऐसा करते ही तुम्हारी सभी शंकायें निर्मूल हो जायेंगी तथा कामादि रूप शत्रु, बन्धन में न बाँध सकेंगे। यह वह है, मैं यह हूँ, वे समस्त पदार्थ मेरे हैं, यह भावना ही मन है। इन्हीं भावनाओं के त्याग से मन को (काटने के उपकरण द्वारा काटने की तरह) विनष्ट किया जा सकता है। जैसे शरत्-काल के आकाश में छिन्न-भिन्न हुए बादलों के समूह वायु की ठोकरों से विलीन हो जाते हैं, वैसे ही सविचारों के द्वारा ही मन अन्तर्हित हो जाता है। चाहे प्रलयंकारी उनचासों पवन एक साथ प्रवाहित हों अथवा सभी सागर एक साथ सम्मिलित होकर एकार्णवरूप हो जायें। चाहे द्वादश आदित्य भी एक साथ मिलकर क्यों न तपने लगें; किन्तु फिर भी मन से विहीन मनुष्य को किसी प्रकार की क्षति नहीं हो सकती । केवल संकल्पहीनता रूपी एक साध्य ही सम्पूर्ण सिद्धियों की प्राप्ति का साधन है। अतः तत्पद का आश्रय ग्रहण करके संकल्पहीनता के विस्तृत साम्राज्य में प्रतिष्ठित हो जाओ॥९३-९७॥ असंकल्पनमात्रैकसाध्ये सकलसिद्धिदे । असंकल्पातिसाम्राज्ये तिष्ठवष्टब्धतत्पदः ॥ ९८॥ न हि चञ्चलताहीनं मनः क्वचन दृश्यते । चञ्चलत्वं मनोधर्मो वह्नेर्धर्मो यथोष्णता ॥ ९९॥ एषा हि चञ्चलास्पन्दशक्तिश्चित्तत्वसंस्थिता । तां विद्धि मानसीं शक्तिं जगदाडंबरात्मिकाम् ॥ १००॥ यत्तु चञ्चलताहीनं तन्मनोऽमृतमुच्यते । तदेव च तपः शास्त्रसिद्धान्ते मोक्ष उच्यते ॥ १०१ ॥ अचञ्चल मन कहीं पर नहीं दीखता, चञ्चलता मन का सहज धर्म है, जैसे अग्नि का सहज धर्म गर्मी प्रदान करना है। यही चञ्चल स्वभाव वाली स्पन्दन शक्ति चित्त का स्वाभाविक धर्म है। इसी मानसिक शक्ति को सांसारिक प्रपञ्च का सहजस्वरूप जानना चाहिए। जो मन अचञ्चल हो जाता है, वहीं अमृतस्वरूप कहा जाता है, वही तप है। उसे ही शास्त्रीय-सिद्धान्त की दृष्टि से मोक्ष कहते हैं। मन की चञ्चलता ही अविद्या है और वासना उसका स्वरूप है। शत्रुरूपी वासना को सविचारों के द्वारा काट देना चाहिए ॥९८-१०१॥ तस्य चञ्चलता यैषा त्वविद्या वासनात्मिका । वासनापरनाम्नीं तां विचारेण विनाशय ॥ १०२॥ पौरुषेण प्रयत्नेन यस्मिन्नैव पदे मनः । योज्यते तत्पदं प्राप्य निर्विकल्पो भवानघ ॥ १०३॥ अतः पौरुषमाश्रित्य चित्तमाक्रम्य चेतसा । विशोकं पदमालम्ब्य निरातङ्कः स्थिरो भव ॥ १०४॥ मन एव समर्थं हि मनसो दृढनिग्रहे । अराजकः समर्थः स्याद्राज्ञो निग्रहकर्मणि ॥ १०५॥ तृष्णाग्राहगृहीतानां संसारार्णवपातिनाम् । आवर्तेरूह्यमानानां दूरं स्वमन एव नौः ॥ १०६ ॥ हे निष्पाप मुने! मन को पुरुषार्थ के द्वारा जिस उद्देश्य में स्थिर करो, उसे प्राप्त करके निर्विकल्प समाधि को अर्जित करो। अतएव प्रयासपूर्वक चित्त को चित्त से वशीभूत करके शोकरहित अवस्था के आश्रय से, आतंक से दूर रहकर शान्ति प्राप्त करो । विषय विकारों से रहित मन ही मन का पूर्णरूपेण निरोध करने में समर्थ हो सकता है। किसी राजा को पराजित करने में कोई राजा ही समर्थ होता है। जो तृष्णारूपी ग्राह के द्वारा ग्रसित किये जा चुके हैं, जो संसार-सागर में गिरकर भंवरों के जाल में फंसकर अपने लक्ष्य से दूर भटक गये हैं, उन्हें बचाने के लिए विषय-विकारों से रहित मन ही समर्थ है, वही नौका का रूप धारण करके पार लगा सकता है। हे मुने ! इस प्रकार के विकार-रहित मन के द्वारा इस विशाल बन्धनरूपी जाल को विनष्ट कर दो। स्वयमेव संसार-सागर से पार हो जाओ। अन्य और किसी के द्वारा यह संसार रूप सागर नहीं पार किया जा सकता ॥ १०२- १०६॥ मनसैव मनश्छित्त्वा पाशं परमबन्धनम् । भवादुत्तारयात्मानं नासावन्येन तार्यते ॥ १०७॥ या योदेति मनोनाम्नी वासना वासितान्तरा । तां तां परिहरेत्प्राज्ञस्ततोऽविद्याक्षयो भवेत् ॥ १०८॥ भोगैकवासनां त्यक्त्वा त्यज त्वं भेदवासनाम् । भावाभावौ ततस्त्यक्त्या निर्विकल्पः सुखी भव ॥ १०९ ॥ एष एव मनोनाशस्त्वविद्यानाश एव च । यत्तत्संवेद्यते किंचित्तत्रास्थापरिवर्जनम् ॥ ११०॥ जब-जब अन्तःकरण को आच्छादित करने वाली मनरूपी वासना का प्राकट्य हो, तब-तब उसका परित्याग करना ज्ञानी मनुष्य का परम कर्तव्य हो जाता है, क्योंकि ऐसा करने से अविद्या का विनाश हो जाता है। सर्वप्रथम भोगरूपी वासना का त्याग करो, फिर भेदरूपी वासना का त्याग करो, उसके पश्चात् भाव-अभाव दोनों का ही त्याग करके निर्विकल्प होकर पूर्ण सुखी हो जाओ। मन का विनाश ही अविद्या का विनाश कहा गया है। मन द्वारा जो कुछ भी अनुभूति में आता हो, उस-उसमें आस्था कदापि न होने दो। आस्था का परित्याग करना ही निर्वाण है और आस्था के आश्रित रहना ही दुःख है। जो प्रज्ञा से रहित है, उन्हीं में अविद्या प्रतिष्ठित रहती है। सम्यक् प्रज्ञासम्पन्न मनुष्य नाम मात्र के लिए भी कहीं अविद्या को स्वीकार नहीं करते ॥१०७-११०॥ अनास्थैव हि निर्वाणं दुःखमास्थापरिग्रहः ॥ १११॥ अविद्या विद्यमानैव नष्टप्रज्ञेषु दृश्यते । नाम्नैवाङ्गीकृताकारा सम्यक्प्रज्ञस्य सा कुतः ॥ ११२ ॥ तावत्संसारभृगुषु स्वात्मना सह देहिनम् । आन्दोलयति नीरन्धं दुःखकण्टकशालिषु ॥ ११३॥ अविद्या यावदस्यास्तु नोत्पन्ना क्षयकारिणी । स्वयमात्मावलोकेच्छा मोहसंक्षयकारिणी ॥ ११४॥ अस्याः परं प्रपश्यन्ताः स्वात्मनाशः प्रजायते । दृष्टे सर्वगते बोधे स्वयं ह्येषा विलीयते ॥ ११५॥ इस दुःखरूपी कंटक से ओत-प्रोत संसार रूपी भ्रमजाल में तभी तक अविद्या अपने साथ देहधारी को निरन्तर भ्रमाती है, जब तक इसको विनष्ट करने वाली मोहनाशिनी आत्मसाक्षात्कार की आकांक्षा स्वयं ही उत्पन्न नहीं होती। यह अविद्या जब परमात्मतत्त्व की ओर देखती है, तब इसका स्वयं ही नाश हो जाता है। सर्वात्मबोध के दर्शन होते ही अविद्या स्वयं ही लुप्त हो जाती है। केवल इच्छा मात्र ही अविद्या का स्वरूप है और इच्छा का पूरी तरह से नष्ट होना ही मोक्ष कहा गया है। हे मुने! किन्तु इच्छा तभी समाप्त होती है, जब संकल्प का पूर्णरूपेण विनाश हो जाये, अन्यथा इच्छा का नाश असम्भव है। चित् रूपी सूर्य के प्रकाश से कलिरूपी अन्धकार क्षीण हो जाता है॥१११-११५॥ इच्छामात्रमविद्येयं तन्नाशो मोक्ष उच्यते । स चासंकल्पमात्रेण सिद्धो भवति वै मुने ॥ ११६ ॥ मनागपि मनोव्योम्नि वासनारजनी क्षये । कालिका तनुतामेति चिदादित्याप्रकाशनात् ॥ ११७॥ चैतान्युपातरहितं सामान्येन च सर्वगम् । यच्चित्तत्त्वमनाख्येयं स आत्मा परमेश्वरः ॥ ११८ ॥ सर्वं च खल्विदं ब्रह्म नित्यचिद्धनमक्षतम् । कल्पनान्या मनोनाम्नी विद्यते न हि काचन ॥ ११९ ॥ न जायते न म्रियत्ते किंचिदत्र जगत्त्रये । न च भावविकाराणां सत्ता क्वचन विद्यते ॥ १२०॥ केवलं केवलाभासं सर्वसामान्यमक्षतम् । चैत्यानुपातरहितं चिन्मात्रमिह विद्यते ॥ १२१॥ जब चित्त विषय वासनाओं का त्याग कर देता है तथा सर्वत्र गमन करने वाला बन जाता है, तब उसकी ऐसी अनिर्वचनीय अवस्था ही आत्मा एवं परमात्मा के नाम से अभिहित होती है। अवश्य ही यह सभी कुछ ब्रह्म है। वह नित्य एवं चिङ्घनस्वरूप है। वही अव्यय है। इसके अतिरिक्त जो अन्य मन नाम की कल्पना की जाती है, उसका कहीं पर भी अस्तित्व नहीं है। वह तो मात्र भ्रम ही है। इन तीनों लोकों में न तो किसी का जन्म होता है और न ही मृत्यु । ये जो भी भाव- विकार दृष्टिगोचर होते हैं, ये सभी अस्तित्वहीन हैं। एकमात्र केवलाभासरूप, सर्वव्यापी, अव्यय तथा चित्त के विषयों का अनुगमन न करने वाले केवल चिन्मात्र की ही सत्ता यहाँ विद्यमान है। उस नित्य, सर्वत्रव्यापी, शुद्ध, चिन्मात्र, उपद्रव-रहित, शान्तस्वरूप एवं शमरूप में स्थित विकाररहित चिदात्मा में स्वयंचित्त ही स्वभावानुसार संकल्पपूर्वक गमन करता है, चित्त की वही संकल्परूप अवस्था स्वयं निर्दोष होते हुए भी मनन करने के कारण मन कही जाती है॥ ११६-१२१॥ तस्मिन्नित्ये तते शुद्धे चिन्मात्रे निरुपद्रवे । शान्ते शमसमाभोगे निर्विकारे चिदात्मनि ॥ १२२॥ यैषा स्वभावाभिमतं स्वयं संकल्प्य धावति । चिच्चैत्यं स्वयमम्लानं माननान्मन उच्यते । अतः संकल्पसिद्धेयं संकल्पेनैव नश्यति ॥ १२३॥ नाहं ब्रह्मेति संकल्पात्सुदृढाद्वध्यते मनः । सर्वं ब्रह्मेति संकल्पात्सुदृढान्मुच्यते मनः ॥ १२४॥ कृशोऽहं दुःखबद्धोऽहं हस्तपादादिमानहम् । इति भावानुरूपेण व्यवहारेण बध्यते ॥ १२५॥ इस कारण संकल्प के द्वारा सिद्ध मन संकल्प द्वारा ही विनष्ट हो जाता है 'मैं ब्रह्म नहीं हूँ' ऐसा सुदृढ़ संकल्प हो जाने से मन बन्धन-ग्रस्त नहीं होता और 'यह सभी कुछ ब्रह्म ही है', ऐसा दृढ़ निश्चयी संकल्प हो जाने पर मन मुक्ति को प्राप्त कर लेता है। मैं क्षीणकाय हूँ, दुःखों से ग्रस्त हूँ, मैं हाथ पैर से युक्त हूँ, इस प्रकार के भावानुकूल व्यवहार से प्राणी बन्धनग्रस्त हो जाता है। मैं दुःखी नहीं हूँ, मेरा शरीर नहीं, आत्मतत्त्व में प्रतिष्ठित मुझमें बन्धन कहाँ?' इस प्रकार के व्यावहारिक जीवन से ओत-प्रोत मन मुक्ति को प्राप्त कर लेता है। 'मैं मांस नहीं हूँ, अस्थि नहीं हैं, ऐसा दृढ़ निश्चय कर लेने पर जिसके अन्तस् से अविद्या नष्ट हो गयी है, वही मुक्ति को प्राप्त कर लेता है॥१२२-१२५॥ नाहं दुःखी न मे देहो बन्धः कोऽस्यात्मनि स्थितः । इति भावानुरूपेण व्यवहारेण मुच्यते ॥ १२६ ॥ नाहं मांसं न चास्थीनि देहादन्यः परोऽस्म्यहम् । इति निश्चितवानन्तः क्षीणाविद्यो विमुच्यते ॥ १२७॥ कल्पितेयमविद्येयमनात्मन्यात्मभावनात् । परं पौरुषमाश्रित्य यत्नात्परमया धिया । भोगेच्छां दूरतस्त्यक्त्वा निर्विकल्पः सुखी भव ॥ १२८॥ मम पुत्रो मम धनमहं सोऽयमिदं मम । ि इतीयमिन्द्रजालेन वासनैव विवल्गति ॥ १२९॥ मा भवाज्ञो भव ज्ञस्त्वं जहि संसारभावनाम् । अनात्मन्यात्मभावेन किमज्ञ इव रोदिषि ॥ १३०॥ कस्तवायं जडो मूको देहो मांसमयोऽशुचिः । यदर्थं सुखदुःखाभ्यामवशः परिभूयसे ॥ १३१॥ आत्म-रहित पदार्थों में आत्मभावना होना ही अविद्या जनित कल्पना है। अभ्यास एवं वैराग्य का आश्रय प्राप्त करके बुद्धिमत्तापूर्वक यत्न से भोग की आकांक्षा को दूर से ही छोड़कर, निर्विकल्प होकर पूर्ण सुखमय जीवन व्यतीत करो। यह 'मेरा पुत्र 'मेरा धन' 'मैं यह हूँ" मैं वह हूँ', 'यह मेरा है' आदि समस्त वासनायें ही प्रपञ्च फैलाकर भिन्न-भिन्न क्रीड़ा कर रही हैं। तुम अज्ञानी मत बनो, ज्ञानवान् बनो, समस्त सांसारिक भावनाओं को विनष्ट कर दो। अनात्म विषयों में आत्मभावना से युक्त होकर मूर्यों की तरह क्यों रो रहे हो? यह मांस का पिण्ड, अशुद्ध, मूक, जड़ शरीर तुम्हारा कौन है, जिसके लिए बलपूर्वक दुःख-सुख से अभिभूत हो रहे हो? अरे! कितना महान् आश्चर्य है कि जो अविनाशी ब्रह्म सत्य है, उसे मनुष्य ने विस्मृत कर दिया है। तुम अपने कर्तव्य-कर्मों में सदा लगे रहो। मन को अविद्यादि कर्मों में लिप्त न होने दो। अरे! कितने आश्चर्य की बात है। कि कमलनाल के तन्तुओं को रस्सी मानकर उनसे पर्वत आबद्ध कर दिये गये हैं। जो अविद्या अस्तित्व रहित है, उसी के द्वारा यह विविध रूपात्मक जगत् अभिभूत हो रहा है। उस अविद्या के प्रभाव से तृणवत् तुच्छ, जाग्रत्, सुषुप्तावस्था आदि तीनों जगत् वज्र के समान दृढ़ परिलक्षित हो रहे हैं॥ १२६-१३१॥ अहो नु चित्रं यत्सत्यं ब्रह्म तद्विस्मृतं नृणाम् । तिष्ठतस्तव कार्येषु मास्तु रागानुरञ्जना ॥ १३२॥ अहो नु चित्रं पद्मोत्थैर्बद्धास्तन्तुभिरद्रयः । अविद्यमान या विद्या तया विश्वं खिलीकृतम् ॥ १३३॥ ॥ इति चतुर्थोऽध्यायः ॥ ४॥ ॥ चतुर्थ तृतीय अध्याय समाप्त ॥

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